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Bihar Education: बोझ बन चुकी शिक्षा व्यवस्था को ठीक कर रहे के के पाठक

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Bihar Education : —— अमर नाथ झा ——–
आज बिहार क्या पूरे देश में बिहार के शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव केके पाठक की चर्चा हो रही है। चर्चा इस बात के लिये कि वे सड़ चुकी और बिहार वासियों के सिर पर बोझ बन चुकी शिक्षा व्यवस्था को ठीक कर रहे हैं। प्रशंसा मिलना लाजिमी है क्योंकि वे एक साथ शिक्षा व्यवस्था में सामंती गठजोड़ एवं वामपंथी ताकतों से भिड़ गये हैं। शिक्षा व्यवस्था की एक एक चूलें ठीक करने में जुटे हैं। कब तक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उनको शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने की छूट दे पाते हैं या फिर इन ताकतों के सामने घुटने टेक देंगे, यह तो भविष्य बतायेगा। परंतु, फिलहाल तो यही लगता है कि मुख्यमंत्री शिक्षा व्यवस्था को इस गंभीर बीमारी से निजात दिलाने के लिये केके पाठक के माध्यम से कमर कस चुके हैं।

चलिये चलते हैं, बीती शताब्दी के सत्तर के दशक की ओर। यह वही दौर था जब कम्युनिस्ट पार्टियां खासकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर धरातल पर संघर्ष कर रही थीं। पार्टी से जुड़े विभिन्न संगठन भी अपने अपने क्षेत्र में संघर्ष को तेज कर रहे थे। बिहार में हाई स्कूल से लेकर काॅलेज स्तर तक अधिकांश शैक्षणिक संस्थान निजी प्रबंध तंत्र के अन्तर्गत थे। इसी दौर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े शिक्षकों के संगठनों ने सरकारीकरण, वेतन बढ़ोतरी समेत तमाम मुद्दों पर संघर्ष तेज कर दिया था। परिणाम भी सामने आया। देखते ही देखते अविभाजित बिहार के अधिकांश हाईस्कूलों और कालेजों का सरकारीकरण हो गया। वेतन में जबर्दस्त बढ़ोतरी हुई और नियमित मिलने भी लगा। कालेजों में तो समयबद्ध प्रोन्नति का नियम भी लागू हो गया। एक समय आया जब पूरे देश में संभवतः जितने सहायक प्रोफेसर और प्रोफेसर आदि के पद नहीं थे, उतने तो सिर्फ बिहार में ही थे।

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इसका फायदा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) को राजनीतिक तौर पर मिला। वर्ष अस्सी तक या उससे पूर्व ही बिहार विधान परिषद की शिक्षक कोटे की सभी पांच सीटों पर उससे जुड़े नेताओं का कब्जा हो गया। प्रोफेसर परमानंद सिंह मदन, शत्रुघ्न प्रसाद सिंह, जयमंगल जी आदि शिक्षकों के निर्विवाद नेता थे। इनलोगों के एक आह्वान पर राजधानी पटना में हजारों शिक्षक जमा हो जाते थे। उनके समर्थकों में जनसंघ बाद में भाजपा से जुड़े शिक्षक भी थे, क्योंकि सरकारीकरण और वेतन बढ़ोतरी करवाने की ताकत इन्हीं नेताओं में थी। प्राइमरी से लेकर कालेज तक के शिक्षकों की स्थिति तो बेहतर हुई। आर्थिंक तंगी से तो वे लोग निकल आये परंतु इसके साथ ही शिक्षा व्यवस्था की दुर्दशा शुरू हो गयी।

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शिक्षक संघों के संघर्ष का तरीका भी अद्भुत था। जब परीक्षा संचालन और कापी मूल्यांकन का समय आता था या तो इनकी हड़ताल शुरू हो जाती थी या फिर धमकी आनी शुरू हो जाती थी। यदि सरकार शिक्षक संघों की मांगों पर नहीं झुकी तो हड़ताल शुरू। इसी दौर में विश्वविद्यालयों में सेशन लेट होना शुरू हो गया। विद्यार्थियों के एमए तक जाते जाते तीन तीन वर्ष बर्बाद हो जाते थे। छात्र परीक्षा देकर तो आते थे, परिणाम कब आयेगा पता नहीं। जब तक परीक्षा परिणाम आये तब तक दूसरे विश्वविद्यालयों में ‘एडमिशन क्लोज’ की सूचना चस्पा हो जाती थी। एक विवि से इंटर या स्नातक पास छात्र आमतौर पर इच्छा रहते हुए भी दूसरे विवि में एडमिशन नहीं ले पाता था। क्योंकि हर विवि का एकेडेमिक कैलेंडर एक दूसरे से अलग हो जाता था।

इसी एकेडेमिक दुव्र्यवस्था के कारण अस्सी तक आते आते छात्रों का बिहार से पलायन धीरे धीरे शुरू हो गया था। जिनके अभिभावक समय के साथ होशियार थे, उन्होंने बच्चों को पढ़ने के लिये प्रयागराज और दिल्ली भेजना शुरू कर दिया था। नब्बे तक आते आते तो पूरी शिक्षा व्यवस्था ही चरमरा गयी थी। आज स्थिति यह है कि दिल्ली के सभी विश्वविद्यालयों में बिहार के छात्र भरे पड़े हैं। देश के विभिन्न निजी और सरकारी तकनीकी संस्थानों में भी बिहारी छात्रों की संख्या बहुतायत में हैं। ये सभी बेहतर भविष्य के लिये अपने प्रदेश से बाहर गये हैं। बिहार के लोगों को इस सवाल का जवाब ढूढना होगा। आखिर क्यों बिहार की शिक्षा व्यवस्था की दुर्दशा हुई। इसके लिये दोषी कौन हैं।

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सोचिये, प्राचीन भारत के तीन विश्वविद्यालयों तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला में दो बिहार में ही थे। तक्षशिला के प्रमुख आचार्य भी बिहार के ही होते थे। उन्हीं में से एक थे विष्णुगुप्त जिन्हें हम चाणक्य के नाम से भी जानते हैं। और आज बिहार के विश्वविद्यालयों की कोई गिनती नहीं है। ऐसे समय में यदि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर्मठ और अपने दायित्व के प्रति समर्पित अधिकारी केके पाठक से शिक्षा व्यवस्था को पुनः पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। शिक्षकों को भी इसमें सहयोग देना चाहिए। उनकी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी भी यही है, क्योंकि उन्हें अच्छा वेतन गरीबों के टैक्स से मिले पैसे से ही मिलता हैं।

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