धर्म - अध्यात्म : ढाई अक्षर के भगवान!

विनय संकोची
'प्रेम' मात्र ढाई अक्षर का छोटा सा शब्द है, लेकिन इसमें भावों का सागर लहराता है। प्रेम का शाब्दिक अर्थ है - प्रियता, स्नेह, प्रीति, अनुराग, प्यार, माया और लोभ आदि। प्रेम जितना कितना भी छोटा क्यों न हो, लेकिन इसे समझना आसान नहीं है। इसी के साथ यह भी कहना उचित है कि प्रेम करना तो आसान है लेकिन निभाना कठिन है। जो प्रेम को समझता है और जो नि:स्वार्थ भाव से प्रेम करना जानता है, वही सच्चा प्रेमी है और वही सच्चा ज्ञानी भी है। प्रेम के महत्व को समझने के लिए संत कबीर का एक दोहा ही पर्याप्त है- पोथी पढि-पढि जग मुआ पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।
इंसान की तो बात ही क्या है, स्वयं भगवान के भक्तों से केवल और केवल प्रेम चाहते हैं। भगवान केवल प्रेम के बस में ही भक्तों की इच्छा पूरी करते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण दुर्योधन के घर भोजन नहीं करते हैं और विदुर के घर शाक का भोजन करने पहुंच जाते हैं। महाभारत युद्ध में प्रेम वश होकर ही लीलाधारी कृष्णजी ने अर्जुन का रथ हांका, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में झूठी पत्तल उठाने की जिम्मेदारी निभाई। पूर्ण अवतार नंदनंदन श्रीकृष्ण गोपियों के प्रेम में वशीभूत होकर नृत्य करने लगे। प्रेम में अपूर्व शक्ति है। प्रेम की महिमा अतुलनीय है। प्रेम से परमपिता परमेश्वर को भी वश में किया जा सकता है। भगवान प्रेम के भूखे हैं, लेकिन प्रेम सच्चा होना चाहिए दिखावे वाले, स्वार्थ पूर्ण प्रेम से भगवान को अपना नहीं बनाया जा सकता। सत्य तो यह है कि यदि भगवान के प्रति अनन्य प्रेम है, तो भगवान स्वयं चलकर आते हैं और उसकी पल पल पर सहायता करते हैं। हां भगवान का रूप अलग-अलग हो सकता है। भगवान का जो चित्र हम देखते हैं, उस रूप में ब्रह्माण्डनायक साक्षात दर्शन नहीं देते हैं, अपितु किसी को भी अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजकर कष्टों का निवारण कर देते हैं।
प्रेम और मोह में बड़ा अंतर होता है, लेकिन लोग दोनों को एक मान बैठते हैं। संतों की वाणी है कि अज्ञानी ही प्रेम और मोह को एक समझने की भूल करते हैं। ज्ञान के बिना प्रेम मोह में बदल जाता है और प्रेम के बिना ज्ञान शून्य हो जाता है। इसका एक अर्थ यह हुआ कि प्रेम के लिए ज्ञान आवश्यक है और ज्ञान के लिए प्रेम जरूरी है।
लोग प्रेम में पाना चाहते हैं। भगवान से प्रेम प्रदर्शन करके अपनी इच्छाओं की पूर्ति चाहते हैं। भगवान से केवल पाना चाहते हैं, परंतु देना कुछ नहीं चाहते, अपना मन भी नहीं। प्रेम त्याग चाहता है, प्रेम सत्य के वशीभूत होता है। प्रेम अपने सुख और स्वार्थ की गंध से दूर भागता है। प्रेम में पाने का नहीं देने का महत्व है। मैं तुझसे क्या पा लूं प्रेम नहीं है, मैं तुझे क्या-क्या दे दूं, यह प्रेम है। आज समाज में प्रेम की चर्चा तो खूब होती है लेकिन प्रेम तो विरले ही करते हैं, बाकी तो प्रेम होने, प्रेम करने का दिखावा ही करते हैं - मात्र अभिनय।
आज समाज में प्रेम का अभाव हो गया है। प्रेम के अभाव का सबसे बड़ा उदाहरण संबंधों में बिखराव के रूप में दिखाई पड़ रहा है। संबंधों में विघटन का सबसे बड़ा कारण, अपने सुख और स्वार्थ की चाह को प्रेम मान लेना है। दूसरा क्या चाहता है, जानते हुए भी उसे अनदेखा कर देना प्रेम में सबसे बड़ा बाधक है। जहां समर्पण होगा वहीं प्यार होगा। जहां त्याग होगा वहां प्यार होगा जहां पाने से अधिक देने की तमन्ना होगी वहां प्यार होगा। प्रेम की शक्ति अभावों में भी आनंद के रंग भरने में सक्षम है। प्रेम करके निभाना भी चाहिए, निभा नहीं पाए तो प्रेम का धागा टूट जाएगा और जोड़ा तो गांठ पड़ जाएगी, स्वाभाविक नहीं रहेगा प्रेम।
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विनय संकोची
'प्रेम' मात्र ढाई अक्षर का छोटा सा शब्द है, लेकिन इसमें भावों का सागर लहराता है। प्रेम का शाब्दिक अर्थ है - प्रियता, स्नेह, प्रीति, अनुराग, प्यार, माया और लोभ आदि। प्रेम जितना कितना भी छोटा क्यों न हो, लेकिन इसे समझना आसान नहीं है। इसी के साथ यह भी कहना उचित है कि प्रेम करना तो आसान है लेकिन निभाना कठिन है। जो प्रेम को समझता है और जो नि:स्वार्थ भाव से प्रेम करना जानता है, वही सच्चा प्रेमी है और वही सच्चा ज्ञानी भी है। प्रेम के महत्व को समझने के लिए संत कबीर का एक दोहा ही पर्याप्त है- पोथी पढि-पढि जग मुआ पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।
इंसान की तो बात ही क्या है, स्वयं भगवान के भक्तों से केवल और केवल प्रेम चाहते हैं। भगवान केवल प्रेम के बस में ही भक्तों की इच्छा पूरी करते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण दुर्योधन के घर भोजन नहीं करते हैं और विदुर के घर शाक का भोजन करने पहुंच जाते हैं। महाभारत युद्ध में प्रेम वश होकर ही लीलाधारी कृष्णजी ने अर्जुन का रथ हांका, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में झूठी पत्तल उठाने की जिम्मेदारी निभाई। पूर्ण अवतार नंदनंदन श्रीकृष्ण गोपियों के प्रेम में वशीभूत होकर नृत्य करने लगे। प्रेम में अपूर्व शक्ति है। प्रेम की महिमा अतुलनीय है। प्रेम से परमपिता परमेश्वर को भी वश में किया जा सकता है। भगवान प्रेम के भूखे हैं, लेकिन प्रेम सच्चा होना चाहिए दिखावे वाले, स्वार्थ पूर्ण प्रेम से भगवान को अपना नहीं बनाया जा सकता। सत्य तो यह है कि यदि भगवान के प्रति अनन्य प्रेम है, तो भगवान स्वयं चलकर आते हैं और उसकी पल पल पर सहायता करते हैं। हां भगवान का रूप अलग-अलग हो सकता है। भगवान का जो चित्र हम देखते हैं, उस रूप में ब्रह्माण्डनायक साक्षात दर्शन नहीं देते हैं, अपितु किसी को भी अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजकर कष्टों का निवारण कर देते हैं।
प्रेम और मोह में बड़ा अंतर होता है, लेकिन लोग दोनों को एक मान बैठते हैं। संतों की वाणी है कि अज्ञानी ही प्रेम और मोह को एक समझने की भूल करते हैं। ज्ञान के बिना प्रेम मोह में बदल जाता है और प्रेम के बिना ज्ञान शून्य हो जाता है। इसका एक अर्थ यह हुआ कि प्रेम के लिए ज्ञान आवश्यक है और ज्ञान के लिए प्रेम जरूरी है।
लोग प्रेम में पाना चाहते हैं। भगवान से प्रेम प्रदर्शन करके अपनी इच्छाओं की पूर्ति चाहते हैं। भगवान से केवल पाना चाहते हैं, परंतु देना कुछ नहीं चाहते, अपना मन भी नहीं। प्रेम त्याग चाहता है, प्रेम सत्य के वशीभूत होता है। प्रेम अपने सुख और स्वार्थ की गंध से दूर भागता है। प्रेम में पाने का नहीं देने का महत्व है। मैं तुझसे क्या पा लूं प्रेम नहीं है, मैं तुझे क्या-क्या दे दूं, यह प्रेम है। आज समाज में प्रेम की चर्चा तो खूब होती है लेकिन प्रेम तो विरले ही करते हैं, बाकी तो प्रेम होने, प्रेम करने का दिखावा ही करते हैं - मात्र अभिनय।
आज समाज में प्रेम का अभाव हो गया है। प्रेम के अभाव का सबसे बड़ा उदाहरण संबंधों में बिखराव के रूप में दिखाई पड़ रहा है। संबंधों में विघटन का सबसे बड़ा कारण, अपने सुख और स्वार्थ की चाह को प्रेम मान लेना है। दूसरा क्या चाहता है, जानते हुए भी उसे अनदेखा कर देना प्रेम में सबसे बड़ा बाधक है। जहां समर्पण होगा वहीं प्यार होगा। जहां त्याग होगा वहां प्यार होगा जहां पाने से अधिक देने की तमन्ना होगी वहां प्यार होगा। प्रेम की शक्ति अभावों में भी आनंद के रंग भरने में सक्षम है। प्रेम करके निभाना भी चाहिए, निभा नहीं पाए तो प्रेम का धागा टूट जाएगा और जोड़ा तो गांठ पड़ जाएगी, स्वाभाविक नहीं रहेगा प्रेम।
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