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इन 5 दबावों के चलते, मोदी ने किया परिवारवाद का समर्थन

Modi on dynasty

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क्या बीजेपी में भी परिवारवाद हावी हो रहा है? क्या मोदी समझ गए हैं कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद के बिना गुजारा नहीं हो सकता? या आगामी चुनावों में परिवारों के चलते बीजेपी को नुकसान का खतरा दिख रहा है?

ये सवाल इसलिए खड़े हो रहे हैं क्योंकि, राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही परिवारवाद के सख्त विरोधी रहे पीएम मोदी के रुख में बदलाव दिख रहा है। 26 नवंबर को संविधान दिवस के मौके पर संसद के सेंट्रल हॉल में भाषण के दौरान मोदी ने राजनीति में परिवारवाद पर अपनी राय से सबको चौंका दिया।

नरेंद्र मोदी ने कहा कि एक ही परिवार के एक से ज्यादा लोगों का राजनीति में आना गलत नहीं है। अगर वह अपनी प्रतिभा और जनता के वोट के बल पर चुनाव जीतते हैं तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन, किसी राजनीतिक दल पर परिवार का कब्जा लोकतंत्र के लिए खतरा है।

आखिर मोदी को परिवारवाद के मुद्दे पर यह सफाई क्यों देनी पड़ी? आइए जानते हैं इसकी वजहें…

पहली वजह:
नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार में अनुराग ठाकुर, पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान, किरण रिजीजू, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे लोग मंत्रिपरिषद का हिस्सा हैं। ये सब राजनीतिक परिवारों से आते हैं। यानी, परिवारवादी राजनीति का हिस्सा हैं।

ऐसे में मोदी और उनकी पार्टी पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगना स्वाभाविक है। अपने भाषण के जरिए मोदी ने एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की।

पहला निशाना, मंत्रिपरिषद में शामिल नेताओं पर आरोप लगाने वाले थे। मोदी ने स्पष्ट कर दिया कि वे अपनी प्रतिभा और जनता के विश्वास की वजह से अपने पद पर हैं। साथ ही, उन पार्टियों पर हमला भी किया जिन पर परिवारों का कब्जा है।

दूसरी वजह:
इशारा साफ है कि मोदी ने कांग्रेस, शिवेसना, टीएमसी, आरजेडी और समाजवादी पार्टी जैसे दलों को उस कैटेगरी में रखा है जिन पर एक परिवार का नियंत्रण है। इन पार्टियों पर हमला करते हुए मोदी ने कहा कि जिन पार्टियों में ही लोकतंत्र नहीं है वे लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा हैं।

इस आरोप के बाद मोदी और उनकी सरकार पर दोहरे मापदंड अपनाने का आरोप लगना तय है क्योंकि, जगन मोहन रेड्डी, अनुप्रिया पटेल और ​नवीन पटनायक जैसे नेता उनके समर्थन में हैं। मोदी ने बड़ी बारीकी से इन आरोपों से बचने का भी रास्ता निकाल लिया है। जगन, अनुप्रिया और नवीन पटनायक जिस दल के मुखिया हैं, उनकी स्थापना भी स्वयं इन नेताओं ने ही की है। यानी, इन दलों पर इनसे बाप-दादाओं का कब्जा नहीं रहा है।

तीसरी वजह:
पिता के बाद पुत्र/पुत्री को पार्टी का टिकट या महत्वपूर्ण पद न देने के रवैये के चलते बीजेपी को नुकसान तो हो रहा है लेकिन, कोई भी नेता खुलकर इसे कह नहीं सकता क्योंकि, मोदी नाराज हो सकते हैं।

प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन, रमन सिंह के बेटे अभिषेक, वसुंधरा राजे बेटे दुष्यंत, अनंत कुमार की पत्नी तेजस्विनी जैसे नेता इसका उदाहरण हैं। प्रतिभा होने के बावजूद उन्हें अपने पिता या पति के सरनेम की वजह से पार्टी का चेहरा बनने से जानबूझकर रोका गया जिससे पार्टी को कई क्षेत्रों में नुकसान हुआ है।

शायद इसी दबाव के चलते मोदी को हिमाचल प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर को राज्य मंत्री बनाना पड़ा था। लेकिन, दो साल में ही उन्होंने अपनी प्रतिभा साबित कर दी और मजबूरन मोदी मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री का दर्जा देना पड़ा।

चौथी वजह:
पार्टी विद डिफरेंस के तमगे को बनाए रखने के चक्कर में अमित शाह, राजनाथ सिंह और अजित डोवाल जैसे दिग्गज नेताओं के बेटों की राजनीति में रुचि होने के बावजूद बड़ी जिम्मेदारी नहीं दी जा रही है।

राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह यूपी में एमएलए हैं लेकिन, उन्हें योगी मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं किया गया। अमित शाह के बेटे जय शाह की क्रिकेट और राजनीति में पकड़ है लेकिन, उन्हें गुजरात की राजनीति का चेहरा नहीं बनने दिया गया। यहां तक कि अजित डोवाल के बेटे शौर्य डोवाल, जो उत्तराखंड की राजनीति में काफी लोकप्रिय हैं उन्हें भी अपने पिता की मोदी से नजदीकी का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। जबकि, उनके राजनीतिक विरासत के नाम पर कुछ भी नहीं है।

यह बातें पब्लिक फोरम पर भले ही सामने नहीं आती लेकिन, पार्टी के अंदर इन चीजों को लेकर असंतोष बढ़ना स्वाभाविक है। खासतौर पर ये सारे चेहरे युवा हैं और मोदी युग की समाप्ति के बाद इनकी नाराजगी का पार्टी को नुकसा भी उठाना पड़ सकता है। शायद यह बात मोदी को समझ में आ गई है।

पांचवीं वजह:
हाल ही हुए विधानसभा और लोकसभा के उपचुनावों में पार्टी को मिली हार भी इसका बड़ा कारण है। 30 विधानसभा और तीन लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी ने किसी भी दिवंगत नेता के परिवार को टिकट देने से इनकार कर दिया।

हिमाचल में जुबल कोटखाई और हंगल विधानसभा पर बीजेपी का कब्जा था लेकिन, पार्टी ने दिवंगत एमएलए के परिवार को टिकट नहीं दिया। नतीजतन, परिवार ने बगावत कर दी और पार्टी को ये दोनों सीटें गंवानी पड़ी। ऐसा अन्य कई सीटों पर भी हुआ।

भारतीय राजनीति में यह बात बहुत पहले से स्थापित है कि संवेदानाओं के आधार पर वोट मिलते हैं। इसके बावजूद पार्टी ने दिवंगत नेताओं के परिवार के प्रति संवेदना दिखाने के बजाए उन्हें सिरे से खारिज कर दिया।

किसी भी क्षेत्र में मेरिट या प्रतिभा के आधार पर चयन होना, व्यवस्था के निष्पक्ष होने की सबसे बड़ी गारंटी है। राजनीति में भी इस नियम का पालन होना चाहिए। लेकिन, क्या किसी युवा को सिर्फ इसलिए डॉक्टर की परीक्षा में बैठने से रोका जा सकता है कि उसके पिता पहले से डॉक्टर हैं? तो क्या राजनीति में ऐसा करना क्या सही है? शायद यही सवाल बीजेपी के अंदरखाने में उठने लगे हैं।

मोदी ने कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले के बाद राजनीति में परिवारवाद पर अपनी बदली हुई राय का संकेत देकर जता दिया है कि उन्हें हवा का रुख भांपना आता है। इस रुख का असर आने वाले विधानसभा चुनावों पर कैसे पड़ेगा, क्या टिकट बंटवारे में इस बार बेटे/बेटियों या परिवारों को प्राथमिकता दी जाएगी? इन सवालों के जवाब के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा।

– संजीव श्रीवास्तव

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