धर्म-अध्यात्म : झूठ की कमजोर नींव पर खड़ी ‘मैं’ की इमारत!
चेतना मंच
विनय संकोची
यदि मन की बात करें, तो इस बेलगाम को काबू में रखना लगभग असंभव ही है। फर्श पर पड़े पारे को चुटकी से उठाने जैसा प्रयास, मन को काबू में रखने की कोशिश तो होती है, मगर कामयाबी की कोई गारंटी नहीं होती है। मन की चंचलता सर्वविदित है। चंचल मन को वश में रखने के तमाम उपाय सुझाए तो जाते हैं, लेकिन उपाय सुझाने वाले भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं होते कि मन, उन उपायों से पालतू बन जाएगा।
मन हमेशा मनुष्य से कुछ-न-कुछ चाहता रहता है और ऐसा कुछ चाहता है, जिसे पाना बहुत आसान न हो। कठिनाइयों के बाद मिली सफलता से मन अपेक्षाकृत ज्यादा सुखी और संतुष्ट होता है। सहज रूप से, अल्प प्रयास से मिली उपलब्धियां मन को प्रसन्न तो निश्चित रूप से करती हैं, लेकिन संतुष्ट बहुत अधिक नहीं कर पाती हैं।
मनुष्य मन का दास होता है। अधिकांशत: मनुष्य वही करता है, जो उसका मन चाहता है। केवल विवेक है, जो मन की स्वतंत्रता में बाधा डालता है। परंतु देखा यह जाता है कि मनुष्य विवेक की अनदेखी कर, मन के कहने पर चलने का निर्णय लेता है। मन की तमाम लुभावनी बातें मनुष्य को स्वार्थ मार्ग पर अग्रसर करती हैं। मन मनुष्य के ‘मैं’ का पोषण करता है, जिससे उसके सोच पर प्रभाव पड़ता है। मन, कामनाओं का जनक है। मनुष्य सोचता है – ‘मेरे मन की बात बन जाए’। यही सोच कामना का रूप धर लेती है और कामना दु:ख का कारण बनती है। परोक्ष रूप से मन ही कामना के रूप में दु:ख कष्ट का कारण बनता है और दोष लगता है मनुष्य को।
मनुष्य ज्यों-ज्यों मन की बात मानता और मनवाता है, त्यों-त्यों कामना, इच्छा, स्वार्थ के दलदल में फंसता चला जाता है। गहरा और गहरा। मन कामनाओं का त्याग नहीं करने देता, मन इच्छाओं का दमन नहीं होने देता। मन स्वार्थ भाव को सींचता है और मनुष्य मन की बात को पूरा करने में अपना संपूर्ण जीवन लगा देता है। अंतिम समय तक भी मन की बात, मन की कामना पूरी नहीं होती है।
मन के भावों पर नियंत्रण रखने के उपदेश आदिकाल से महापुरुष देते चले आ रहे हैं। परंतु विरले ही हैं, जो मन के भाव प्रवाह को बांध पाने में सफल हुए हैं। प्राचीन ग्रंथों में तमाम ऐसी कहानियां पढ़ने को मिल जाती हैं, जो दर्शाती हैं कि अनेक महापुरुष जिन्होंने मन पर अंकुश लगाने के उपदेश दिए और किसी पड़ाव पर वह भी मन के हाथों मजबूर हुए। उन्होंने भी ऐसे काम किए जिन्हें वे करना नहीं चाहते थे और उन्होंने ऐसा इस कारण से किया क्योंकि मन ने उन्हें विवश कर दिया बंद कर दिया।
मन मनुष्य के स्वभाव को प्रभावित और नियंत्रित करता है। शास्त्र कहते हैं – ‘स्वार्थ और अहंकार से स्वभाव बिगड़ता है और इस बिगड़ाव का कारण मूल रूप से मन ही होता है। मन कहता है – ‘अपने बारे में सोचो, वह काम करो, जिससे तुम्हारा अपना भला हो।’ मन यह भी कहता है कि तुम सब कुछ कर सकते हो। तुम ही सबसे श्रेष्ठ हो, तुम ही सबसे ज्यादा बुद्धिमान हो। मन की इन बातों से मनुष्य के स्वभाव में दूसरों के प्रति उपेक्षा का भाव पनपता है और साथ ही विकसित होती है झूठ की कमजोर नींव पर खड़ी ‘मैं’ की इमारत।