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धर्म-अध्यात्म : ‘होना’ बड़ा या ‘करना’?

 विनय संकोची

प्रत्येक प्राणी ‘होने’ और ‘करने’ के अदृश्य बंधन में से बंधा हुआ है। यह होना और करना ही मनुष्य जीवन की सुगति अथवा दुर्गति का निर्धारण करता है। वह मनुष्य के नियंत्रण में नहीं होता, लेकिन करने पर उसका पूरा अधिकार है और यह करना निश्चित रूप से होने को प्रभावित करता है।

अब प्रश्न यह उठता है कि यह होना और करना है क्या? इन दोनों में अंतर क्या है? ‘होना’ प्रारब्ध के अधीन होता है और ‘करना’ पुरुषार्थ के अधीन। प्रारब्ध को इस प्रकार देखा जा सकता है, प्रारब्ध मनुष्य के उन अच्छे बुरे कर्मों का फल रूप है, जो उसने पूर्व जन्म में किए होते हैं। पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर मनुष्य के इस जन्म का भाग्य परमात्मा लिखता है, निर्धारित करता है। यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है, इस सिद्धांत को झुठलाने का कोई आधार भी नहीं है। क्योंकि संसार में एक भले मनुष्य को कष्ट झेलते हुए और एक दुष्ट व्यक्ति को तमाम तरह के सुख भोगते हुए देखा जा सकता है। यह इस बात का प्रमाण है कि सुख-दु:ख, कष्ट-आनंद आदि पूर्व जन्म के कर्मों द्वारा ही निर्धारित होते हैं।

अधिकांश मनुष्य प्रारब्ध के अधीन जीवन जीते देखे जाते हैं। ऐसे लोग एक धारणा बना लेते हैं कि उनके जीवन में जो कुछ घटित हो रहा है अच्छा या बुरा, यही उनके भाग्य में लिखा है, यही उनका प्रारब्ध है। ऐसे लोग पूरी तरह से ‘होने’ से बंधे रहते हैं और ‘करने’ की तरफ ध्यान नहीं देते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि ‘करना’ क्या है? जैसा कि पूर्व में कहा – होना प्रारब्ध के अधीन और करना पुरुषार्थ के अधीन होता है। प्रारब्ध का प्रभाव मनुष्य को पंगु बना सकता है, किसी हद तक निकम्मा। प्रारब्ध के वशीभूत मनुष्य सोचता है, जो जीवन में अच्छा या बुरा हो रहा है, उससे अलग कुछ और हो ही नहीं सकता है, क्योंकि भाग्य में जो लिखा है, वही तो होगा। ‘होने’ में अंधविश्वास रखने वाले जीवन का सच्चा आनंद लेने से वंचित रहते हैं। इसके विपरीत ‘करने’ में विश्वास रखने वाले लोग अपने कर्मों से प्रारब्ध में लिखे को भी अपने अनुरूप ढाल लेते हैं। यह बात समझने वाली है कि ‘करने’ का अर्थ कर्म है और कर्म का फल कर्म नहीं बल्कि भोग होता है। मनुष्य जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल भोगता है।

इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि ‘करना’ आपका अगले जन्म का ही भाग्य निर्धारित नहीं करता, बल्कि वर्तमान जीवन के भाग्य को भी प्रभावित करता है। ‘करना’ निश्चित रूप से ‘होने’ से अधिक महत्वपूर्ण है और यह ‘होने’ को बदलने की ताकत भी रखता है। यह एक सकारात्मक सोच है, जो जीवन की धारा को बदल सकता है। शास्त्रों ने ‘करने’ अर्थात कर्म के महत्व को प्रतिपादित करते हुए निर्णय दिया है कि कर्म महान है और भाग्य में लिखे को बदल सकने की क्षमता रखता है।

शास्त्र कहते हैं प्रारंभिक केवल सुखदाई-दु:खदाई स्थिति-परिस्थिति उत्पन्न करने का काम करता है और मनुष्य ‘करने’ का सहारा लेकर इन परिस्थितियों में सुखी-दु:खी होने के लिए आजाद है। यह मनुष्य के अपने विवेक पर निर्भर करता है कि वह कितना सुखी या दु:खी होता है। प्रारब्ध उसे कम अथवा अधिक सुखी या दु:खी होने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। मनुष्य कर्तव्य में स्वाधीन है और फल प्राप्ति में पराधीन, यह ठीक है लेकिन तब तक यदि सही ढंग से निर्वहन किया जाए तो फल भी अच्छा ही होता है। एक अटल सिद्धांत है, जो होता है वह ठीक ही होता है और वह बेठीक हो ही नहीं सकता।

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