Pakistan News: उर्दू भाषा का बड़ा ही अच्छा शब्द है “पाक”। पाक शब्द का हिन्दी में अर्थ होता है पवित्र अथवा शुद्ध। उर्दू भाषा के “पाक” शब्द से ही हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान का नाम पड़ा था। वर्ष-1947 में अंग्रेजों की काली करतूत तथा जिन्ना की जिदद के कारण पाकिस्तान असतित्व में आया था। आप कहेंगे कि आज हम यहां पाकिस्तान की चर्चा क्यों कर रहे हैं? दरअसल हम नहीं आज पूरी दुनिया में ही भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान की चर्चा हो रही है। सभी बता रहे हैं कि पाकिस्तान में लोकतंत्र कैसे खत्म किया जा रहा है ? पाकिस्तान की इस चर्चा को हम आज आगे बढ़ा रहे हैं।
पाकिस्तान में अब कुछ भी “पाक” नहीं बचा
लोकतंत्र किसी भी देश की रीढ़ का हिस्सा होता है। जब हम लोकतंत्र की बात करते हैं तो हमें भारत के लोकतंत्र पर गर्व होता है। हमारे ही देश से कटकर बने पाकिस्तान में आज लोकतंत्र मर रहा है या यूं कहें कि पाकिस्तान की फौज ने अपने देश पाकिस्तान में लोकतंत्र की हत्या कर डाली है। पूरी दुनिया में आज साफ-साफ कहा जाने लगा है कि पाकिस्तान में अब कुछ भी “पाक” नहीं बचा है। पूरा पाकिस्तान ही नापाक (अशुद्ध, गंदा) हो गया है। अब तो पाकिस्तान का नाम बदलकर नापाकिस्तान रख दिया जाना चाहिए।
पाकिस्तान में सेना ही सबकुछ हो गई है
भारत ही नहीं दुनिया भर में अपने लेख तथा समाचारों से पहचान बनाने वाले पत्रकार राजेश बादल ने पाकिस्तान को लेकर एक सटीक विश्लेषण किया है। प्रसिद्ध पत्रकार राजेश बादल के पाकिस्तान पर पेश किए गए नजरिए को हम आपको यहां पढ़वा रहे हैं। हाल ही में पाकिस्तान पर लिखे अपने लेख में राजेश बादल ने लिखा है कि पाकिस्तानी सेना ने पूर्र्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पार्टी को सत्ता में लाने की पटकथा चुनाव से पहले ही लिख दी थी। उसने अपने घनघोर आलोचक इमरान खान को जेल में डाल दिया। उन्हें चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। पार्टी का चुनाव चिह्न छीन लिया गया। पार्टी को निर्दलीय उम्मीदवारों के रूप में अपने प्रत्याशी उतारने पड़े। इसके बावजूद उन उम्मीदवारों ने नवाज शरीफ की पीएनएल (एन) और बिलावल की पीपीपी को धूल चटा दी।
भले ही नवाज शरीफ की पार्टी फिर भी सरकार बना रही है, पर अब पूरा विश्व जान गया है कि उस दल को सत्ता सौंपी गई है, जिसे जनता ने बहुमत नहीं दिया है। दरअसल पाकिस्तान में अब तक अपराजेय रही सेना साल-डेढ़ साल से अपना दबदबा कायम रखने के लिए संघर्ष कर रही है। पर कुछ समय से उसका हर दांव उल्टा पड़ रहा है।
फौज की हुकूमत
असल में पाकिस्तान में जब से दुनिया के नक्शे में आकार लिया, तब से एकाध अपवाद छोडक़र फौज ही हुकूमत करती रही है। संस्थापक मोहम्मद अली- जिन्ना की संक्षिप्त पारी छोड़ दें, तो कोई भी राजनेता तभी काम कर पाया, जब उसने सेना के साथ तालमेल बिठाया। हालांकि अंतिम दिनों में जिन्ना भी अपनी छवि पर दाग लगने से नहीं रोक पाए थे। यहीं से पाकिस्तान के लोकतंत्र की गाड़ी पटरी से उतर गई। फौज धीरे-धीरे निरंकुश होती गई और उसके अधिकारी अपने-अपने धंधे करते रहे। यह फौज जुल्फिकार अली भुट्टो को प्रधानमंत्री भी बनवाती और सरेआम फांसी पर लटकाती है, बहुमत से चुनाव जीतने के बाद भी बंगबंधु शेख मुजीब उर रहमान को जेल में डालती है और एक मुल्क के दो टुकड़े भी होने देती है। बेनजीर भुट्टो की हत्या भी ऐसी ही साजिश का परिणाम थी। कारगिल में घुसपैठ कराके अपनी किरकिरी कराने वाली भी यही फौज है। यानी सेना को जम्हूरियत तभी तक अच्छी लगती है, जब तक हुक्मरान उसकी जेब में रहें और उसके इशारों पर नाचते रहें। देश का पिछड़ापन और तमाम गंभीर मसले उसे परेशान नहीं करते। वह जानती है कि लोग जब तक हिंदुस्तान से नफरत करते रहेंगे, तब तक उसकी दुकान चलती रहेगी।
पाकिस्तान में महंगाई चरम पर है, बेरोजगारी बढ़ती जा रही है, आतंकवादी वारदातें कम नहीं हो रही हैं, उद्योग-धंधे चौपट हैं, दुनिया में पाकिस्तान की किरकिरी हो रही है और देश दिवालिया होने के कगार पर है। शाहबाज शरीफ कल भी फौज की कठपुतली थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। आज यदि सेना इमरान को प्रधानमंत्री बना दे, तो वे फिर फौज के गीत गाने लगेंगे और शाहबाज शरीफ को सेना गद्दी से उतार दे, तो वह उसके खिलाफ धरने पर बैठ जाएंगे। यानी पाकिस्तान में फौज ही सबकुछ है।
फौज के खिलाफ आम नागरिक सडक़ों पर उतर आएं, ऐसा सिर्फ एक बार हुआ है। उस समय जनरल अयूब खान को राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने सेना का मुखिया बनाया था। बीस दिन ही बीते थे कि अयूब खान ने सैनिक विद्रोह के जरिये मिर्जा को ही पद से हटा दिया। वे ग्यारह साल तक पाकिस्तान के सैनिक शासक रहे। इस दरम्यान अवाम कुशासन से त्रस्त हो गई थी और लोग सडक़ों पर उतर आए थे। अयूब खान जब देश छोडक़र भागे, तो अपना उत्तराधिकारी जनरल याह्या खान को बना गए।
पचहत्तर सालों में भी फेल
पचहत्तर साल बाद भी पाकिस्तान में कोई अखिल राष्ट्रीय पार्टी नहीं उभर पाई है। बिलावल भुट्टो की अगुआई वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी सिंध के मतदाताओं की दया पर निर्भर है, तो शरीफ बंधुओं की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) पंजाब के वोटरों के इर्द-गिर्द घूमती है। पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान नियाजी की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पख्तूनिस्तान और आसपास के सीमांत इलाकों में जनाधार वाली पार्टी है। बाकी कुछ सूबाई राजनीतिक दल भी चुनाव मैदान में हैं। लेकिन उनका असर इतना कम है कि उनकी नुमाइंदगी बमुश्किल दहाई में पहुंच पाती है। पाकिस्तान में यदि कोई राष्ट्रीय चरित्र वाली पार्टी है, तो वह सेना है और दिलचस्प यह है कि उसका अपना कोई राष्ट्रीय चरित्र ही नहीं है। वह कभी चुनाव मैदान में नहीं उतरती। वह केवल सियासी दलों को लड़वाने का काम करती है। वह अमेरिका से आशीर्वाद लेती है और वहां की चुनी हुई सरकार चीन के गीत गाती है। इस तरह दोनों महाशक्तियों के साथ उसका संतुलन बना रहता है।