एमएसपी को कानूनी दर्जा मिले बिना देश का भला नहीं हो सकता: शास्त्री

राज की नीति का विरोध करने में गलत क्या है नई दिल्ली। प्रसिद्ध किसान नेता व भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में भारत के कृषि मंत्री रह चुके सोमपाल शास्त्री ने कहा है कि न्यूनतम खरीद मूल्य (MSP) को कानूनी दर्जा दिए बिना देश के किसानों का भला होने वाला नहीं है। उन्होंने जोर देकर यह भी कहा है कि देश का किसान राजनीति कर रहा है तो उसमें गलत क्या है? उन्होंने साफ शब्दों में पूछा है कि राज की गलत नीति का विरोध करना गलत कैसे हो सकता है?
एक प्रसिद्ध मीडिया समूह को दिए अपने ताजा साक्षात्कार में श्री शास्त्री ने यह बात कही है। हम उनका पूरा साक्षात्कार जस का तस यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को यह प्रयास अवश्य पसंद आएगा।
सवाल : कृषि कानूनों की वापसी की मांग पर किसान संगठनों और सरकार के बीच पहले से गतिरोध बना हुआ है। अब लखीमपुर की घटना से मौजूदा आंदोलन को किस तरफ जाता देख रहे हैं?
जवाब: मुझे नहीं लगता है कि यह आंदोलन किसी हल की तरफ बढ़ रहा है। उसका एक कारण तो सरकार की हठधर्मिता है। दूसरा सरकार और किसानों के बीच विश्वास का संकट है। इसकी पृष्ठभूमि 2014 के चुनाव अभियान से शुरू होती है, जब बीजेपी ने किसानों के हक में कई बड़े वादे किए थे, जिनमें एक था स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाएगा। चुनाव में इसका फायदा भी बीजेपी को मिला। लेकिन सरकार आने पर सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि मौजूदा आर्थिक संसाधनों में ऐसा कर पाना संभव नहीं है। जब 2019 का चुनाव आने वाला हुआ तो इन्होंने घोषणा कर दी कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया है। खेल यह हुआ कि स्वामीनाथन ने C2 स्तर की लागत में 50 प्रतिशत जोडऩे की बात कही है, सरकार ने एक लेवल नीचे A2+FL पर जोड़ा। 2016 में एक और घोषणा की गई थी कि 2022 तक किसानों की आय को दोगुना कर दिया जाएगा। लेकिन सरकारी आंकड़े कहते हैं कि किसानों की वास्तविक आय 2013 की तुलना में 2020 में 35 से 42 प्रतिशत कम हुई है।
सवाल : मौजूदा विवाद नए कृषि कानूनों को लेकर है। किसान संगठन कानून की वापसी चाहते हैं। सरकार का कहना है कि कानून के जिन बिंदुओं पर आपत्ति हो, वह बताओ, हम दूर करने को तैयार हैं। यह गतिरोध कैसे दूर हो सकता है?
जवाब: मैं अटलजी की सरकार में मंत्री रहा हूं। कैबिनेट की मीटिंग में यह जरूरी नहीं होता था कि जो बात अटल जी को पसंद हो, वही बोली जाए या कोई चर्चा ही न हो। तमाम उदाहरण हैं कि कैबिनेट में अटल जी की राय कुछ और होती थी, मंत्री गण की राय कुछ और, लेकिन खुलकर विमर्श होता था और उस विमर्श से ही नया रास्ता निकलता था। अपनी राय कुछ और होने के बावजूद अटल जी उचित राय को स्वीकार करते थे। अब मैं समझता हूं कि परस्पर चर्चा और परामर्श की परंपरा ही समाप्त हो गई है। ऐसे में कोई रास्ता कैसे निकलेगा?
सवाल : जब किसान आंदोलन शुरू हुआ था तो केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने आपसे मुलाकात की थी, आपने उन्हें क्या सलाह दी थी?
जवाब: मैंने उनसे कोई गोपनीय बात नहीं की थी। मैं सार्वजनिक मंच से जो कहता आ रहा हूं, वही उनसे भी कहा था। पहली यह कि जब किसानों को ये कानून अपने फायदे में नहीं लग रहे हैं तो जबरदस्ती क्यों? दूसरी बात जिन जिंसों का सरकार समर्थन मूल्य घोषित करती है, वह मूल्य उन्हें दिलवाना भी सुनिश्चित करे। इससे भी बड़ी बात यह है कि अभी तक उन 22 जिंसों का ही समर्थन मूल्य घोषित होता है जो भंडारण योग्य हैं लेकिन उनका योगदान कृषि के सकल घरेलू उत्पाद में मात्र 30 प्रतिशत है। 70 प्रतिशत पेरिशेबल कमोडिटी होती हैं जैसे फल, सब्जी, दूध, पोल्ट्री जिनके दाम सबसे ज्यादा क्रैश करते हैं। इनके लिए भी न्यूनतम मूल्य तय होना चाहिए। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए ताकि उसकी सिफारिशें सरकार के ऊपर बाध्यकारी हों।
सवाल : सरकार का कहना है कि कृषि कानूनों को लेकर जो विरोध है वह किसानों का नहीं है, महज कुछ नेताओं का है। क्या इस मुद्दे पर राजनीति हो रही है?
जवाब : यह बात कहना गलत है कि आंदोलन में किसान नहीं है। अगर किसान नहीं शामिल होता तो यह आंदोलन इतना लंबा चल ही नहीं सकता था। अब रही बात राजनीति की तो इस मुद्दे पर राजनीति किसने शुरू की? शुरुआत तो सरकार ने ही की। कानून लागू करने के लिए सदन की प्रतीक्षा भी नहीं की गई। असाधारण स्थिति बताते हुए अध्यादेश लाया गया। यह भी तथ्य है कि अभी तक किसानों ने अपने मंच पर किसी दलीय नेता को जगह नहीं दी है। अगर किसान राजनीति कर भी रहे हैं तो इसमें गलत क्या है? राज की नीति का विरोध कोई पाप तो नहीं है।
सवाल : जिन तीन कृषि कानूनों पर इतना विवाद है, उनको लेकर आपका क्या नजरिया है?
सवाल : 1990 में जो भानु प्रताप कमेटी बनी, वह मेरे ही कहने पर बनी थी। उसने ये तीनों ही सिफारिशें की थीं लेकिन उनके साथ तीन शर्तें जुड़ी हुई थीं। पहली, न्यूनतम खरीद मूल्य को कानूनी अधिकार बनाया जाए। दूसरी, न्यूनतम समर्थन मूल्य सभी जिंसों और सभी किसानों के लिए हों। तीसरी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए। अगर सरकार ये बातें मान लेती है तो कानून रहें अथवा न रहें उसका कोई असर नहीं पडऩे वाला।
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राज की नीति का विरोध करने में गलत क्या है नई दिल्ली। प्रसिद्ध किसान नेता व भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में भारत के कृषि मंत्री रह चुके सोमपाल शास्त्री ने कहा है कि न्यूनतम खरीद मूल्य (MSP) को कानूनी दर्जा दिए बिना देश के किसानों का भला होने वाला नहीं है। उन्होंने जोर देकर यह भी कहा है कि देश का किसान राजनीति कर रहा है तो उसमें गलत क्या है? उन्होंने साफ शब्दों में पूछा है कि राज की गलत नीति का विरोध करना गलत कैसे हो सकता है?
एक प्रसिद्ध मीडिया समूह को दिए अपने ताजा साक्षात्कार में श्री शास्त्री ने यह बात कही है। हम उनका पूरा साक्षात्कार जस का तस यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को यह प्रयास अवश्य पसंद आएगा।
सवाल : कृषि कानूनों की वापसी की मांग पर किसान संगठनों और सरकार के बीच पहले से गतिरोध बना हुआ है। अब लखीमपुर की घटना से मौजूदा आंदोलन को किस तरफ जाता देख रहे हैं?
जवाब: मुझे नहीं लगता है कि यह आंदोलन किसी हल की तरफ बढ़ रहा है। उसका एक कारण तो सरकार की हठधर्मिता है। दूसरा सरकार और किसानों के बीच विश्वास का संकट है। इसकी पृष्ठभूमि 2014 के चुनाव अभियान से शुरू होती है, जब बीजेपी ने किसानों के हक में कई बड़े वादे किए थे, जिनमें एक था स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाएगा। चुनाव में इसका फायदा भी बीजेपी को मिला। लेकिन सरकार आने पर सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि मौजूदा आर्थिक संसाधनों में ऐसा कर पाना संभव नहीं है। जब 2019 का चुनाव आने वाला हुआ तो इन्होंने घोषणा कर दी कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया है। खेल यह हुआ कि स्वामीनाथन ने C2 स्तर की लागत में 50 प्रतिशत जोडऩे की बात कही है, सरकार ने एक लेवल नीचे A2+FL पर जोड़ा। 2016 में एक और घोषणा की गई थी कि 2022 तक किसानों की आय को दोगुना कर दिया जाएगा। लेकिन सरकारी आंकड़े कहते हैं कि किसानों की वास्तविक आय 2013 की तुलना में 2020 में 35 से 42 प्रतिशत कम हुई है।
सवाल : मौजूदा विवाद नए कृषि कानूनों को लेकर है। किसान संगठन कानून की वापसी चाहते हैं। सरकार का कहना है कि कानून के जिन बिंदुओं पर आपत्ति हो, वह बताओ, हम दूर करने को तैयार हैं। यह गतिरोध कैसे दूर हो सकता है?
जवाब: मैं अटलजी की सरकार में मंत्री रहा हूं। कैबिनेट की मीटिंग में यह जरूरी नहीं होता था कि जो बात अटल जी को पसंद हो, वही बोली जाए या कोई चर्चा ही न हो। तमाम उदाहरण हैं कि कैबिनेट में अटल जी की राय कुछ और होती थी, मंत्री गण की राय कुछ और, लेकिन खुलकर विमर्श होता था और उस विमर्श से ही नया रास्ता निकलता था। अपनी राय कुछ और होने के बावजूद अटल जी उचित राय को स्वीकार करते थे। अब मैं समझता हूं कि परस्पर चर्चा और परामर्श की परंपरा ही समाप्त हो गई है। ऐसे में कोई रास्ता कैसे निकलेगा?
सवाल : जब किसान आंदोलन शुरू हुआ था तो केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने आपसे मुलाकात की थी, आपने उन्हें क्या सलाह दी थी?
जवाब: मैंने उनसे कोई गोपनीय बात नहीं की थी। मैं सार्वजनिक मंच से जो कहता आ रहा हूं, वही उनसे भी कहा था। पहली यह कि जब किसानों को ये कानून अपने फायदे में नहीं लग रहे हैं तो जबरदस्ती क्यों? दूसरी बात जिन जिंसों का सरकार समर्थन मूल्य घोषित करती है, वह मूल्य उन्हें दिलवाना भी सुनिश्चित करे। इससे भी बड़ी बात यह है कि अभी तक उन 22 जिंसों का ही समर्थन मूल्य घोषित होता है जो भंडारण योग्य हैं लेकिन उनका योगदान कृषि के सकल घरेलू उत्पाद में मात्र 30 प्रतिशत है। 70 प्रतिशत पेरिशेबल कमोडिटी होती हैं जैसे फल, सब्जी, दूध, पोल्ट्री जिनके दाम सबसे ज्यादा क्रैश करते हैं। इनके लिए भी न्यूनतम मूल्य तय होना चाहिए। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए ताकि उसकी सिफारिशें सरकार के ऊपर बाध्यकारी हों।
सवाल : सरकार का कहना है कि कृषि कानूनों को लेकर जो विरोध है वह किसानों का नहीं है, महज कुछ नेताओं का है। क्या इस मुद्दे पर राजनीति हो रही है?
जवाब : यह बात कहना गलत है कि आंदोलन में किसान नहीं है। अगर किसान नहीं शामिल होता तो यह आंदोलन इतना लंबा चल ही नहीं सकता था। अब रही बात राजनीति की तो इस मुद्दे पर राजनीति किसने शुरू की? शुरुआत तो सरकार ने ही की। कानून लागू करने के लिए सदन की प्रतीक्षा भी नहीं की गई। असाधारण स्थिति बताते हुए अध्यादेश लाया गया। यह भी तथ्य है कि अभी तक किसानों ने अपने मंच पर किसी दलीय नेता को जगह नहीं दी है। अगर किसान राजनीति कर भी रहे हैं तो इसमें गलत क्या है? राज की नीति का विरोध कोई पाप तो नहीं है।
सवाल : जिन तीन कृषि कानूनों पर इतना विवाद है, उनको लेकर आपका क्या नजरिया है?
सवाल : 1990 में जो भानु प्रताप कमेटी बनी, वह मेरे ही कहने पर बनी थी। उसने ये तीनों ही सिफारिशें की थीं लेकिन उनके साथ तीन शर्तें जुड़ी हुई थीं। पहली, न्यूनतम खरीद मूल्य को कानूनी अधिकार बनाया जाए। दूसरी, न्यूनतम समर्थन मूल्य सभी जिंसों और सभी किसानों के लिए हों। तीसरी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए। अगर सरकार ये बातें मान लेती है तो कानून रहें अथवा न रहें उसका कोई असर नहीं पडऩे वाला।
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