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जाट इतिहास में हमेशा अमर रहेंगे बाबा कुशाल सिंह दहिया

Jat History

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Jat History : जाट समाज भारत का बहुत प्रसिद्ध समाज है। दुर्भाग्य से जाट समाज का इतिहास ठीक से नहीं लिखा गया। जाट इतिहास पर जितना कुछ लिखा गया है वह रोमांचित करने वाला है। जाट इतिहास की क्या बात करें भारत के इतिहास को भी ठीक से नहीं लिखा गया है। यदि इतिहास को ठीक ढंग से लिखा तथा पढ़ाया गया होता हो बाबा कुशाल सिंह दहिया का नाम भारत के बच्चे-बच्चे की जबान पर होना चाहिए था।

सिखों के 9वें गुरू तेग बहादुर से जुड़ा है जाट इतिहास

सिखों के साथ जाट इतिहास का गहरा सम्बंध है। जाट इतिहास ठीक-ठीक अध्ययन करने से पता चलता है कि गुरू तेग बहादुर के कटे हुए शीश की बेअदबी होने से बचाने के लिए महान जाट शूरवीर बाबा कुशाल सिंह दहिया ने अपना खुद का शीश अर्पण कर दिया था। महान जाट बलिदानी बाबा कुशाल सिंह ने अपना सिर धड़ से अलग करवा कर गुरू तेग बहादुर के शीश की बेअदबी रोकने का प्रयास किया था। जाट इतिहास में दर्ज बाबा कुशाल सिंह दहिया का पूरा विवरण हम आपके सामने रख रहे हैं।

महानता की चर्म सीमा कायम की थी जाट बाबा कुशाल सिंह दहिया ने

यह बात उस समय की है जब वर्ष-1675 में घटिया मुगल शासक औरंगजेब ने इस्लाम कबूल ना करने पर भाई सतीदास, भाई मतीदास, भाई दयाला तथा गुरू तेग बहादुर का शीश काट डाला था। यह घटना असहनीय रूप से दर्दनाक घटना थी। 22 नवंबर 1675 को गुरू तेगबहादुर का शीश कटवा दिया और उनके पवित्र पार्थिव शरीर की बेअदबी करने के लिए शरीर के चार टुकड़े कर के उसे दिल्ली के चारों बाहरी गेटों पर लटकाने का आदेश दे दिया।

लेकिन उसी समय अचानक आये अंधड़ का लाभ उठाकर एक स्थानीय व्यापारी लक्खीशाह गुरु जी का धड और भाई जैता जी गुरु जी का शीश उठाकर ले जाने में कामयाब हो गए। लक्खीशाह ने गुरु जी के धड़ को अपने घर में रखकर अपने ही घर को अग्निदाग लगा दी। इस प्रकार समझदारी और त्याग से गुरु जी के शरीर की बेअदवी होने से बचा लिया।इधर भाई जैता जी ने गुरूजी का शीश उठा लिया और उसे कपडे में लपेटकर अपने कुछ साथियों के साथ आनंदपुर साहब को चल पड़े। औरँगेजेब ने उनके पीछे अपनी सेना लगा दी और आदेश दिया कि किसी भी तरह से गुरु जी का शीश वापस दिल्ली लेकर आओ। भाई जैता जी किसी तरह बचते बचाते सोनीपत के पास बढख़ालसा गाँव में जो पंजाब जाते हुए जीटी रोड सोनीपत में स्थित है उसमें पहुंचे गए।

मुगल सेना भी उनके पीछे लगी हुई थी। वहां के स्थानीय निवासियों को जब पता चला कि – गुरु जी ने बलिदान दे दिया है और उनका शीश लेकर उनके शिष्य उनके गाँव में आये हुए हैं तो सभी गाँव वालों ने उनका स्वागत किया और शीश के दर्शन किये। गाँव के निवासी चौधरी कुशाल सिंह दहिया को जब पता चला तो वे भी वहां पहुंचे और गुरु जी के शीश के दर्शन किये और बड़ा दुख जताया।उधर अब मुगलो की सेना भी गांव के पास पहुंच चुकी थी। गांव के लोग इक_ा हुए और सोचने लगे कि क्या किया जाए? मुग़ल सैनिको की संख्या और उनके हथियारों को देखते हुए गाँव वालों द्वारा मुकाबला करना भी आसान नहीं था। सबको लग रहा था कि- मुगल सैनिक गुरु जी के शीश को आनन्दपुर साहिब तक नहीं पहुंचने देंगे।

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तब “दादा कुशाल सिंह दहिया” ने आगे बढक़र कहा कि – सैनिको से बचने का केवल एक ही रास्ता है कि – गुरुजी का शीश मुग़ल सैनिकों को सौंप दिया जाए ! इस पर सभी लोग गुस्से से “बाबा कुशाल” को देखने लगे।
लेकिन बाबा ने आगे कहा – आप लोग ध्यान से देखिये गुरु जी का शीश, मेंरे चेहरे से कितना मिलता जुलता है उनकी आयु,शक्ल और दाढ़ी गुरु तेगबहादुर से हुबहू मिल रही थी।बिना वक्त जाया करते उन्होंने कहा कि –
अगर आप लोग मेरा शीश काट कर, उसे गुरु तेगबहादुर जी का शीश कहकर, मुग़ल सैनिको को सौंप देंगे तो ये मुग़ल सैनिक शीश को लेकर वापस लौट जायेंगे। तब गुरु जी का शीश बड़े आराम से आनंदपुर साहब पहुँच जाएगा और उनका सम्मान के साथ अंतिम संस्कार हो जाएगा। उनकी इस बात पर चारों तरफ सन्नाटा फ़ैल गया।
सब लोग स्तब्ध रह गए कि- कैसे कोई अपना शीश काटकर दे सकता है?
पर वीर कुशाल सिंह दहिया फैसला कर चुके थे,
उन्होंने सबको समझाया कि – गुरु तेग बहादुर कों हिन्द की चादर कहा जाता हैं,उनके सम्मान को बचाना हिन्द का सम्मान बचाना है। इसके अलावा कोई चारा नहीं है।फिर दादा कुशाल सिंह ने अपने बड़े बेटे के हाथों से अपना सिर कटवाकर थाली में रख कर गुरु शिष्यो को दे दिया। एक बेटा धर्म रक्षा के लिए अपने बाप का सिर काटे ऐसी मिशाल देखने तो क्या सुनने को भी नहीं मिलती

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जब मुगल सैनिक गाँव में पहुंचे तो इधर भाई जैता जी गुरु जी का शीश लेकर तेजी से आगे निकल गए और जिनके पास बाबा कुशाल सिंह दहिया का शीश था, वे जानबूझकर कुछ धीमे हो गए, मुग़ल सैनिको ने उनसे वह शीश छीन लिया और उसे गुरु तेग बहादुर जी का शीश समझकर दिल्ली लौट गए। इस तरह धर्म की खातिर बलिदान देने की भारतीय परम्परा में एक और अनोखी गाथा जुड़ गई। जहाँ दादा वीर कुशाल सिंह दहिया ने अपना बलिदान दिया था उसे “गढ़ी दहिया” तथा “गढ़ी कुशाली” भी कहते हैं। केवल कुछ पत्रकारों को छोडक़र सदियों से बाकी किसी कथित पत्तलचाट चाटुकार लेखकों, बेशर्म इतिहासकारों और सरकारों ने “शहीद वीर कुशाल सिंह दहिया” तथा इस स्थान को कोई महत्व नहीं दिया। हरियाणा वासियों ने उस स्थान पर एक म्यूजियम बनवाया है और वहां पर महाबलिदानी अमर वीर चौधरी कुशाल सिंह दहिया स्मारक को स्थापित किया है। यह स्थान सोनीपत जिले में बढख़ालसा नामक स्थान पर है जहां गुरुद्वारा बना हुआ है। वहां शहीद बाबा कुशाल सिंह की आदमकद प्रतिमा और शिलालेख चीख चीख कर इस महान बलिदान की अमर गाथा सुना रहे हैं। Jat History 

 

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