नि:संकोच : भव्य होते मृत्युभोज!

विनय संकोची
राजस्थान में 'मौसर' बोले तो मृत्युभोज के नाम पर धन का अपव्यय कर के तमाम लोग कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं। बहुत से गरीब लोग मृत्यु भोज के लिए महाजन से पैसा उधार लेते हैं और पूरी जिंदगी उसे चुकाते-चुकाते मर जाते हैं। अनेक महान संतों ने इस कुप्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया, परिणाम भी सामने आए लेकिन 'मौसर' पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है।
मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि आने वाले दिनों में हमारे यहां भी किसी या किन्हीं समाजसेवियों को दिखावे और भव्यता की ओर बढ़ती तेरहवीं (मृत्युभोज) के विरोध में आवाज उठाने की जरूरत पड़ने वाली है। मैं और मेरी पीढ़ी के लोग कम से कम पांच छह दशक से तेरहवीं के स्वरूप को बदलते हुए देखते आ रहे हैं। सबसे ज्यादा परिवर्तन पिछले एक दशक से देखने को मिल रहा है।
'तेरहवीं' घर के आंगन , घर के आगे की गली या आसपास की छोटी-बड़ी धर्मशालाओं अथवा पार्कों से निकलकर महंगे फार्म हाउसों और बैंक्वेट हालों तक पहुंच गई है। अब यह आयोजन सस्ता नहीं रहा है। 'उसका कुर्ता मेरे कुर्ते से सफेद कैसे' की तर्ज पर तेरहवीं भी वैभव प्रदर्शन का मामला बन गई है। मेरी बात बुरी नहीं लगनी चाहिए तेरहवीं श्रद्धा से ज्यादा दिखावे की पटरी पर दौड़ रही है। बैंक्विट हॉल सजाए जाने लगे हैं। काशीफल, आलू, रायते और पूरी, लड्डू की जगह अब मटर पनीर, दमआलू, शाही पनीर और भांति-भांति की कचौरियों और मिठाई-पकवानों ने ले ली है। बड़े आदमी द्वारा किए जाने वाले भव्य मृत्यु भोज मध्यमवर्गीय लोगों को कुंठित करते हैं, क्योंकि उन्हें इन आयोजनों का हिस्सा बनना पड़ता है और जब उनकी बारी आती है तो वह धन के अभाव में तेरहवीं को भव्य नहीं बना पाते हैं। बड़ों को बुलाना है, तो पैसा चाहिए, पैसा होता नहीं तो कर्ज़ लेता है और कर्ज उस पर बोझ बन जाता है। उस बोझ से उसके कंधे झुक जाते हैं। तेरह ब्राह्मणों को जमीन पर बिठाकर जिमाया जाता है, जबकि शोक प्रकट करने वालों को सफेद मेजपोश वाली मेजों पर बिठाने की व्यवस्था करनी पड़ती है।
अब तो तेरहवीं में भाषण बाजी भी खूब होती है। भाषण देने वालों में वे लोग भी होते हैं, जो मरने वालों से कभी मिले नहीं होते। अंदर भाषण देकर बाहर निकल कर मरने वाले को बुरा भला कहने वाले भी खूब देखे जाते हैं। शोक संदेश के लिफाफे भी खूब-खूब आते हैं, जिन्हें पढ़ा जाना समय की बर्बादी है, क्योंकि मरने वाले के परिजनों के लिए वे संदेश होते हैं न कि उपस्थित समुदाय को यह जताने के लिए कि हम भी दु:खी हैं। मरने वाले के फोटो के सामने फूल की पंखुड़ी चढ़ाने वाले इस बात के प्रति ज्यादा सजग रहते हैं कि अखबार वाले फोटोग्राफर ने उनका फोटो लिया या नहीं। अब तो कंप्यूटर वालों के पास रेडीमेड शोक संदेश उपलब्ध रहते हैं। बस नाम आदि चेंज करा लो नीचे अपना नाम लिखवा लो, शोक संदेश तैयार। क्या मौसर बोले तो मृत्युभोज को बहुत सात्विक और सादगी भरा नहीं होना चाहिए?
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विनय संकोची
राजस्थान में 'मौसर' बोले तो मृत्युभोज के नाम पर धन का अपव्यय कर के तमाम लोग कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं। बहुत से गरीब लोग मृत्यु भोज के लिए महाजन से पैसा उधार लेते हैं और पूरी जिंदगी उसे चुकाते-चुकाते मर जाते हैं। अनेक महान संतों ने इस कुप्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया, परिणाम भी सामने आए लेकिन 'मौसर' पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है।
मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि आने वाले दिनों में हमारे यहां भी किसी या किन्हीं समाजसेवियों को दिखावे और भव्यता की ओर बढ़ती तेरहवीं (मृत्युभोज) के विरोध में आवाज उठाने की जरूरत पड़ने वाली है। मैं और मेरी पीढ़ी के लोग कम से कम पांच छह दशक से तेरहवीं के स्वरूप को बदलते हुए देखते आ रहे हैं। सबसे ज्यादा परिवर्तन पिछले एक दशक से देखने को मिल रहा है।
'तेरहवीं' घर के आंगन , घर के आगे की गली या आसपास की छोटी-बड़ी धर्मशालाओं अथवा पार्कों से निकलकर महंगे फार्म हाउसों और बैंक्वेट हालों तक पहुंच गई है। अब यह आयोजन सस्ता नहीं रहा है। 'उसका कुर्ता मेरे कुर्ते से सफेद कैसे' की तर्ज पर तेरहवीं भी वैभव प्रदर्शन का मामला बन गई है। मेरी बात बुरी नहीं लगनी चाहिए तेरहवीं श्रद्धा से ज्यादा दिखावे की पटरी पर दौड़ रही है। बैंक्विट हॉल सजाए जाने लगे हैं। काशीफल, आलू, रायते और पूरी, लड्डू की जगह अब मटर पनीर, दमआलू, शाही पनीर और भांति-भांति की कचौरियों और मिठाई-पकवानों ने ले ली है। बड़े आदमी द्वारा किए जाने वाले भव्य मृत्यु भोज मध्यमवर्गीय लोगों को कुंठित करते हैं, क्योंकि उन्हें इन आयोजनों का हिस्सा बनना पड़ता है और जब उनकी बारी आती है तो वह धन के अभाव में तेरहवीं को भव्य नहीं बना पाते हैं। बड़ों को बुलाना है, तो पैसा चाहिए, पैसा होता नहीं तो कर्ज़ लेता है और कर्ज उस पर बोझ बन जाता है। उस बोझ से उसके कंधे झुक जाते हैं। तेरह ब्राह्मणों को जमीन पर बिठाकर जिमाया जाता है, जबकि शोक प्रकट करने वालों को सफेद मेजपोश वाली मेजों पर बिठाने की व्यवस्था करनी पड़ती है।
अब तो तेरहवीं में भाषण बाजी भी खूब होती है। भाषण देने वालों में वे लोग भी होते हैं, जो मरने वालों से कभी मिले नहीं होते। अंदर भाषण देकर बाहर निकल कर मरने वाले को बुरा भला कहने वाले भी खूब देखे जाते हैं। शोक संदेश के लिफाफे भी खूब-खूब आते हैं, जिन्हें पढ़ा जाना समय की बर्बादी है, क्योंकि मरने वाले के परिजनों के लिए वे संदेश होते हैं न कि उपस्थित समुदाय को यह जताने के लिए कि हम भी दु:खी हैं। मरने वाले के फोटो के सामने फूल की पंखुड़ी चढ़ाने वाले इस बात के प्रति ज्यादा सजग रहते हैं कि अखबार वाले फोटोग्राफर ने उनका फोटो लिया या नहीं। अब तो कंप्यूटर वालों के पास रेडीमेड शोक संदेश उपलब्ध रहते हैं। बस नाम आदि चेंज करा लो नीचे अपना नाम लिखवा लो, शोक संदेश तैयार। क्या मौसर बोले तो मृत्युभोज को बहुत सात्विक और सादगी भरा नहीं होना चाहिए?
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