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बड़ा मुददा: क्या खुद को बदल पाएंगे PM मोदी

PM Modi 

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PM Modi  :  इन दिनों पूरी दुनिया में एक सवाल पूछा जा रहा है। सवाल यह है कि क्या भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद को बदल पाएंगे? PM मोदी खुद को क्यों बदलेंगे इसका आशय तो आप भी समझ ही गए होंगे। तीसरी बार PM बनकर PM मोदी ने जो इतिहास रचा है वह अनोखा है, किन्तु इस बार PM मोदी की पूरी सरकार बैसाखियों पर टिकी हुई है। बैसाखी की सरकार चलाने के कारण ही PM मोदी को लेकर नया सवाल खड़ा हुआ है।

PM Modi  को लेकर बड़ा विश्लेषण

क्या पीएम मोदी अपने आपको बदलेंगे? अथवा यह कहें कि अपने आपको कितना बदल पाएंगे PM मोदी? इन सवालों को लेकर प्रसिद्ध विश्लेषक तथा इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने बड़ा विश्लेषण किया है। हम बिना किसी एडिटिंग के PM मोदी को लेकर किया गया यह विश्लेषण यहां प्रकाशित कर रहे हैं।
इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने लिखा है कि जुलाई, 2023 में मैंने आशा के विपरीत उम्मीद जताते हुए कहा था कि “गठबंधन की सरकार आएगी। भारत बहुत बड़ा और विविधताओं वाला देश है। इसे सहयोग और सलाहों के बिना चलाया ही नहीं जा सकता है। हालांकि संसद में ज्यादा बहुमत होने से सत्ता पक्ष में अहंकार आ जाता है। बहुत अधिक बहुमत वाला प्रधानमंत्री अपने कैबिनेट के सहयोगियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता है, विपक्ष का अनादर करता है, प्रेस पर लगाम लगाता है, संस्थानों को खत्म करता है और नहीं तो कम से मुझे कम राज्य के हितों और अधिकारों की अनदेखी करता है। खासतौर पर उन राज्यों की, जहां किसी और पार्टी नहीं का शासन रहता है।” नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से से पहले मैंने इंदिरा और राजीव गांधी की सरकारों को देखा है, जिनमें प्रचंड बहुमत के कारण सत्तावादी नल प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लक्षण मिलते हैं। दूसरी तरफ मैंने गठबंधन सरकारों को भी देखा है, जब प्रेस और न्यायपालिका अधिक स्वतंत्र थे और नियामक संस्थानों पर नियंत्रण करने की कोशिश कम थी। 1989 से 2014 के बीच किसी भी एक पार्टी को संसद में बहुमत नहीं मिला था। इस दौरान सात प्रधानमंत्री हुए, जिनमें से चार- वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा और गुजराल दो साल से भी कम समय तक कार्यालय में रहे। दूसरी तरफ, तीन प्रधानमंत्रियों ने पांच साल के कार्यकाल पूरे किए, जिनमें नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह शामिल हैं। अब मोदी तीसरे कार्यकाल में उन प्रधानमंत्रियों की श्रेणी में आ गए हैं, जिन्होंने बिना पूर्ण बहुमत के सरकार चलाई। हालांकि उनसे पहले के प्रधानमंत्रियों ने अपने अनुभव और स्वभाव के चलते प्रभावी तरीके से सरकार चलाई। नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री बनने से पहले इंदिरा और राजीव गांधी की कैबिनेट में लंबे समय तक काम किया। वाजपेयी प्रधानमंत्री बनने से पहले मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री रहे। मनमोहन सिंह ने भी प्रधानमंत्री के पद पर आने से पहले नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री के रूप में काम किया था। इसके अलावा राव, वाजपेयी और मनमोहन ने सरकार से बाहर रहते हुए विपक्षी सांसदों की भूमिका भी निभाई। एक प्रचारक और पार्टी के संगठनकर्ता के तौर पर मोदी ने कई वर्षों तक अन्य लोगों के साथ या उनके अधीन भी काम किया, लेकिन जब से उन्होंने चुनावी राजनीति में कदम रखा, वह कभी भी मात्र विधायक या सांसद नहीं रहे। यहां तक कि राज्य या केंद्रीय स्तर पर मंत्री भी नहीं रहे। 2001 से उन्होंने खुद को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के रूप में ही देखा है। पिछले कुछ सालों में उन्होंने खुद को बॉस, टॉप बॉस, सोल और सुप्रीम बॉस के रूप देखा है मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने खुद को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसने एक बहुत बड़े पंथ का निर्माण किया है या एक ऐसा नेता, जो अपने दम पर पहले अपने राज्य और फिर देश को समृद्धि के शिखर पर ले जाएगा। राज्य और केंद्र, दोनों जगहों पर उन्होंने किसी भी नई परियोजना के शुरू होने या उसके पूरे होने का हमेशा श्रेय लिया, चाहे वह पुल हो, हाईवे हो, रेलवे स्टेशन हो, खाद्य सब्सिडी हो या कुछ और।
नरसिम्हा राव और वीपी सिंह का व्यक्तित्व आत्मसंतुष्ट और संयमित था। वाजपेयी का व्यक्तित्व अधिक करिश्माई था, लेकिन उन्होंने कभी भी खुद को पार्टी का केंद्र-बिंदु नहीं माना, अपनी सरकार या देश का तो बिल्कुल भी नहीं। इस तरह देखा जाए तो ये तीनों ही अपने अनुभव और स्वभाव के आधार पर कैबिनेट के सहयोगियों और विपक्ष के साथ सलाह- मशविरा कर काम करने के लिए तैयार रहते थे।
देखा जाए तो प्रधानमंत्री को स्वयं जीत की हीटेक लगाने की पूरी उम्मीद थी, इसलिए उन्होंने इस बात की घोषणा पहले ही कर दी थी कि नए सिरे से पदभार संभालने पर वह पहले सौ दिनों के एजेंडे पर तेजी से न समय तक काम करेंगे। ‘द इकोनोमिक टाइम्स’ ने 10 मई को इस मंत्रियों ने पांच बात का दावा किया कि ‘मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में 100 दिनों के एजेंडे में 50 से 70 लक्ष्य निर्धारित करेंगे। ध्यान देने योग्य बात है कि यहां अपेक्षा की गई थी कि पिछले तेईस वर्षों से गांधीनगर और नई दिल्ली जो कुछ चल रहा था, सब कुछ वैसे ही बना रहेगा।
हालांकि जिस मोदी 3.0 की बात की गई है वह अप्रत्याशित तरीके से एनडीए 2.0 निकला। इस बात से यह सवाल उठता है कि क्या बहुमत के बिना PM Modi  कैबिनेट मंत्रियों, अपने सांसदों के प्रति नरम रवैया अपनाने में, विपक्ष को सम्मान देने में और उन राज्यों की सरकारों को, जहां सरकार उनकी पार्टी की नहीं है, उन्हें सम्मान देने में राव एवं मनमोहन का अनुकरण कर सकते हैं। इन सवालों के जवाब मिलने में शायद कई महीने या साल लग सकते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि जल्द ही नरेंद्र मोदी अपनी शासन-शैली में बदलाव लाएंगे, जैसे कि संसद में बहस के लिए ज्यादा समय देंगे, दूसरी पार्टियों द्वारा शासित राज्यों में राज्यपालों के हस्तक्षेप को कम करेंगे। उनके वरिष्ठ मंत्री या स्वयं PM Modi  भी मुसलमानों को सार्वजनिक रूप से अपमानित नहीं करेंगे। हालांकि उनकी शासन-शैली में कोई बदलाव आएगा या नहीं, यह कहना अभी संभव नहीं है। उनकी प्रवृत्ति सत्ता का केंद्रीकरण करने की रही है। यह प्रवृत्ति दो दशकों या उससे कुछ अधिक समय से और प्रबल हुई है, जिसका उन्होंने अब तक आनंद लिया है।

कौन हैं PM मोदी के बाद भारत का सबसे पॉवरफुल इंसान ?

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