धर्म - अध्यात्म : गुरु को सिर पर राखिये...!

विनय संकोची
गुरु की शरण में जाने से शिष्यों को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह ब्रह्मरूप हो जाता है, शिष्य के समस्त धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा एकमात्र चैतन्य बच रहता है। वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है, जो उसकी अंतिम गति है। यही आत्मा का परमधाम है और इसी को मोक्ष नाम से जाना पहचाना जाता है। शिष्य इस स्थिति को पाकर परम शांति को प्राप्त करता है। स्कन्द पुराण के उत्तर खंड का अंग है 'गुरु गीता' जो भगवान शिव और माता पार्वती के संवाद के रूप में वर्णित है। आदि गुरु भगवान शिव स्वयं ज्ञान स्वरूप हैं और सद्गुरु महिमा को प्रकट करने के अधिकारी माने गए हैं। गुरु गीता में भगवान शिव ने एक स्थान पर कहा है - 'मोक्ष की आकांक्षा करने वालों को गुरु भक्ति खूब करनी चाहिए, क्योंकि गुरुदेव के द्वारा ही परम मोक्ष की प्राप्ति होती है।'
मोक्ष का अर्थ है, आवागमन से मुक्ति, प्रभु चरणों में स्थाई वास, जन्म मरण से हमेशा के लिए छुट्टी। परंतु मोक्ष का एक व्यावहारिक अर्थ - मोह का क्षय हो जाना भी है। संसार में मोह को समस्त संकटों का मूल कारण निरूपित किया गया है। जगतगुरु कहे जाने वाले योगेश्वर श्रीकृष्ण का एक बहुत बड़ा संदेश है - 'प्रेम सबसे करो लेकिन मोह किसी से न करो'। यह संदेश मोह से दूर रहने की प्रेरणा देता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि भगवान सदाशिव का आदेश यह मानकर की मोक्ष चाहने वालों को गुरु चरणों में जाना चाहिए, क्या सचमुच मोक्ष दिला सकता है। जैसा कि पहले कहा, मोक्ष का अर्थ मोह क्षय हो जाना भी है, परंतु आजकल स्वयं को गुरु कहलाकर, सद्गुरु कहलवाकर आनंदित होने वाले तथाकथित गुरु क्या स्वयं मोह से मुक्त हैं? उत्तर है - 'नहीं'। कलियुग में विरले ही गुरु होंगे जो मोह माया से दूर रहकर प्रभु की भक्ति और मानव का कल्याण करने में व्यस्त हैं। अन्यथा तमाम तथाकथित गुरु मोह के दलदल में फंसे हैं। ऐसे गुरुओं को मोह है धन से, मोह है संपत्ति से, मोह है स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने से, मोह है अधिक से अधिक शिष्य बनाने से और वह स्वयं को गुरु नहीं, गुरुवर नहीं बल्कि सद्गुरु कहलवाने से। जो लोग गुरु होने और कहलाने की योग्यता नहीं रखते हैं, जिन्हें गुरु का सच्चा रूप ज्ञान नहीं है, जो सद्गुरु के दिव्य गुणों से अपरिचित हैं, वे किसी को मोक्ष कैसे प्रदान कर सकते हैं। भला अज्ञान का अंधकार किसी के जीवन को ज्ञान के उजाले से कैसे प्रकाशमान कर सकता है। गुरु का शाब्दिक अर्थ है, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला, परंतु कलियुगी गुरु तो प्रकाश से अंधकार की ओर ले जाने में व्यस्त हैं। अपवाद भी होंगे, अपवाद भी हैं, लेकिन उन महापुरुषों की संख्या बहुत कम है।
जो गुरु स्वयं अपूर्ण है, वह शिष्यों को क्या पुण्य की प्राप्ति कराएगा, जो गुरु, भगवान की भक्ति न कराकर उनसे अपनी भक्ति कराता है, भगवान की पूजा न करवाकर स्वयं को पुजवाता है, ऐसा गुरु शिष्य को भगवान से कैसे मिलवा पाएगा - यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर लोग जानना चाहते हैं। गुरु के बारे में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्रदान करने वाली 'गुरुगीता' जहां गुरु को ही साक्षात शिव, विष्णु और ब्रह्मा घोषित करती है, वहीं यह भी आदेश देती है कि ज्ञान रहित विद्या बोलने वाले और दिखावा करने वाले गुरु का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि जो अपनी ही शांति नहीं पाना जानता वह दूसरों को क्या शांति दे सकेगा।
'गुरुगीता' आगे कहती है - 'पाखंडी, पाप में रत, भेद बुद्धि उत्पन्न करने वाले, स्त्री लंपट, बगुले की तरह ठगने वाले, कर्म भ्रष्ट, क्षमा रहित, कामी, क्रोधी, हिंसक, शठ तथा अज्ञानी पुरुष को गुरु नहीं बनाना चाहिए। यहां तक कि जो गुरु अपने दिखावे से शिष्यों को भ्रांति में डालता है, ऐसे गुरु को प्रणाम भी नहीं करना चाहिए।
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विनय संकोची
गुरु की शरण में जाने से शिष्यों को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह ब्रह्मरूप हो जाता है, शिष्य के समस्त धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा एकमात्र चैतन्य बच रहता है। वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है, जो उसकी अंतिम गति है। यही आत्मा का परमधाम है और इसी को मोक्ष नाम से जाना पहचाना जाता है। शिष्य इस स्थिति को पाकर परम शांति को प्राप्त करता है। स्कन्द पुराण के उत्तर खंड का अंग है 'गुरु गीता' जो भगवान शिव और माता पार्वती के संवाद के रूप में वर्णित है। आदि गुरु भगवान शिव स्वयं ज्ञान स्वरूप हैं और सद्गुरु महिमा को प्रकट करने के अधिकारी माने गए हैं। गुरु गीता में भगवान शिव ने एक स्थान पर कहा है - 'मोक्ष की आकांक्षा करने वालों को गुरु भक्ति खूब करनी चाहिए, क्योंकि गुरुदेव के द्वारा ही परम मोक्ष की प्राप्ति होती है।'
मोक्ष का अर्थ है, आवागमन से मुक्ति, प्रभु चरणों में स्थाई वास, जन्म मरण से हमेशा के लिए छुट्टी। परंतु मोक्ष का एक व्यावहारिक अर्थ - मोह का क्षय हो जाना भी है। संसार में मोह को समस्त संकटों का मूल कारण निरूपित किया गया है। जगतगुरु कहे जाने वाले योगेश्वर श्रीकृष्ण का एक बहुत बड़ा संदेश है - 'प्रेम सबसे करो लेकिन मोह किसी से न करो'। यह संदेश मोह से दूर रहने की प्रेरणा देता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि भगवान सदाशिव का आदेश यह मानकर की मोक्ष चाहने वालों को गुरु चरणों में जाना चाहिए, क्या सचमुच मोक्ष दिला सकता है। जैसा कि पहले कहा, मोक्ष का अर्थ मोह क्षय हो जाना भी है, परंतु आजकल स्वयं को गुरु कहलाकर, सद्गुरु कहलवाकर आनंदित होने वाले तथाकथित गुरु क्या स्वयं मोह से मुक्त हैं? उत्तर है - 'नहीं'। कलियुग में विरले ही गुरु होंगे जो मोह माया से दूर रहकर प्रभु की भक्ति और मानव का कल्याण करने में व्यस्त हैं। अन्यथा तमाम तथाकथित गुरु मोह के दलदल में फंसे हैं। ऐसे गुरुओं को मोह है धन से, मोह है संपत्ति से, मोह है स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने से, मोह है अधिक से अधिक शिष्य बनाने से और वह स्वयं को गुरु नहीं, गुरुवर नहीं बल्कि सद्गुरु कहलवाने से। जो लोग गुरु होने और कहलाने की योग्यता नहीं रखते हैं, जिन्हें गुरु का सच्चा रूप ज्ञान नहीं है, जो सद्गुरु के दिव्य गुणों से अपरिचित हैं, वे किसी को मोक्ष कैसे प्रदान कर सकते हैं। भला अज्ञान का अंधकार किसी के जीवन को ज्ञान के उजाले से कैसे प्रकाशमान कर सकता है। गुरु का शाब्दिक अर्थ है, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला, परंतु कलियुगी गुरु तो प्रकाश से अंधकार की ओर ले जाने में व्यस्त हैं। अपवाद भी होंगे, अपवाद भी हैं, लेकिन उन महापुरुषों की संख्या बहुत कम है।
जो गुरु स्वयं अपूर्ण है, वह शिष्यों को क्या पुण्य की प्राप्ति कराएगा, जो गुरु, भगवान की भक्ति न कराकर उनसे अपनी भक्ति कराता है, भगवान की पूजा न करवाकर स्वयं को पुजवाता है, ऐसा गुरु शिष्य को भगवान से कैसे मिलवा पाएगा - यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर लोग जानना चाहते हैं। गुरु के बारे में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्रदान करने वाली 'गुरुगीता' जहां गुरु को ही साक्षात शिव, विष्णु और ब्रह्मा घोषित करती है, वहीं यह भी आदेश देती है कि ज्ञान रहित विद्या बोलने वाले और दिखावा करने वाले गुरु का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि जो अपनी ही शांति नहीं पाना जानता वह दूसरों को क्या शांति दे सकेगा।
'गुरुगीता' आगे कहती है - 'पाखंडी, पाप में रत, भेद बुद्धि उत्पन्न करने वाले, स्त्री लंपट, बगुले की तरह ठगने वाले, कर्म भ्रष्ट, क्षमा रहित, कामी, क्रोधी, हिंसक, शठ तथा अज्ञानी पुरुष को गुरु नहीं बनाना चाहिए। यहां तक कि जो गुरु अपने दिखावे से शिष्यों को भ्रांति में डालता है, ऐसे गुरु को प्रणाम भी नहीं करना चाहिए।
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