Dharam Karma : वेद वाणी

Rigveda 1
locationभारत
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calendar29 Nov 2025 05:09 AM
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Sanskrit : शमू षु वां मधूयुवास्माकमस्तु चर्कृतिः। अर्वाचीना विचेतसा विभिः श्येनेव दीयतम्॥ ऋग्वेद ५-७४-९॥

Hindi : हे अश्विनों! आप की गति और दिशा का प्रकाश हमें भी प्राप्त हो। जिस प्रकार एक बाज़ अपनी गति और दिशा को विपरीत वायु के बाहव होने पर भी नहीं छोड़ता ऐसी क्षमता हमें भी प्रदान करें। (ऋग्वेद ५-७४-९) #vedgsawana

English : O Ashwins ! May we also get the light of your speed and direction. Just as an eagle does not give up its speed and direction, even when the opposite wind is blowing, give us such capability too. (Rig Veda 5-74-9) #vedgsawana

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Sanskrit : शमू षु वां मधूयुवास्माकमस्तु चर्कृतिः। अर्वाचीना विचेतसा विभिः श्येनेव दीयतम्॥ ऋग्वेद ५-७४-९॥

Hindi : हे अश्विनों! आप की गति और दिशा का प्रकाश हमें भी प्राप्त हो। जिस प्रकार एक बाज़ अपनी गति और दिशा को विपरीत वायु के बाहव होने पर भी नहीं छोड़ता ऐसी क्षमता हमें भी प्रदान करें। (ऋग्वेद ५-७४-९) #vedgsawana

English : O Ashwins ! May we also get the light of your speed and direction. Just as an eagle does not give up its speed and direction, even when the opposite wind is blowing, give us such capability too. (Rig Veda 5-74-9) #vedgsawana

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धर्म-अध्यात्म : स्नान को 'धर्म' ही मानें

Gang Sanan
locationभारत
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calendar27 Oct 2021 04:46 AM
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विनय संकोची

हमारे तपोमूर्ति ऋषि - महर्षियों ने लाखों वर्ष पूर्व जल और स्नान के महत्व को प्रतिपादित किया था। प्रत्येक कार्य के आरंभ में जल स्नान, जल आचमन और जल पूजन की प्रणाली प्रचलित कर इसे धार्मिक परंपरा का अभिन्न अंग हमारे महान ऋषियों ने बना दिया। योगी याज्ञवल्क्य के अनुसार - 'वेद स्मृति में कहे गए समस्त कार्य स्नान मूलक हैं, अतएव लक्ष्मी, पुष्टि और आरोग्य की वृद्धि चाहने वाले मनुष्य को स्नान सदैव ही करना चाहिए।'

याज्ञवल्क्य का ही कथन है कि रूप, तेज, बल, पवित्रता, आयु, आरोग्य, विर्लोमता, दुश्मन का नाश, यश और मेधा ये दस गुण स्नान करने वालों को प्राप्त होते हैं। स्नान का तात्पर्य शारीरिक शुद्धि से है। मानव त्वचा में असंख्य लघु रंध्र होते हैं। इन छिद्रों से भीतर का मल पसीने के रूप में बाहर निकलता है। पसीने का द्रव वाष्प बनकर उड़ जाता है, किंतु मैल इन छिद्रों में जम जाता है। यदि इस मैल को नित्य प्रति साफ ने किया जाए, तो कुछ दिनों में इसकी परत मोटी हो जाती है, जिससे अनेक रोग उत्पन्न होने की आशंका बनी रहती है। इसीलिए रोगों से बचने के लिए नित्य स्नान आवश्यक है और यही स्नान का प्रथम उद्देश्य भी है।

स्नान का दूसरा उद्देश्य पंच महाभूतों से बनी देह को अपेक्षित जलीय अंश की आपूर्ति करना भी है। हमारे शरीर में विद्यमान जल शारीरिक ऊष्मा से सूख जाता है, रोम रोम में फूट पड़ने वाले जल के अभाव से उत्पन्न ऊष्मा को स्नान के द्वारा शांत किया जाता है। सत्य तो यह है कि स्नान से हमारे प्राणों की तृप्ति होती है, स्फूर्ति और चैतन्यता का उदय होता है, आलस्य मिट जाता है।

शास्त्रों ने स्नान की उचित विधि भी बताई है। स्नान के समय शरीर पर साधारण वस्त्र होना चाहिए। जल लेकर सर्वप्रथम सिर को भिगोना चाहिए, इसके अनंतर हाथ धोने चाहिएं। पहले सिर पर पानी डालना इसलिए आवश्यक है कि सिर पर जल पड़ने से वहां बढ़ी हुई गर्मी पांवों के रास्ते निकल कर शांत हो जाती है। यदि ऐसा न करके पहले पांव धोए जाएं तो पांवों की गर्मी सिर में चली जाती है, जिससे मस्तिष्क विकार की आशंका रहती है।

फिर हाथ मुंह धोने के बाद पूरे शरीर को भिगोकर किसी खुरदुरे कपड़े से अच्छी तरह रगड़ना चाहिए। फिर शरीर पर खूब पानी डालना चाहिए, इससे पानी खुले रोम छिद्रों के रास्ते अंदर जाकर अपेक्षित जल की आपूर्ति कर देगा।

ऋषियों ने स्नान का समय भी निर्धारित किया है। हेमाद्रि के अनुसार अरुण किरणों से युक्त पूर्व दिशा को देखकर स्नान करना चाहिए। दक्ष के अनुसार - प्रातःकाल स्नान करने वाले को दृष्ट देह की स्वच्छता और भूत प्रेत आदि की बाधा शांत होने का अदृष्ट दोनों फल मिल जाते हैं। यज्ञवलक्य का कथन है कि प्रात:काल स्नान करने के बाद मनुष्य शुद्ध होकर पूजा-पाठ आदि समस्त कर्मों के योग्य बन जाता है। नवछिद्र वाले शरीर से दिन-रात मल गिरता रहता है। अतः प्रात:काल स्नान से शरीर की शुद्धि होती है।

किस जल से स्नान करें इस बारे में भी हमारे महान देशों ने मार्गदर्शन किया है। गार्ग्य ऋषि तीर्थों के जल में स्नान का परामर्श देते हैं। मनु ने गर्म जल से स्नान का निषेध किया है। मनु का इस संदर्भ में कथन है - ' संश्रति, शनिवार, सप्तमी, चंद्र - सूर्य ग्रहण में, आरोग्य में और पुत्र एवं मित्र के निमित्त गर्म जल में स्नान न करें। विष्णु स्मृति के अनुसार - बहते हुए जल वाली नदियों में धारा के सामने होकर स्नान करें, किंतु तालाब आदि में सूर्य के सामने खड़े होकर स्नान करना चाहिए।

स्नान स्वतः कोई धर्म नहीं है, किंतु धर्म के साथ इसका गहरा नाता है। यदि स्नान का वास्तविक अर्थ समझे बिना कोई दो-चार लोटे डालकर अपना कर्तव्य तो पूरा कर लेता है, किंतु फिर भी उसका शरीर रोगी ही रहता है। स्नान के समय आस्तिक जनों द्वारा बोले जाने वाला श्लोक - 'गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वती! नर्मदा! सिंधु! कावेरी! जलेस्मिन सन्निधि कुरु' - बड़ा पुण्य फल देने वाला है। नित्य स्नान करें, चेतन रहें, प्रसन्न और निरोगी रहें।