Friday, 29 March 2024

Article : लंबित मुकदमों के बोझ से बेहाल अदालतें

संजीव रघुवंशी (वरिष्ठ पत्रकार) Article : ” वीएस मलिमथ समिति ने मार्च, 2003 में दी रिपोर्ट में अदालतों में केसों…

Article : लंबित मुकदमों के बोझ से बेहाल अदालतें


संजीव रघुवंशी (वरिष्ठ पत्रकार)


Article : ” वीएस मलिमथ समिति ने मार्च, 2003 में दी रिपोर्ट में अदालतों में केसों के बढ़ते अंबार पर चिंता जाहिर करते हुए साफ शब्दों में कहा था कि केस जितना पुराना (Old) हो जाता है, उसमें फैसला आने या सही फैसला (Right Decision) आने की उम्मीद भी उतनी ही कम हो जाती है। समिति ने यह भी उल्लेख किया कि मुकदमों के लंबा खिंचने की वजह से ही दोषसिद्धि का प्रतिशत लगातार गिर रहा है। यह साल 2020 में 59.2 फीसदी था जो 2021 में गिरकर 57 फीसदी पर आ गया। गैर इरादतन हत्या और दुष्कर्म के मामले में तो दोषसिद्धि का आंकड़ा इससे भी ज्यादा खराब है। ” 


मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के रतलाम (Ratlam) में एक व्यक्ति ने सरकार से 10006 करोड़ का मुआवजा मांगा है। दरअसल, कांतिलाल भील को सामूहिक दुष्कर्म (Gang Rape) के आरोप में दो साल तक जेल में रहना पड़ा। बाद में कोर्ट (Court) ने सबूतों के अभाव में उसे बरी कर दिया। अब कांतिलाल ने अपने दो साल के हर पल का हिसाब बनाकर सरकार से मुआवजे के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है। सरकार उसके मुआवजे के दावे पर विचार करेगी या उसे बरी किए जाने के फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाएगी, इस बारे में तो अभी कुछ स्पष्ट नहीं, लेकिन एक बात जरूर साफ है कि अदालतों में लंबित मुकदमों का दंश अंतत: पक्षकारों को ही झेलना पड़ता है। फिर, चाहे वह अप्रैल, 2022 में बिहार (Bihar) की एक कोर्ट द्वारा बरी किए गए बीरबल भगत का मामला हो या फिर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट (High Court)  द्वारा मई, 2022 में रिहा किए गए चंद्रेश का मुकदमा। बीरबल को जब मर्डर के केस में गिरफ्तार किया गया तो उसकी उम्र 28 साल थी और जब बरी हुआ तो 56 साल। वहीं, चंद्रेश ने मर्डर के केस से बरी होने तक 13 साल जेल में गुजारे।

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ये मामले उन अनगिनत मामलों में से हैं, जिनमें पक्षकारों ने भारतीय न्याय व्यवस्था पर बढ़ते बोझ का खामियाजा भुगता है। ‘जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड’ यानी, देरी से मिला न्याय, न्याय न मिलने के बराबर है। यह सूक्ति हमारी न्याय व्यवस्था पर एकदम फिट बैठती है। वर्ष 2020 में न्यायिक सुधारों के लिए गठित की गई जस्टिस वीएस मलिमथ समिति ने मार्च, 2003 में दी रिपोर्ट में अदालतों में केसों के बढ़ते अंबार पर चिंता जाहिर करते हुए साफ शब्दों में कहा था कि केस जितना पुराना हो जाता है, उसमें फैसला आने या सही फैसला आने की उम्मीद भी उतनी ही कम हो जाती है। समिति ने यह भी उल्लेख किया कि मुकदमों के लंबा खिंचने की वजह से ही दोषसिद्धि का प्रतिशत लगातार गिर रहा है। यह साल 2020 में 59.2 फीसदी था जो 2021 में गिरकर 57 फीसदी पर आ गया। गैर इरादतन हत्या और दुष्कर्म के मामले में तो दोषसिद्धि का आंकड़ा इससे भी ज्यादा खराब है।

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साल 2023 आते-आते अदालतों में लंबित मुकदमों का आंकड़ा पांच करोड़ को पार कर गया है। इसमें जिला अदालतों के साथ ही अधीनस्थ अदालत, हाईकोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट में लंबित मुकदमे शामिल हैं। यह आलेख लिखे जाने तक, नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के आंकड़ों के मुताबिक कुल 4 करोड़ 32 लाख 70 हजार 666 मुकदमे जिला और अधीनस्थ अदालतों में लंबित हैं। ताज्जुब की बात यह है कि इनमें से .33 फीसदी मामले 30 साल से भी पुराने हैं। वही, 1.08 फीसदी मुकदमे 20 से 30 साल पुराने, 6.50 फीसदी 10 से 20 साल, 18.94 फीसदी 5 से 10 साल और 20.57 फीसदी मामले 3 से 5 साल पुराने हैं। उच्च न्यायालयों में 59 लाख 75 हजार 604 केस पेंडिंग हैं। इनमें से 1.23 फीसदी केस 30 साल से ज्यादा पुराने, 3.71 फीसदी 20 से 30 साल और 19.07 फीसदी केस 10 से 20 साल पुराने हैं। हाईकोर्ट्स में सबसे अधिक लंबित मामले 5 से 10 साल पुराने हैं। कुल लंबित मामलों में इनकी हिस्सेदारी 24.10 फीसदी है। इसके साथ ही, 18.85 फीसदी 3 से 5 साल पुराने और 15.93 फीसदी लंबित मामले 1 से 3 साल पुराने हैं। तकरीबन 69 हजार मामले सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं। चिंता करने वाली बात यह है कि अदालतों में केस कम होने की बजाय लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार की ओर से 25 मार्च, 2020 को जारी आंकड़ों पर गौर करें तो तब जिला और अधीनस्थ अदालतों में चार करोड़ 10 लाख 47 हजार 976 मामले लंबित थे। वहीं, देश के 25 उच्च न्यायालयों में कुल 58 लाख 94 हजार 60 और सुप्रीम कोर्ट में 70 हजार 154 मुकदमे अपने निपटारे की बाट जो रहे थे। ये आंकड़े दो मार्च, 2022 तक के हैं। इसके बाद अब तक तकरीबन 10 माह में 22 लाख 22 हजार 690 मुकदमे जिला अदालतों में बढ़ चुके हैं। यानी, निचली अदालतों में हर रोज तकरीबन 7400 मुकदमे बढ़ रहे हैं। दस माह की यह बढ़ोतरी 5.4 फीसदी की है। इसी अवधि में 1.38 फीसदी के साथ उच्च न्यायालयों में मुकदमों के आंकड़े में 81 हजार 544 का इजाफा हो चुका है। मतलब, हाईकोर्ट्स में लंबित मुकदमों के भार में रोजाना 271 मुकदमे जुड़ रहे हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या 73 हजार पार करने के बाद अब घटकर 69 हजार के नीचे आ गई है। बीते दिसंबर में पांच से 16 तारीख तक सुप्रीम कोर्ट में मुकदमों के निपटारे की रफ्तार 206 फीसदी तक रही। इसका त्वरित असर लंबित मामलों की संख्या में गिरावट के रूप में सामने आया है।

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अगर सुप्रीम कोर्ट के हालिया प्रदर्शन को छोड़ दिया जाए तो दूर-दूर तक ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता जो न्याय व्यवस्था की बेहतरी की तरफ इशारा करता हो। सबसे खराब स्थिति जिला और अधीनस्थ अदालतों की है। कुल लंबित मामलों में से तकरीबन 85 फीसदी इन्हीं अदालतों में हैं। ये हालात ऐसे में हैं, जब 30 दिसंबर को मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने आंध्र प्रदेश न्यायिक अकादमी के उद्घाटन के मौके पर खुले मंच से जिला अदालतों को न सिर्फ न्याय व्यवस्था की रीढ़ बताया बल्कि लोगों को इन अदालतों को अत्यंत गंभीरता से लेने की नसीहत भी दी। साथ ही, उन्होंने इन अदालतों में मुकदमों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी पर चिंता जाहिर की। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इससे ऊपर की अदालतों में लंबित मामलों का ढेर कोई मायने नहीं रखता। न्यायिक व्यवस्था की बदहाली के लिए ये अदालतें भी कानूनविदों के निशाने पर रही हैं। चार अगस्त, 2022 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस संजय किशन कौल ने एक मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की थी कि अगर हर मामला उच्चतम न्यायालय की चौखट पर आएगा तो अगले पांच सौ साल में भी लंबित मामलों का निपटारा नहीं होगा। इससे पहले, मई, 2022 में जस्टिस एल. नागेश्वर राव और जस्टिस बीआर गवई की पीठ ने हाईकोर्ट्स में लंबित मामलों पर रिपोर्ट तलब की थी। उन्होंने खासतौर पर इलाहाबाद हाई कोर्ट, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पटना, ओडिशा और बॉम्बे हाईकोर्ट में लंबित मुकदमों के अंबार को लेकर चिंता जाहिर की थी।

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फिलहाल लंबित मुकदमों के मामले में भारत पहले स्थान पर है। दुनिया में अपनी धाक जमाने की जद्दोजहद के इस दौर में हमारी न्याय व्यवस्था की यह हालत नि:संदेह एक बुरे सपने सरीखी है। समय-समय पर कानून विशेषज्ञ इसके लिए चेताते भी रहे हैं। अपने कार्यकाल के अंतिम दिन, 26 अगस्त, 2022 को चीफ जस्टिस एनवी रमण ने कहा था- लंबित केस भारत के लिए बड़ी चुनौती हैं। वहीं, नीति आयोग ने 2018 में अपनी रिपोर्ट में कहा था- इसी रफ्तार से केस निपटाए गए तो 324 साल लग जाएंगे। नीति आयोग की इस टिप्पणी के समय लंबित केसों की संख्या 2.9 करोड़ थी। ऐसे में समझा जा सकता है कि पांच करोड़ लंबित मुकदमों को निपटाने में कितनी सदियां लगेगीं।

ऐसा नहीं है कि कार्यकारी संस्थाएं इस समस्या के कारणों से वाकिफ नहीं हैं। अदालतों, जजों और वकीलों की कमी से लेकर विवेचना में देरी, पक्षकारों की ढिलाई और अदालतों का डिजिटलीकरण न होने के साथ ही अन्य तमाम कारण हैं, जो मुकदमों की सुनवाई में देरी की वजह बनते हैं। विधि मंत्रालय के आंकड़ों की मानें तो वर्तमान में देश में 10 लाख की आबादी पर 19 न्यायाधीश हैं, जो न्याय व्यवस्था की खस्ता हालत का ही नमूना है। निचली अदालतों में जजों के लिए कुल स्वीकृत पद 25042 में से 5850 खाली हैं। वहीं 19 दिसंबर, 2022 तक उच्च न्यायालय में जजों के लिए स्वीकृत 1108 पदों के मुकाबले 775 पर ही नियुक्ति थी। ये आंकड़े बताते हैं कि निचली और उच्च न्याय व्यवस्था का बोझ स्वीकृत पदों के मुकाबले दो तिहाई जज ही अपने कंधों पर उठाए हुए हैं। पिछले दिनों वर्तमान मुख्य न्यायाधीश यह कह चुके हैं कि 63 लाख मुकदमे वकीलों की कमी और 14 लाख से अधिक मुकदमे दस्तावेजों की कमी से अटके पड़े हैं।

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बेहतर न्याय व्यवस्था के लिहाज से तमाम नकारात्मक आंकड़ों के बीच एक खबर थोड़ा सुकून देने वाली भी है। जजों की नियुक्ति की बाबत कॉलेजियम के साथ लंबी खींचतान के बाद आखिरकार सरकार के रुख में नरमी आई है। कॉलेजियम की सिफारिश पर जजों की नियुक्ति पर सकारात्मक रवैये के साथ ही सरकार ने न्यायिक नियुक्तियों को लेकर निर्धारित समय सीमा का पालन करने का भी भरोसा दिया है। अगर सरकार अपने वादे पर खरी उतरी तो इसमें कोई दोराय नहीं कि इससे सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में लंबित मुकदमों को निपटाने में मदद मिलेगी। जिला और अधीनस्थ अदालतों की बेहतरी की बाबत सरकार की ओर से इससे कहीं अधिक गंभीरता दिखाए जाने की जरूरत है। आखिर, ये अदालतें न्याय व्यवस्था की रीढ़ हैं।

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