विनय संकोची
महान क्रांतिकारी अमर शहीद सरदार भगत सिंह ने पंजाबी मासिक ‘किरती’ के जनवरी १९२८ के अंक में ‘विद्रोही’ छद्म नाम से लिखा- ‘फांसी को ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा- ‘वन्देमातरम्। भारत माता की जय!’…और शांति से चलते हुए कहा-
मालिक मेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूं न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे।
फांसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा- ‘I wish the downfall of British Empire’ अर्थात् मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूं। उसके पश्चात यह शेर कहा-
अब न अहले-वल्बले हैं और न अरमानों की भीड़।
एक मिट जाने की हसरत अब दिले बिस्मिल में है।।
…फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और एक मंत्र पढऩा शुरू किया। रस्सी खींची गई। रामप्रसाद बिस्मिल जी लटक गये।’
प्रसिद्घ काकोरी लूटकांड के सूत्रधार क्रांतिवीर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को प्रात: 6 बजकर 30 मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में क्रूर ब्रिटिश शासकों ने फांसी के फंदे पर लटका दिया था। उसी ऐतिहासिक क्रांतिकारी घटना पर सरदार भगत सिंह ने उक्त उद्गार व्यक्त किये थे।
पं. रामप्रसाद बिस्मिल न केवल क्रांतिपथ के राही थे, बल्कि श्रेष्ठ कवि, शायर, बहुभाषाभाषी साहित्यकार, इतिहासकार और अनुवादक भी थे। उन्होंने राम, अज्ञात और बिस्मिल उपनामों से साहित्य सृजन किया। यह महान क्रांतिकारी बिस्मिल नाम से प्रसिद्घ हुए, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- ‘आत्मिक रूप से आहत।’ बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 में शाहजहांपुर (उ.प्र.) में हुआ था।
बिस्लिम ने बचपन में हिन्दी वर्णमाला इसलिए नहीं पढ़ी क्योंकि उस समय ‘उ’ से उल्लू पढ़ाया जाता था और यह रामप्रसाद को मंजूर नहीं था। पिता से पिटाई के बाद भी उन्होंने न उ से उल्लू बोला और न ही लिखा। फिर उन्होंने उर्दू का ज्ञान अर्जित किया। उर्दू मिडिल की परीक्षा में फेल हो गये तो अंग्रेजी पढऩे लगे। इसी बीच एक पुजारी से बाकायदा पूजा-पाठ की शिक्षा ली।
बिस्मिल के जीवन में बड़ा बदलाव स्वामी दयानन्द जी द्वारा रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को पढऩे के बाद हुआ। आर्य विद्वान स्वामी सोमदेव के सम्पर्क में आए तो देश को आजाद करने की भावना का अंकुर फूटा जो कालान्तर में विशाल वट वृक्ष के रूप में प्रकट हुआ। सन् 1915 में भाई परमानंद की फांसी का समाचार सुनकर बिस्मिल ने ब्रिटिश साम्राज्य के समूल नाश का संकल्प लिया।
उन्होंने ‘मातृवेदी’ नामक क्रांतिकारी संगठन बनाया, जिसके लिए धन एकत्र करने के लिए उन्होंने 1 जून 1918 में दो और सितम्बर 1918 में कुल मिलाकर तीन डकैतियां डालीं।
चर्चित मैनपुरी षडय़ंत्र कांड में शाहजहांपुर के 6 युवक शामिल हुए और उनके नेता थे-रामप्रसाद बिस्मिल। बिस्मिल पुलिस के हत्थे नहीं चढ़े, वे दो वर्ष भूमिगत रहे। उनके दल के साथियों ने शाहजहांपुर जाकर अफवाह फैला दी कि बिस्मिल पुलिस की गोली से मारे गये। जबकि सच्चाई यह थी कि पुलिस मुठभेड़ के दौरान यमुना में छलांग लगाकर पानी के अंदर ही अंदर योगाभ्यास की शक्ति से तैरते हुए मीलों दूर आगे जाकर नदी से निकले- आजकल जहां ग्रेटर नोएडा आबाद है। उस समय यहां निर्जन बीहड़ था, बिस्मिल उसी में चले गये।
19 वर्ष की आयु में क्रांति के पथ पर निकले और 11 वर्ष के क्रांतिकारी जीवन का अंत फांसी के फंदे पर हुआ। बिस्मिल ने इस बीच अनेक पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया। पुस्तकें बेचकर जो धन मिला उससे हथियार खरीदे और उनका उपयोग ब्रिटिश सरकार के विरुद्घ किया। 11 पुस्तकें उनके जीवन में प्रकाशित हुईं, जिनमें से अधिकतर ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लीं। क्रांति और कलम से समान प्रेम रखने वाले क्रांतिवीर पं. रामप्रसाद बिस्मिल का एक शेर आज भी मौजू है।
सितम ऐसा नहीं देखा ज़फा ऐसी नहीं देखी-
वो चुप रहने को कहते हैं, जो हम फरियाद करते हैं।
अपनी शहादत से 2 दिन पूर्व तक बिस्मिल गोरखपुर फांसीघर में जेल अफसरों की नजर बचाकर अपनी जिस आत्मकथा को लिखते रहे, उसे तीन खेपों में चुपके से बाहर भेजा गया था। इसे बिस्मिल की शहादत के बाद 1927 में सबसे पहले भजनलाल बुकसेलर ने ‘काकोरी षडय़ंत्र’ के नाम से छापा था। बिस्मिल की अंतिम यात्रा में डेढ़ लाख लोग शामिल हुए थे। बिस्मिल की शहादत को नमन्।