नि:संकोच : गांधी जी ने सौ साल पहले कहा था- 'लोकराज्य ही रामराज्य है!'

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'राम राज्य' (Ramraj) का सपना भी सुखद अहसास देता है।
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calendar13 Dec 2021 04:40 PM
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 विनय संकोची

'राम राज्य' (Ramraj) का सपना भी सुखद अहसास देता है। 'राम राज्य' को धर्म से जोड़कर देखा जाता रहा है, उस धर्म से जो कट्टरतावादी सोच के चलते अधर्म की पगडंडी पर चलता दिखाई पड़ता है। 'राम राज्य' जिस धर्म के पालन से स्थापित हो सकता है, वह है राजधर्म। लेकिन धर्म के इसी स्वरूप की सबसे कम चर्चा होती है। 'जैसा राजा वैसी प्रजा' का सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है और पूरी तरह से राजधर्म (Ramraj) पर आधारित है। राम ने पग-पग पर राजधर्म का पालन किया है। राज्याभिषेक से एक दिन पूर्व महाराज दशरथ ने श्रीराम (Lord Ram) को राजधर्म का पाठ पढ़ाते हुए कहा था-'कल तुम्हारा राज्याभिषेक है। तुमको राजमुकुट पहनाया जाएगा, परंतु याद रखना जो राजमुकुट पहनता है, वह स्वयं को अपने राज्य और प्रजा को सौंप देता है। एक राजा का अर्थ है, संन्यासी हो जाना।' संन्यासी का एक अर्थ है - 'सब का हो जाना।'

राजा जब सबका हो जाता है, तो सब अपने आप राजा के हो जाते हैं और रामराज्य का सपना आकार लेने लगता है। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास जैसे नारे लगाने मात्र से कुछ होता नहीं है, कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि इस बारे में जो 'सब' है वह सच नहीं है और उसमें 'सब' तो कतई नहीं है। इस 'सब' में उन वर्गों की प्रधानता है, जो राजा और सत्ता के विशेष कृपा पात्र हैं। यूं तो जब योजनाएं बनती हैं, तो थोड़ा घना लाभ सबको मिल ही जाता है। लेकिन पिछले दरवाजे से विशेष कृपा कुछ खास लोगों, वर्गों को ही नसीब होती है। इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि न राजा सबको पसंद करता है और न ही राजा को सभी वर्ग या लोग पसंद करते हैं। इस पसंद नापसंद के चक्रव्यूह में फंसते वही लोग हैं जिन्हें राजा पसंद नहीं होता है और राजा भी जिन्हें पसंद नहीं करता है। प्रक्रिया रामराज्य की स्थापना में सबसे अधिक बाधक है।

भगवान राम (Lord Ram) ने राजा बनकर स्वयं को राज्य और प्रजा को सौंप दिया था, समर्पित कर दिया था। तभी रामराज्य स्थापित हुआ था। राजा होने का अहंकार प्रजा के प्रति भेदपूर्ण नीति, आलोचना को निंदा मानना और मैं ही सर्वोपरि हूं का भाव रखने वाला शासक 'राम राज्य' लाने की बात तो कर सकता है लेकिन 'राम राज्य' ला नहीं सकता। महात्मा गांधी 'राम राज्य' के प्रबल समर्थक थे।

22 मई 1921 को गुजराती 'नवजीवन' में लिखे अपने लेख में बापू ने लिखा था-'हम तो राम राज्य का अर्थ स्वराज, धर्म राज, लोकराज करते हैं। वैसा राज्य तो तभी संभव है, जब जनता धर्मनिष्ठ और वीर्यवान बने ...अभी तो कोई सद्गुणी राजा भी यदि स्वयं प्रजा के बंधन काट दे, तो प्रजा उसकी गुलाम बनी रहेगी।' क्या महात्मा गांधी द्वारा 100 वर्ष पूर्व दिया गया यह बयान आज भी प्रासंगिक नहीं है। आज एक बड़ा वर्ग आत्मा से सत्ता का गुलाम होकर न खुद स्वतंत्र होना चाहता है, न दूसरों को स्वतंत्र होते देखना चाहता है। क्या ऐसी सोच के चलते 'राम राज्य' स्थापित हो सकता है? यहां 'राम राज्य' का सपना देखने में कोई बुराई नहीं है, क्योंकि जैसा मैंने पूर्व में कहा 'राम राज्य' का सपना भी सुखद एहसास की अनुभूति कराता है।

20 मार्च 1930 को हिंदी पत्रिका 'नव जीवन' में 'स्वराज और राम राज्य' शीर्षक से एक लेख गांधी जी ने लिखा, जिसमें उन्होंने कहा था-'यदि किसी को राम राज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्म राज्य कहूंगा। राम राज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगी, सब कार्य धैर्य पूर्वक किए जाएंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा।' पिछले कुछ वर्षों से सारा देश देखता रहा है कि लोकमत का निरादर करते हुए किस तरह सत्ता कब्जाने का भद्दा खेल खेला जा रहा है। लोक जिन्हें सत्ता के सिंहासन पर बैठाता है, उन्हें षड्यंत्र कर सिंहासन से उतार दिया जाता है। रामराज्य ऐसा ही होता है, रामराज ऐसे ही आता है क्या?

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Death Anniversary : महान कवि प्रदीप को कभी कोई राष्ट्रीय सम्मान नहीं मिला!

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calendar11 Dec 2021 03:45 PM
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 विनय संकोची

27 जनवरी 1963 की शाम राजधानी दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने देशभक्ति से ओतप्रोत ' ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी', गाया तो वहां मौजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ-साथ सभी की आंखें नम हो गई थीं।

तत्कालीन राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन और सभी कैबिनेट मंत्रियों के अतिरिक्त अभिनेता दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर, राजेंद्र कुमार, गायक मोहम्मद रफी और हेमंत कुमार भी इस समारोह में शामिल थे। लेकिन इस कार्यक्रम में महान कवि और गीतकार कवि प्रदीप को ही आमंत्रित नहीं किया गया था, जिन्होंने ऐ मेरे वतन के लोगों... जैसा अमर गीत लिखा था। बाद में तीन माह के उपरांत 21 मार्च 1963 को पंडित नेहरू ने विशेष आग्रह कर कवि प्रदीप से भेंट की और उन्हीं की आवाज में उक्त गीत को सुना।

देश प्रेम और देशभक्ति से ओतप्रोत भावनाओं को सुंदर शब्दों में पिरो कर जन-जन तक पहुंचाने वाले महान कवि प्रदीप की आज पुण्यतिथि है। 6 फरवरी 1915 को मध्यप्रदेश में उज्जैन के छोटे से कस्बे बड़नगर में जन्मे कवि प्रदीप का वास्तविक नाम रामचंद्र नारायण द्विवेदी था। विद्यार्थी जीवन से ही हिंदी काव्य लेखन एवं हिंदी काव्य वाचन में उनकी विशेष रूचि थी। इंदौर, इलाहाबाद, प्रयाग और लखनऊ में विद्याध्ययन किया। गुजराती ब्राह्मण चुन्नीलाल भट्ट की पुत्री सुभद्रा बेन से 1942 में विवाह हुआ। 1950 में विले पार्ले में उन्होंने शानदार बंगला बनवाया।

कवि प्रदीप कवि सम्मेलनों में भी खूब दाद बटोरा करते थे। कविता उनकी सांस-सांस में बसी थी। कविता उनका जीवन थी। इसीलिए अध्यापन छोड़कर वे कविता में लीन हो गए।

एक बार इलाहाबाद प्रयाग में एक काव्य गोष्ठी का आयोजन हुआ। इस गोष्ठी की अध्यक्षता राजऋषि पुरुषोत्तम दास टंडन ने की थी और गोष्ठी में महादेवी वर्मा, भगवती चरण वर्मा, प्रफुल्ल चंद्र ओझा 'मुक्त', हरिवंशराय बच्चन, नरेंद्र शर्मा, बालकृष्ण शर्मा, रमाशंकर शुक्ल 'रसाल', पद्मकांत सरीखे दिग्गज रचनाकारों ने काव्य पाठ किया। इसी गोष्ठी में 20 वर्षीय तरुण कवि प्रदीप ने अपने सुरीले काव्य पाठ से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। उस दिन हिंदी जगत को एक नया सितारा मिला। कमाल तो तब हुआ जब लखनऊ से प्रकाशित पत्रिका माधुरी के फरवरी 1938 के अंक में महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने कवि प्रदीप पर लेख लिखकर उनकी काव्य प्रतिभा पर मोहर लगा दी। कवि प्रदीप ने 1939 में मुंबई में कदम रखा और उसी वर्ष फिल्म 'कंगन' के गीत लिखकर बतौर गीतकार फिल्म जगत में स्थापित हो गए। 'कंगन' में लिखे प्रदीप के चार गीतों में से तीन गीतों को लता मंगेशकर ने स्वर दिया था।

कवि प्रदीप गांधीवादी विचारधारा के कवि थे और उन्होंने जीवन मूल्यों की कीमत पर धन- दौलत को कभी महत्व नहीं दिया। वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। चंद्रशेखर आजाद की शहादत पर कवि प्रदीप ने गीत लिखा - 'वह इस घर का एक दिया था...।' सन 1940 में आजादी का आंदोलन चरम पर था। कवि प्रदीप अपनी कविताओं से देशवासियों में जागृति पैदा कर रहे थे। फिल्म 'बंधन' में उनके द्वारा लिखे गीत 'चल चल रे नौजवान' ने आजादी के दीवानों में नया जोश भरने का काम किया। प्रभात फेरी में कवि प्रदीप का यही गीत गाया जाता था। इस गीत ने भारतीय जनमानस पर जादू कर दिया था और यह गीत 'राष्ट्रीय गीत' बन गया। सिंध और पंजाब की विधानसभा ने इस गीत को 'राष्ट्रीय गीत' की मान्यता दी और इसे विधानसभा में गाया जाने लगा।

बलराज साहनी ने इस गीत को लंदन बीबीसी से प्रसारित कर दिया था। अपने कैशौर्य वाले काल में इंदिरा गांधी प्रभात फेरियों में 'चल चल रे नौजवान' गाकर अपनी 'वानर सेना' की परेड कराया करती थीं। यह गीत नासिक विद्रोह (1946) के समय सैनिकों का अभियान गीत बन गया था। 1943 में कवि प्रदीप ने फिल्म किस्मत में गीत लिखा 'आज हिमालय की चोटी से हमने फिर ललकारा है, दूर हटो ए दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है'- प्रदीप का यह गीत अंग्रेजी सरकार पर सीधा प्रहार था। अंग्रेजी सरकार ने कवि प्रदीप की गिरफ्तारी का वारंट निकाला, तो वह भूमिगत हो गए। वर्ष 1954 में प्रदीप का फिल्म 'नास्तिक' का गीत 'देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान' ने उनकी प्रसिद्धि में चार चांद लगा दिए। फिल्म 'जागृति' के गीत 'हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के' और 'दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल' बहुत लोकप्रिय हुए। कवि प्रदीप को अपने अंतिम समय 11 दिसंबर 1998 तक हमेशा यह अफसोस रहा कि भारत सरकार ने कभी उन्हें कोई सम्मान, कोई पुरस्कार नहीं दिया। इसे महान कवि की प्रतिभा और देशभक्ति का अपमान ही माना जाएगा। उनके हिस्से में मात्र एक सम्मान आया और वह था 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार'!

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Literature : भगवान श्रीराम प्रजा से अनुमति लेकर ही कुछ कहते थे!

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'राम राज्य' (Ramraj) का सपना भी सुखद अहसास देता है।
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 विनय संकोची

रामराज्य आए दिन सोशल मीडिया और आम समाज में खूब चर्चा का विषय बना रहता है। यह अच्छी बात है, कम-से-कम इसी बहाने लोग भगवान राम का नाम तो ले ही रहे हैं। 'कलियुग केवल नाम अधारा, सुमर सुमर नर उतरसी पारा'- इस हिसाब से प्रभु नाम का स्मरण, परमात्मा के नाम का कीर्तन-संकीर्तन, प्रभु नाम-चर्चा, प्राणी मात्र के लिए लाभदायक है।

रामराज्य में पाप और अपराध की कभी स्थिति ही नहीं थी और आज जब रामराज्य स्थापित करने का वादा किया जा रहा है, हर तरफ पाप और अपराध का काला साया मंडराता दिखाई देता है, जो लोगों को डराता है। भगवान श्री रामचंद्र जी महाराज अपनी प्रजा से कुछ आध्यात्मिक ज्ञान पर कहना चाहते हैं, तो हाथ जोड़कर कहते हैं-' यदि आप लोगों का आदेश हो तो मैं कुछ कहूं। आपको अच्छा लगे तो सुनिए अच्छा ना लगे अथवा मैं कोई अनीति पूर्ण बात कहूं तो मुझे रोक दीजिए -

'जो अनीति कुछ भाषौं भाई। तो मोहि बरजहु भय बिसराई'।।

राम राज्य में राजा-प्रजा के कैसे क्या संबंध हों, यह स्पष्ट है। लेकिन आज मामला इसके ठीक विपरीत है। आज प्रजा को वह सब कुछ सुनना ही सुनना है, जो 'राजा' कहता है। प्रजा को प्रत्युत्तर की अनुमति नहीं है। रामराज्य में मर्यादा पुरुषोत्तम राम को रोका जा सकता था, लेकिन आज उनके तथाकथित भक्त राजा को रोकने का दु:साहस करने वाले को राजद्रोह की धाराओं का सामना करना पड़ सकता है। क्या ऐसी स्थिति परिस्थिति में रामराज्य स्थापित हो सकता है? विचार करके देखें और उत्तर स्वयं अपने आप को दें, इस प्रश्न का।

रामराज्य में अपनी प्रजा के दोषों और पापों के लिए राजा ही उत्तरदाई था। राजा को दूसरों से दान लेने का कोई अधिकार भी नहीं था। लोकापवाद का भय राजा को अनाचार में प्रवृत्त होने से रोकता था। आज जब रामराज्य स्थापित करने का दम भरा जा रहा है, राजा अपनी प्रजा के दोषों को तो छोड़िए स्वयं अपने दोषों के लिए खुद को उत्तरदाई नहीं मानता है। तब राजा को दूसरों से दान लेने का अधिकार नहीं था, लेकिन आज तो राजा राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए धन वालों के आगे झोली फैलाकर खड़े हो जाते हैं, यह निश्चित रूप से उनकी गरिमा के विरुद्ध कृत्य है लेकिन उन्हें इससे कोई परहेज नहीं होता है। दान लेकर राजा उपकृत हो जाता है और दानियों पर खुले मन से कृपा वर्षा कर उऋण होने का प्रयास करता है। ऐसा राजा राम राज्य स्थापित कर सकता है क्या? इस प्रश्न का भी उत्तर खोजें। आप विवेकशील हैं, आप ऐसा कर सकते हैं।

राम का काम मानव मात्र का कल्याण था, लेकिन आज तो अधिसंख्य मानव दु:खी, पीड़ित, व्यथित हैं। इन सब को सुखी, संतुष्ट किए बिना रामराज्य की स्थापना संभव नहीं है। राम जैसा दिखना एक बार को संभव हो सकता है, लेकिन राम जैसा होना असंभव से भी परे है। कल्पना की उड़ान भी वहां तक नहीं है। कहां राम और कहां महत्वाकांक्षाओं के खेत को पानी देते स्वार्थ पूर्ति राजा। भगवान श्री रामचंद्र जी के राज्य में दंड केवल सन्यासियों के हाथों में था और भेद नाचने वालों के नृत्य समाज में है और 'जीतो' शब्द केवल मन के जीतने के लिए सुनाई पड़ता है-

'दंड जतिन्ह कर भेद जहं नर्तक नृत्य समाज। जीतहू मनही सुनिअ अस रामचंद्र के राज।।'

हम रामराज का सपना देख रहे हैं, जबकि अब 'जीतो' शब्द मन को जीतने के लिए नहीं बल्कि साम, दाम, दंड, भेद के द्वारा विरोधियों- विपक्षियों के दमन और राज्यों की सत्ता पर काबिज होने के लिए युद्ध घोष के रूप में अपनाया जा रहा है। प्रधानमंत्री महोदय ने गत वर्ष एक बार अपने 'आध्यात्मिक संबोधन' में कहा था कि गुरु गोविंद सिंह जी महाराज ने 'गोविंद रामायण' की रचना की थी, जबकि सिख धर्म के अनुयाई इसको सही नहीं मानते हैं। अगर यह सही नहीं है तो आदरणीय मोदी जी ने ऐसा कैसे बोल दिया। कहीं-न-कहीं तो उन्होंने पढ़ा-सुना होगा। या फिर यह ऐसा मामला है कि 'विनय पत्रिका' मैंने यानी विनय ने लिखी है। बहरहाल यह बहस का विषय नहीं है। चर्चा तो रामराज पर चल रही है, आगे भी चलेगी।