धर्म - अध्यात्म : गुरु को सिर पर राखिये...!

Spritual 1
locationभारत
userचेतना मंच
calendar30 Nov 2025 04:44 PM
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 विनय संकोची

गुरु की शरण में जाने से शिष्यों को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह ब्रह्मरूप हो जाता है, शिष्य के समस्त धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा एकमात्र चैतन्य बच रहता है। वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है, जो उसकी अंतिम गति है। यही आत्मा का परमधाम है और इसी को मोक्ष नाम से जाना पहचाना जाता है। शिष्य इस स्थिति को पाकर परम शांति को प्राप्त करता है। स्कन्द पुराण के उत्तर खंड का अंग है 'गुरु गीता' जो भगवान शिव और माता पार्वती के संवाद के रूप में वर्णित है। आदि गुरु भगवान शिव स्वयं ज्ञान स्वरूप हैं और सद्गुरु महिमा को प्रकट करने के अधिकारी माने गए हैं। गुरु गीता में भगवान शिव ने एक स्थान पर कहा है - 'मोक्ष की आकांक्षा करने वालों को गुरु भक्ति खूब करनी चाहिए, क्योंकि गुरुदेव के द्वारा ही परम मोक्ष की प्राप्ति होती है।'

मोक्ष का अर्थ है, आवागमन से मुक्ति, प्रभु चरणों में स्थाई वास, जन्म मरण से हमेशा के लिए छुट्टी। परंतु मोक्ष का एक व्यावहारिक अर्थ - मोह का क्षय हो जाना भी है। संसार में मोह को समस्त संकटों का मूल कारण निरूपित किया गया है। जगतगुरु कहे जाने वाले योगेश्वर श्रीकृष्ण का एक बहुत बड़ा संदेश है - 'प्रेम सबसे करो लेकिन मोह किसी से न करो'। यह संदेश मोह से दूर रहने की प्रेरणा देता है।

अब प्रश्न यह उठता है कि भगवान सदाशिव का आदेश यह मानकर की मोक्ष चाहने वालों को गुरु चरणों में जाना चाहिए, क्या सचमुच मोक्ष दिला सकता है। जैसा कि पहले कहा, मोक्ष का अर्थ मोह क्षय हो जाना भी है, परंतु आजकल स्वयं को गुरु कहलाकर, सद्गुरु कहलवाकर आनंदित होने वाले तथाकथित गुरु क्या स्वयं मोह से मुक्त हैं? उत्तर है - 'नहीं'। कलियुग में विरले ही गुरु होंगे जो मोह माया से दूर रहकर प्रभु की भक्ति और मानव का कल्याण करने में व्यस्त हैं। अन्यथा तमाम तथाकथित गुरु मोह के दलदल में फंसे हैं। ऐसे गुरुओं को मोह है धन से, मोह है संपत्ति से, मोह है स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने से, मोह है अधिक से अधिक शिष्य बनाने से और वह स्वयं को गुरु नहीं, गुरुवर नहीं बल्कि सद्गुरु कहलवाने से। जो लोग गुरु होने और कहलाने की योग्यता नहीं रखते हैं, जिन्हें गुरु का सच्चा रूप ज्ञान नहीं है, जो सद्गुरु के दिव्य गुणों से अपरिचित हैं, वे किसी को मोक्ष कैसे प्रदान कर सकते हैं। भला अज्ञान का अंधकार किसी के जीवन को ज्ञान के उजाले से कैसे प्रकाशमान कर सकता है। गुरु का शाब्दिक अर्थ है, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला, परंतु कलियुगी गुरु तो प्रकाश से अंधकार की ओर ले जाने में व्यस्त हैं। अपवाद भी होंगे, अपवाद भी हैं, लेकिन उन महापुरुषों की संख्या बहुत कम है।

जो गुरु स्वयं अपूर्ण है, वह शिष्यों को क्या पुण्य की प्राप्ति कराएगा, जो गुरु, भगवान की भक्ति न कराकर उनसे अपनी भक्ति कराता है, भगवान की पूजा न करवाकर स्वयं को पुजवाता है, ऐसा गुरु शिष्य को भगवान से कैसे मिलवा पाएगा - यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर लोग जानना चाहते हैं। गुरु के बारे में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्रदान करने वाली 'गुरुगीता' जहां गुरु को ही साक्षात शिव, विष्णु और ब्रह्मा घोषित करती है, वहीं यह भी आदेश देती है कि ज्ञान रहित विद्या बोलने वाले और दिखावा करने वाले गुरु का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि जो अपनी ही शांति नहीं पाना जानता वह दूसरों को क्या शांति दे सकेगा।

'गुरुगीता' आगे कहती है - 'पाखंडी, पाप में रत, भेद बुद्धि उत्पन्न करने वाले, स्त्री लंपट, बगुले की तरह ठगने वाले, कर्म भ्रष्ट, क्षमा रहित, कामी, क्रोधी, हिंसक, शठ तथा अज्ञानी पुरुष को गुरु नहीं बनाना चाहिए। यहां तक कि जो गुरु अपने दिखावे से शिष्यों को भ्रांति में डालता है, ऐसे गुरु को प्रणाम भी नहीं करना चाहिए।

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नि:संकोच : सच वही जो राजा को भाये!

Satymav Jayte
locationभारत
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calendar30 Nov 2025 12:32 AM
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 विनय संकोची

शास्त्र कथन है - 'सत्यमेव जयते'! हमेशा सत्य की विजय होती है, लेकिन सत्य की जय तभी हो सकती है, जब सत्य उजागर हो। सत्य जब सामने आएगा ही नहीं तो विजय असत्य की होगी और यही हो रहा है। अगर आप सच्चे हैं, तो आपके मन में कोई भय किसी सत्य के उजागर होने का नहीं होगा। शर्त यही है कि आप सच्चे हों, यदि आप सच्चे नहीं हैं तो आप सच का सामना करने से कतराएंगे, भयभीत रहेंगे और इसी के साथ साम, दाम, दंड और भेद का इस्तेमाल कर सत्य को दबाने का भरपूर प्रयास करेंगे। यदि आपके पास ताकत है, तो आप अपने इस अभियान में सफल भी जरूर हो जाएंगे। दरअसल जो सत्ता है - आदिकाल से उसका स्वभाव, उसकी मानसिकता उस सत्य को ही उजागर होने की अनुमति देती है, जो उसके हित में हो, उसकी स्वार्थ पूर्ति और उसके अहंकार तुष्टि में बाधक न हो। सत्ता उसी को सत्य मानती है, जिसे वह स्वयं सत्य के रूप में स्वीकार कर पाने का साहस जुटा पाती है। बाकी तो बड़े से बड़ा सच भी उसे कचोटता है और मनमाफिक झूठ उसे भीतर तक आनंदित करता है, आज भी यही हो रहा है।

जब राजाओं का जमाना था, उस समय सभी राजाओं के दरबारों में ऐसे कवि, ऐसे भांड होते थे जो अपने अन्नदाता की प्रशंसा में गीत घड़ते थे, तारीफ में गीत गाते थे। सत्य बोलने लिखने वालों को राज दरबारों में भी जगह नहीं मिलती थी। अपवाद तो हर स्थिति - परिस्थिति में सदैव उपलब्ध रहते ही हैं। अन्नदाता राजा को अपनी बुराई यानी कि सच सुनने की आदत ही नहीं होती थी, तो कवियों को झूठ लिखना और भांडों को झूठ गाना पड़ता था। मुझे व्यक्तिगत रूप से ऐसा लगता है कि इस 'असत्य पोषण प्रथा' के चलते राजाओं का इतिहास भी सच्चा नहीं लिखा गया होगा, लिखा जा ही नहीं सकता है। शायद आज भी ऐसा ही हो रहा है, नहीं क्या?

अब जमाना बहुत बदल गया है। राजाओं की निंदा करने वालों को जेलों में सड़ना पड़ता था, सूली पर टंगना पड़ता था। न्यायप्रिय राजा भी झूठ और चाटुकारों से घिरे होने के चलते, निर्दोष को भी दंड देने का पाप कर बैठते थे। जो सच बोलने वाला चाटुकारों का प्रिय नहीं होता था, वे लंपट उसे राजा का द्रोही बनाकर प्रस्तुत कर दिया करते थे और इस तरह सत्य का गला घोट दिया जाता था। ऐसे दरबारी - षड्यंत्र इतिहास का हिस्सा रहे हैं आज भी कुछ ज्यादा बदला नहीं है।

अब राजशाही नहीं है लेकिन सत्ता के शिखर पर बैठा व्यक्ति, स्वयं को राजा से कम नहीं समझता है। अब लोकतंत्र है और सत्ता पर काबिज व्यक्ति को जनता ही चुनकर भेजती है जनप्रतिनिधि और जन सेवक के रूप में, परंतु सत्तासीन नेता जनता को अपनी प्रजा, अपनी रियाया मानता है और उसके साथ वैसा ही व्यवहार करता है। सत्ता के शिखर पुरुष प्रजा को केवल उस सत्य से ही रूबरू होते हुए देखना चाहता है, जो सत्य उसकी छवि एक महान न्याय प्रिय विकास पुरुष के रूप में स्थापित कर सकता हो और इस तरह के असत्य को सत्य के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए यदि कुछ सच्ची आवाजों को दबाना पड़े तो सत्ता पुरुष इसे कतई गलत नहीं मानता है। 'राजाजी' की प्रजा को सच देखने सुनने का अधिकार भी नहीं मिलता है क्योंकि सच बोलने और दिखाने वालों को 'राजाजी' पसंद नहीं करते हैं। दरबारी भांड भी चाहते हैं, प्रजा वही देखे जो 'राजाजी' की शान के खिलाफ न हो। समय बदल जाता है, लेकिन शासक का सोच आदिकाल से एक जैसा ही चला आ रहा है - 'सच वही जो राजा को भाये, असली सच भाड़ में जाये।' अपवाद से इंकार नहीं।

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जयंती : क्रांति सूर्य बिरसा मुंडा को आदिवासी मानते हैं भगवान!

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locationभारत
userचेतना मंच
calendar15 Nov 2021 04:46 AM
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'मुंडा-आंदोलन' के प्रणेता और अपने क्रांतिकारी चिंतन से 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात करने वाले आदिवासियों के महानायक बिरसा मुंडा की आज जयंती है। उनका जन्म झारखंड के आदिवासी दंपति सुगना और करमी के घर 15 नवंबर 2875 में हुआ था।

जिस समय आदिवासी समाज अंधविश्वासों की आंधी में उड़ रहा था, आस्था के मामले में भटक रहा था और सामाजिक कुरीतियों के जंजाल में फंसा ज्ञान के प्रकाश तक नहीं पहुंच पा रहा था, उस समय बिरसा मुंडा ने चेतना का उद्घोष किया। उन्होंने आदिवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया, शिक्षा का महत्व समझाया, सहयोग और सहकार का मार्ग दिखाया। भोले आदिवासियों को अंधविश्वास के ढकोसलों में धकेलने वाले पाखंडी झाड़-फूंक करने वालों का काम ठप होने से वे बौखला गए, आदिवासियों में जागरण से जमीदार-साहूकार और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार भी बिरसा मुंडा के खिलाफ हो गए और उनके विरुद्ध षड्यंत्र प्रारंभ कर दिए।

बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना जागृत कर दी तो आदिवासी आर्थिक शोषण के खिलाफ एकजुट हो आवाज उठाने लगे। बिरसा मुंडा ने उनका नेतृत्व किया। आदिवासियों ने उस समय प्रचलित 'बेगार प्रथा' के विरुद्ध जोरदार आंदोलन किया, जिसके परिणाम स्वरूप जमीदारों के घरों और खेतों में काम ठप हो गया। इसी सबके बीच बिरसा मुंडा ने राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित किया। आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हो गए।

मुंडा आदिवासियों ने 18वीं सदी से लेकर 20वीं सदी तक कई बार अंग्रेजी हुकूमत और भारतीय शासकों व जमीदारों के विरुद्ध विद्रोह किए। उनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण जनजातीय आंदोलनों में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 19वीं सदी के अंतिम दशक में किया गया 'मुंडा विद्रोह' को ही माना जाता है।

24 दिसंबर 1899 को बिरसापंथियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध बाकायदा युद्ध छेड़ दिया। 5 जनवरी 1900 तक पूरे मंडा अंचल में विद्रोह की चिंगारियां फैल गईं। ब्रिटिश फौज ने आंदोलन का दमन प्रारंभ कर दिया।

बिरसा मुंडा काफी समय तक तो पुलिस की पकड़ में नहीं आए, लेकिन एक गद्दार की वजह से 3 मार्च 1900 को गिरफ्तार हो गए। लगातार जंगलों में भटकने के कारण बिरसा का शरीर बहुत कमजोर हो गया था। जेल में उन्हें हैजा हो गया और 9 जनवरी 1900 को रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई। बिरसा सच ही कहते थे - 'आदमी को मारा जा सकता है, उसके विचारों को नहीं।' बिरसा के विचार मुंडा और पूरी आदिवासी कौम को संघर्ष की राह दिखाते रहे। बहुत बड़ी संख्या में आदिवासी बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा भी देते हैं। बिरसा अमर हैं और उनका नाम हिंदुस्तान के महान देशभक्तों की सूची में दर्ज है।