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धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति के लिए मनुष्य का स्वस्थ रहना अनिवार्य है। स्वास्थ्य का मूल हृदय की पवित्रता है और हृदय की पवित्रता के लिए जीवन में सदाचार परम आवश्यक है। इसीलिए भगवान मनु कहते हैं – “आचार प्रथमो धर्म:”- सदाचार ही प्रथम धर्म है।
कहा यह भी गया है – “आचारहीन न पुनन्ति वेदा:”- छ: अंगों के साथ चार वेदों को पढ़ा हो परंतु सदाचारी ना हो उस वेदपाठी को वेद भी पावन नहीं कर सकते हैं। संभवत इसी कारण से “आचार परमो धर्म” कहा गया है।
शास्त्रों के अनुसार सदाचार शब्द का अर्थ है – “संता सज्जनानामाचार: सदाचार:” भावार्थ यह कि सज्जनों के आचार का नाम सदाचार है। “वामन पुराण” में सदाचार को ऐसा वृक्ष बताया गया है, जो चारों पुरुषार्थों को देने वाला है। धर्म ही उसकी जड़, अर्थ उसकी शाखा, काम (भोग) उसका पुण्य और मोक्ष उसका फल है।
महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार आचार् से आयु, लक्ष्मी और कीर्ति उपलब्ध होती है। इसलिए जो अपना वैभव चाहे, वह आचार का पालन करे। इस लोक में यश और परलोक में परम सुख देने वाला और मनुष्यों का महान कल्याण करने वाला आचार ही है। आचार से श्रेष्ठता प्राप्त होती है, आचार से धर्म लाभ होता है, धर्म से ज्ञान और भक्ति तथा इन दोनों से मोक्ष एवं भगवत प्राप्ति होती है।
आचार ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शूद्र चारों वर्णों के धर्म का प्रहरी है। आचार-भ्रष्ट पुरुषों से धर्म विमुख हो जाता है। शास्त्र कहते हैं – आचार ही परम धर्म है, आचार ही प्रथम तप है और आचार ही परम ज्ञान है, आचार से ऐसा कुछ भी नहीं, जो सिद्ध ना हो सके।
सदाचार मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है। संसार के समस्त जीवों में, उनमें धर्म-अधर्म का विवेक केवल मनुष्य में ही है। भगवान की मनुष्य को यह सबसे बड़ी देन है। विवेक का आदर सदाचार है और निरादर दुराचार। सदाचार सुगम और स्वाभाविक है, जबकि कदाचार कठिन और अस्वाभाविक। मनुष्य में हमेशा सदाचारनिष्ठ रह सकता है, लेकिन कदाचार या पाप का आचरण सर्वदा नहीं हो सकता। पुण्य का आचरण सभी के प्रति हो सकता है, किंतु पाप का आचरण सब के प्रति नहीं किया जा सकता। सदाचार और सद्गुणों का परस्पर अभिन्न नाता है। सद्गुणों से सदाचार प्रकट होता है और सदाचार से सद्गुण दृढ़ होते हैं।
सदाचार का पालन जीवन को अनुशासित और खुशहाल बनाता है।