धर्म - अध्यात्म : बड़ा ही दुर्लभ है परमात्मा के प्रेम में जाग जाना!

विनय संकोची
आज मनुष्य अज्ञानता के अंधेरे में इस तरह भटक गया है कि सत्य-असत्य, ज्ञान-अज्ञान, अच्छे-बुरे और अंधेरे-उजाले में पहचान करने का समय उसके पास नहीं है। मानव सांसारिक बाधाओं में इस तरह उलझ रहा है कि उसके जीवन में शांति और सौहार्द लगभग विदा से हो गए हैं। यूं तो कहने के लिए हर वक्त हर कोई शांति की ही बात कर रहा है, लेकिन शांति कहीं दिखाई नहीं दे रही, क्योंकि शांत होना बड़ी ही विलक्षण घटना है और इसका संबंध भीतर से है। जब-जब मनुष्य अपने को अंधकार में पाता है, तब-तब वह अशांति के भंवर में चला जाता है। उसमें से वह तब तक नहीं निकल पाता, जब तक उसका वह अंधेरा मिट नहीं जाता है।
वास्तविक अंधकार भी भीतर का है और वास्तविक दिव्य प्रकाश भी भीतर ही घटता है। जब हम कहते हैं - 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' तो वह किसी वाह्य प्रकाश की बात नहीं है। जीवन संसार से जुड़ा है और संसार जीवन से जुड़ा है। एक दूसरे का अस्तित्व एक एक दूसरे के साथ है। अलग-अलग नहीं। जीवन है, तो संसार भी है। इसीलिए जीवन पर सांसारिक छाया का पड़ना स्वाभाविक ही है। परंतु जब अंदर प्रकाश फूटता है तो सांसारिक अंधकार भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है और अंतर की ज्योति सदैव हमारे चित्त को प्रकाशित करती रहती है। अंतर की इस व्यवस्था को जागरण कहते हैं।
हमारी परंपरा सनातनता की प्रतीक है। मानवता का पाठ पढ़ाने के लिए किसी नए पंथ और संप्रदाय की नींव रखने की आवश्यकता नहीं है। हमारे धर्म ग्रंथों और शास्त्रों में वह सब मौजूद है जो इंसान को उसका अस्तित्व बताने और जताने के लिए पर्याप्त है। समाज को स्वस्थ शक्तिमान एवं संपूर्ण बनाने के लिए हमें अपने धर्म ग्रंथों में प्रतिपादित दर्शन की पुनर्स्थापना करनी होगी। उन्हें मनुष्य के जीवन में उतारना होगा उसके अनुरूप ही जीवन बनाना होगा। तब कहीं जाकर स्वयं की अनुभूति हो सकेगी, हम सत्य के निकट पहुंच सकेंगे, यही मात्र उपाय है मानवता और नैतिकता के पुनर्जागरण का।
सत्य की अनुभूति तब होगी, जब भीतर बाहर एक ही स्वर चले, एक ही संगीत बजे, एक ही सुगंध उठे। शरीर से किया गया हर पूजा-पाठ, जप-तप अंतर्मन की हिलोर से हो, हम जड़ से चेतन की यात्रा करें, स्थूल से सूक्ष्म का मार्ग ढूंढें, सीमित से निकलकर असीमित हों, क्योंकि जलने वाली आग भी अंतस में है और जलाने वाली लकड़ियां भी।
सत्य को पा लेना या परमात्मा के प्रेम में जाग जाना बड़ा ही दुर्लभ कार्य है। इस राह पर करोड़ों लोग चलते हैं पर कोई इक्का-दुक्का बुद्ध पुरुष ही अपनी मंजिल तय कर पाता है। कारण साफ है कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, मन से नहीं, प्राणों से नहीं, आत्मा से नहीं। मंदिर भी जाते हैं, मस्जिद में जाते हैं, चर्च भी जाते हैं, गुरुद्वारे भी जाते हैं, तीर्थ भी जाते हैं, पर हर जगह शरीर से, मन से नहीं, आत्मा से नहीं। आध्यात्मिक प्रवचन स्थलों पर भी पहुंच कर कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि हम कोई गहन चिंतन नहीं करते, दूसरे की पीड़ाओं पर मंथन नहीं करते।
मानव परमात्मा का अमृत पुत्र है। मानव आत्मा के रूप में परमात्मा का अंश है। एक शरीर से दूसरे शरीर में आत्मा का आवागमन जीवन की अनवरतता एवं अमरता का द्योतक है। आत्मा किस योनि में जाती है, यह मनुष्य के कर्मों पर निर्भर है। महापुरुषों ने इस ज्ञान को आत्मसात कर मनुष्य में परमात्मा के प्रति भक्ति जगाने के लिए उसे मनुष्य बनाने के महत्व को समझा और जन्म से लेकर मृत्यु तक पहले से अंतिम सांस तक उसे उसके कर्तव्य के प्रति आगाह किया।
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विनय संकोची
आज मनुष्य अज्ञानता के अंधेरे में इस तरह भटक गया है कि सत्य-असत्य, ज्ञान-अज्ञान, अच्छे-बुरे और अंधेरे-उजाले में पहचान करने का समय उसके पास नहीं है। मानव सांसारिक बाधाओं में इस तरह उलझ रहा है कि उसके जीवन में शांति और सौहार्द लगभग विदा से हो गए हैं। यूं तो कहने के लिए हर वक्त हर कोई शांति की ही बात कर रहा है, लेकिन शांति कहीं दिखाई नहीं दे रही, क्योंकि शांत होना बड़ी ही विलक्षण घटना है और इसका संबंध भीतर से है। जब-जब मनुष्य अपने को अंधकार में पाता है, तब-तब वह अशांति के भंवर में चला जाता है। उसमें से वह तब तक नहीं निकल पाता, जब तक उसका वह अंधेरा मिट नहीं जाता है।
वास्तविक अंधकार भी भीतर का है और वास्तविक दिव्य प्रकाश भी भीतर ही घटता है। जब हम कहते हैं - 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' तो वह किसी वाह्य प्रकाश की बात नहीं है। जीवन संसार से जुड़ा है और संसार जीवन से जुड़ा है। एक दूसरे का अस्तित्व एक एक दूसरे के साथ है। अलग-अलग नहीं। जीवन है, तो संसार भी है। इसीलिए जीवन पर सांसारिक छाया का पड़ना स्वाभाविक ही है। परंतु जब अंदर प्रकाश फूटता है तो सांसारिक अंधकार भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है और अंतर की ज्योति सदैव हमारे चित्त को प्रकाशित करती रहती है। अंतर की इस व्यवस्था को जागरण कहते हैं।
हमारी परंपरा सनातनता की प्रतीक है। मानवता का पाठ पढ़ाने के लिए किसी नए पंथ और संप्रदाय की नींव रखने की आवश्यकता नहीं है। हमारे धर्म ग्रंथों और शास्त्रों में वह सब मौजूद है जो इंसान को उसका अस्तित्व बताने और जताने के लिए पर्याप्त है। समाज को स्वस्थ शक्तिमान एवं संपूर्ण बनाने के लिए हमें अपने धर्म ग्रंथों में प्रतिपादित दर्शन की पुनर्स्थापना करनी होगी। उन्हें मनुष्य के जीवन में उतारना होगा उसके अनुरूप ही जीवन बनाना होगा। तब कहीं जाकर स्वयं की अनुभूति हो सकेगी, हम सत्य के निकट पहुंच सकेंगे, यही मात्र उपाय है मानवता और नैतिकता के पुनर्जागरण का।
सत्य की अनुभूति तब होगी, जब भीतर बाहर एक ही स्वर चले, एक ही संगीत बजे, एक ही सुगंध उठे। शरीर से किया गया हर पूजा-पाठ, जप-तप अंतर्मन की हिलोर से हो, हम जड़ से चेतन की यात्रा करें, स्थूल से सूक्ष्म का मार्ग ढूंढें, सीमित से निकलकर असीमित हों, क्योंकि जलने वाली आग भी अंतस में है और जलाने वाली लकड़ियां भी।
सत्य को पा लेना या परमात्मा के प्रेम में जाग जाना बड़ा ही दुर्लभ कार्य है। इस राह पर करोड़ों लोग चलते हैं पर कोई इक्का-दुक्का बुद्ध पुरुष ही अपनी मंजिल तय कर पाता है। कारण साफ है कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, मन से नहीं, प्राणों से नहीं, आत्मा से नहीं। मंदिर भी जाते हैं, मस्जिद में जाते हैं, चर्च भी जाते हैं, गुरुद्वारे भी जाते हैं, तीर्थ भी जाते हैं, पर हर जगह शरीर से, मन से नहीं, आत्मा से नहीं। आध्यात्मिक प्रवचन स्थलों पर भी पहुंच कर कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि हम कोई गहन चिंतन नहीं करते, दूसरे की पीड़ाओं पर मंथन नहीं करते।
मानव परमात्मा का अमृत पुत्र है। मानव आत्मा के रूप में परमात्मा का अंश है। एक शरीर से दूसरे शरीर में आत्मा का आवागमन जीवन की अनवरतता एवं अमरता का द्योतक है। आत्मा किस योनि में जाती है, यह मनुष्य के कर्मों पर निर्भर है। महापुरुषों ने इस ज्ञान को आत्मसात कर मनुष्य में परमात्मा के प्रति भक्ति जगाने के लिए उसे मनुष्य बनाने के महत्व को समझा और जन्म से लेकर मृत्यु तक पहले से अंतिम सांस तक उसे उसके कर्तव्य के प्रति आगाह किया।
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