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Delhi Sakshi Murder Case : साक्षी मर्डर केस के बाद बढ़ी समाज विज्ञानियों की चिंता, संवेदनहीनता बड़ी समस्या

Delhi Sakshi Murder Case 

Delhi Sakshi Murder Case 

Delhi Sakshi Murder Case : दिल्ली के शाहबाद डेरी इलाके में हुए साक्षी हत्याकांड ने सामाजिक कार्यकर्ताओं, समाज के जागरूक नागरिकों व समाज विज्ञानियों की चिंता बढ़ गई है। इन सबकी चिंता का सबब बहुत ही वाजिब है। अधिकतर समाज विज्ञानियों का मत है कि इस मामले ने समाज में बढ़ती संवेदनहीनता का बड़ा उदाहरण पेश किया है। इस विषय में चेतना मंच ने सामाजिक विज्ञान की ज्ञाता सुश्री प्रवीणा अग्रवाल से बात की है। नीचे हम उनके विचारों को ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं।

Delhi Sakshi Murder Case

बढ़ते अपराध और मरती संवेदनायें या संवेदनहीन समाज

जिस तरह दिन-ब-दिन अपराधिक घटनायें क्रूर से क्रूरतम होती जा रही हैं और इन घटनाओं के उपरांत जिस तरह की प्रतिक्रिया आती हैं वह हमें सोचने पर विवश करती हैं कि क्या भारतीय समाज एक समाज के रूप में विफल हो गया है। क्या हमारी चेतना इतनी निश्चेतन हो गयी है कि हमारा मन-मस्तिष्क इन क्रूरतम अपराधों में भी मनोरंजन की खोज कर रहा है अथवा समाज अपनी नपुसंकता के लिये आवरण तलाश रहा है और समय पर कुछ न कर पाने की विवशता के लिये स्पष्टीकरण गढ रहा है।

पिछले दिनों दिल्ली के व्यस्ततम क्षेत्र शहबाद डेयरी में एक 16 वर्षीय किशोरी की चाकू के बीसियों वार कर हत्या कर दी गयी। लोग आस-पास से गुजरते रहे। हत्यारा बिना किसी डर या भय के चाकू से किशोरी को गोदता रहा, पैरों से रौंदता रहा, पत्थरों से कुचलता रहा। ऐसे वीभत्स दृश्य को आप और हम देख भी नहीं सकते। लेकिन जब यह वीभत्स अपराध घटित हो रहा था तब कोई प्रतिरोध के लिये आगे नही बढ़ा। सिर्फ तमाशबीन बने रहे सब। क्या एक जीवंत समाज इस तरह निष्क्रिय, मूकदर्शक बना रह सकता है ? क्रूरतम घटनाएं हजारों लोगों के सामने घट जाती है पर अफसोस किसी ने कुछ नहीं देखा होता, क्योंकि हम उस समाज के अंग है जो बहरा है, गूंगा है और अंधा भी है। बाद में लोग कहेंगे अगर अपनी बहन बेटी होती तो, पर हर बच्ची हर महिला किसी न किसी की बहन बेटी तो होती ही है। ये क्रूरतम घटनायें बाद में मनोरंजन या समय गुजारने का जरिया बनती हैं।

Delhi Sakshi Murder Case

ये क्रूरतम अपराध से अचानक ‘STORY’ बन जाती है। चैनलों में टीआरपी की होड होती है। कौन सबसे पहले कौन सा सीक्रेट ‘खोज’ कर ले आया ? पोस्टमार्टम में क्या मिला ? चाकू कहाँ से खरीदा, कितने टुकड़े किये, कितनी बार चाकू घोंपा ? कितने वार किये ? माता-पिता क्या कह रहे है। पड़ोसी क्या जानते हैं। दोस्तों सहेलियों ने कौन सा राज खोला। लोगों की प्रतिक्रियायें, कानून विशेषज्ञों की राय। घटना घटी बेचने का मसाला मिला। यदि कहीं पीडित एवं अपराधी का धर्म अलग हो अथवा दलित और सवर्ण का एंगल निकल आये तो फिर कहना ही क्या ? समाज इसे लेकर जुगाली कर रहा है। क्या इसी नैतिक दिवालियेपन ने समाज नामक संस्था के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। जो अन्याय, अत्याचार के खिलाफ लड़ता नहीं केवल तमाशबीन बनकर खड़ा है। ऊपर से ढकोसला यह कि कुछ रुपये पैसे बांटकर आवाजें बंद कर दी जाये क्योंकि अन्याय का शिकार गरीब है, अभावग्रस्त है। अपने अधिकारों के प्रति सजगता एवं दायित्वों के प्रति आंख मूंद लेने की प्रवृत्ति ने समाज को रोगी बना दिया है।

Delhi Sakshi Murder Case

अब यह जरूरी हो गया है कि निष्क्रिय हो रहे समाज को बचाया जाये। पर कैसे? क्या हम एक ऐसी न्याय व्यवस्था बना सकते है जो जल्दी फैसले करे क्योंकि अभी उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में एक फैसला 42 वर्षों के बाद आया है। जिसके 10 में से 9 अपराधियों की मृत्यु हो चुकी है। एक जीवित है जिसे आजीवन कारावास की सजा मिली हैं उसकी उम्र 90 वर्ष है। क्या उन 10 व्यक्तियों के परिवारीजनों को न्याय मिला, जिनकी हत्या कर दी गयी थी ? क्या हम कोई ऐसा कानून बना सकते हैं कि घटना के समय मूकदर्शक बने रहने वालों की भी जिम्मेदारी तय की जाये। यदि यह कानूनी रूप से संभव न हो तो समाज स्वयं यह जिम्मेदारी लें।

अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनानी होगी जो डटकर मुकाबला करें। हर अन्याय के विरुद्ध आवाज बुलंद करें। अब समय आ गया है कि हम अपने निजी लाभ हानि का गणित लगाना बंद करें अन्यथा इस मृतप्राय सामाजिक व्यवस्था के ताबूत में अंतिम कील ठोंकने का जिम्मेदारी हमी पर होगी।

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