Hindi Kavita – अनजान




Hindi Kahani - प्राचीन काल में अनंगपुर में अर्थदत्त नाम का एक महाधनी व्यापारी रहता था। उसके लड़के का नाम धनदत्त था और लड़की का नाम मदनसेना था। मदनसेना कन्याओं में रत्न के समान थी। एक दिन वह अपनी सखियों के साथ बगीचे में खेल रही थी। तभी
धर्मदत्त नाम के एक वणिकपुत्र की नजर उस पर पड़ गई, जो उसके भाई धनदत्त का मित्र था । उसे देखते ही धर्मदत्त का हृदय कामदेव के बाण-समूहों से छिदकर अचेत-सा हो गया। वह काफी देर तक उसी के खयालों में खोया रहा। इस तरह काफी दिन बीत गए। मदनसेना अपने घर चली गई। उसे वहां न देख पाने के कारण धर्मदत्त का मन व्यथित होने लगा।
तब उसको याद करता हुआ धर्मदत्त अपने घर आ गया और चंद्रमा की किरणों से बिंधकर अपने बिस्तर पर लोटता हुआ पड़ा रहा। उसके मित्रों और सम्बन्धियों ने उससे इस विकलता का कारण पूछा, लेकिन कामरूपी बाण से मूर्च्छित धर्मदत्त कुछ भी न कह सका। रातभर वह सो न सका, बस उसी कन्या की याद में खोया रहा।
सुबह उठकर फिर वह उसी बगीचे में गया। वहां उसने मदनसेना को अकेली देखा, जो अपनी सखी की प्रतीक्षा कर रही थी। उसका आलिंगन करने की इच्छा से वह उसके पास गया और उसके चरणों में झुककर, प्रेम के कोमल वचनों से रिझाने लगा। तब मदनसेना बोली- 'मैं कुमारी हूं, वाग्दता पत्नी भी हूं, अब मैं आपकी नहीं हो सकती, क्योंकि मेरे पिता समुद्रदत्त नामक व्यापारी को मेरा वाग्दान कर चुके हैं। थोड़े ही दिनों में मेरा विवाह होने वाला है। इसलिए आप चुपचाप यहां से चले जाएं।'
यह सुनकर धर्मदत्त बोला-'मेरा चाहे जो भी हो, मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकता।'
धर्मदत्त की ऐसी बात सुनकर मदनसेना इस भय से विकल हो गई कि कहीं यह बल-प्रयोग न करे। उसने कहा- 'आपने अपने प्रेम से मुझे जीत लिया है, किंतु पहले मेरा विवाह हो जाने दीजिए, फिर मैं आपके पास आ जाऊंगी।' यह सुनकर धर्मदत्त ने कहा- 'मैं यह नहीं चाहता कि मेरी प्रिया, मुझसे पहले किसी और की हो चुकी हो, क्योंकि कोई दूसरा जिसका रस ले चुका हो, क्या उस कमल पर भौंरा प्रीति रख सकता है?"
मदनसेना बोली- 'यदि ऐसी बात है, तो मैं विवाह होते ही, पहले आपके पास आऊंगी और तब अपने पति के पास जाऊंगी।' उसके यह कहने पर भी वणिकपुत्र ने बिना पूरे विश्वास के उसे नहीं छोड़ा। उसने शपथ के सहित उसे सत्य वचन से बांध दिया। तब उससे छुटकारा पाकर घबराई हुई वह अपने घर आ गयी। विवाह का समय आने पर, जब उसके विवाह का मंगलकार्य समाप्त हो गया, तब वह पति के घर आई। हंसी-खुशी में दिन बिताकर रात के समय, वह पति के साथ शयन कक्ष में गई। वहां पलंग पर बैठकर भी उसने अपने पति समुद्रदत्त की आलिंगन आदि चेष्टाओं को स्वीकार नहीं किया।
समुद्रदत्त जब उसे अपनी मीठी बातों से रिझाने की चेष्टा करने लगा, तब मदनसेना की आंखों में आंसू भर आए। तब समुद्रदत्त ने मन में सोचा कि निश्चय ही यह मुझे पसंद नहीं करती। यह सोचकर उसने कहा- 'सुन्दरी! यदि मैं तुम्हें पसन्द नहीं हूं, तो मुझे भी तुमसे कोई काम नहीं है। जो तुम्हें प्रिय लगे, तुम उसी के पास चली जाओ।'
यह सुनकर उसने सिर झुका लिया। फिर वह धीरे-धीरे बोली- 'आर्यपुत्र! आप मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, किंतु मुझे आपसे कुछ कहना है। आप उसे सुनें। आप प्रसन्न रहें और मुझे शपथपूर्वक अभयदान दें, जिससे मैं अपनी बात कह सकूं।'
समुद्रदत्त ने उसे वचन दे दिया। तब वह लज्जा, विषाद और भय रहित बोली- 'एक बार जब मैं अपने घर के बगीचे में अकेली खड़ी थीं। तो काम-पीड़ा आतुर होकर मेरे भाई के मित्र धर्मदत्त नामक युवक ने मुझे रोक लिया। जब वह जिद्द पर उतर आया, तब मैंने पिता को कन्यादान का फल मिल सके और निन्दा भी न हो, इस विचार से उसे वचन दिया कि विवाह हो जाने पर पहले मैं आपके पास आऊंगी, तब अपने पति के पास जाऊंगी। अतः आप मुझे इस समय वचन का पालन करने की अनुमति दें। मैं उसके पास जाकर तुरंत ही आपके पास लौट आऊंगी। बचपन से मैंने जिस सत्य का पालन किया, उसको मैं छोड़ नहीं सकती।'
उसकी इन बातों ने समुद्रदत्त को वज्रपात के समान आहत किया, लेकिन वह सत्य से बंधा हुआ था, इसलिए वह क्षण-भर सोचता रहा- 'अन्य पुरुष में आसक्त इस स्त्री को धिक्कार है। यह जाएगी तो अवश्य ही, फिर मैं इसे सत्य से क्यों डिगाऊं? इससे मेरा विवाह हुआ है, इसका आग्रह मुझे क्यों होना चाहिए ?'
यह सोचकर समुद्रदत्त ने उसे जहां जी चाहे जाने की अनुमति दे दी। वह उठी और पति के घर से बाहर निकल गई। मदनसेना अंधेरी रात में अकेली मार्ग में चली जा रही थी, तभी किसी चोर ने दौड़ कर उसका आंचल पकड़ा और रास्ता रोक लिया। चोर ने पूछा- "तुम कौन हो और कहां जा रही हो?"
मदनसेना डरती हुई बोली- ‘तुम्हें इससे क्या ? मुझे छोड़ दो।' चोर बोला- ‘मैं तो चोर हूं। तुम मुझसे कैसे छुटकारा पा सकती हो?' यह सुनकर मदनसेना बोली- 'तब तुम मेरे गहने ले लो।'
चोर बोला- ‘अरी भोली ! इन पत्थरों को लेकर मैं क्या करूंगा ? तुम्हारा मुख चंद्रकांत मणि के समान है, कमर हीरे के समान है, शरीर सोने का-सा है। तुम जगत के आभूषण के समान हो। मैं तुम्हें किसी भी हालत में नहीं छोडूंगा।' चोर की बात सुनकर मदनसेना ने विवश होकर अपना वृत्तांत सुनाने के बाद उस चोर से प्रार्थना करते हुए कहा- 'कुछ देर के लिए मुझे क्षमा करो। तुम यहीं ठहरो, तब तक मैं अपना वचन पूरा करके शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। मैं अपनी इस सच्ची बात का उल्लंघन नहीं करूंगी।'
यह सुनकर चोर ने उसे सच्चाई पर अटल रहने वाली समझा और छोड़ दिया। वह चोर वहीं रुककर उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा। मदनसेना वहां से धर्मदत्त के पास चली गई। धर्मदत्त मदनसेना को चाहता था। उसे इस प्रकार निर्जन में अपने पास आई हुई देखकर उसने सारा वृत्तांत पूछा।। थोड़ी देर तक सोचने के बाद बोला- 'तुम्हारी सच्चाई से में संतुष्ट हूं, लेकिन तुम पराई स्त्री हो। तुमसे मुझे क्या प्रयोजन है? अतः तुम्हें कोई देख ले, इससे पहले तुम जहां से आई हो, वहीं चली जाओ।' इस प्रकार धर्मदत्त ने उसे छोड़ दिया, तब वह उस चोर के पास आई, जो मार्ग में उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। चोर ने उसकी सच्चाई देखकर कहा- 'मैं तुम्हारी सच्चाई से संतुष्ट हूं। मैं तुम्हें छोड़ता हूं। तुम अपने गहनों के साथ अपने घर जाओ। '
इस प्रकार चोर ने भी उसे छोड़ दिया और उसकी सुरक्षा के लिए उसके साथ चल दिया। इस प्रकार वह प्रसन्नतापूर्वक अपने पति के पास आई और अपने शील की रक्षा कर सकी। पति के पूछने पर उसने सारा वृत्तांत उसे बता दिया। पति ने देखा कि उसके मुख की कांति कुम्हलाई नहीं है, शरीर पर संभोग का कोई चिह्न भी नहीं है और उसका मन शुद्ध है, तो उसने मदनसेना को अखण्डित चरित्रवाली, सत्य का पालन करने वाली तथा सती स्त्री मान कर उसका कुलोचित सत्कार किया। फिर समुद्रदत्त उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगा।
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धर्मदत्त नाम के एक वणिकपुत्र की नजर उस पर पड़ गई, जो उसके भाई धनदत्त का मित्र था । उसे देखते ही धर्मदत्त का हृदय कामदेव के बाण-समूहों से छिदकर अचेत-सा हो गया। वह काफी देर तक उसी के खयालों में खोया रहा। इस तरह काफी दिन बीत गए। मदनसेना अपने घर चली गई। उसे वहां न देख पाने के कारण धर्मदत्त का मन व्यथित होने लगा।
तब उसको याद करता हुआ धर्मदत्त अपने घर आ गया और चंद्रमा की किरणों से बिंधकर अपने बिस्तर पर लोटता हुआ पड़ा रहा। उसके मित्रों और सम्बन्धियों ने उससे इस विकलता का कारण पूछा, लेकिन कामरूपी बाण से मूर्च्छित धर्मदत्त कुछ भी न कह सका। रातभर वह सो न सका, बस उसी कन्या की याद में खोया रहा।
सुबह उठकर फिर वह उसी बगीचे में गया। वहां उसने मदनसेना को अकेली देखा, जो अपनी सखी की प्रतीक्षा कर रही थी। उसका आलिंगन करने की इच्छा से वह उसके पास गया और उसके चरणों में झुककर, प्रेम के कोमल वचनों से रिझाने लगा। तब मदनसेना बोली- 'मैं कुमारी हूं, वाग्दता पत्नी भी हूं, अब मैं आपकी नहीं हो सकती, क्योंकि मेरे पिता समुद्रदत्त नामक व्यापारी को मेरा वाग्दान कर चुके हैं। थोड़े ही दिनों में मेरा विवाह होने वाला है। इसलिए आप चुपचाप यहां से चले जाएं।'
यह सुनकर धर्मदत्त बोला-'मेरा चाहे जो भी हो, मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकता।'
धर्मदत्त की ऐसी बात सुनकर मदनसेना इस भय से विकल हो गई कि कहीं यह बल-प्रयोग न करे। उसने कहा- 'आपने अपने प्रेम से मुझे जीत लिया है, किंतु पहले मेरा विवाह हो जाने दीजिए, फिर मैं आपके पास आ जाऊंगी।' यह सुनकर धर्मदत्त ने कहा- 'मैं यह नहीं चाहता कि मेरी प्रिया, मुझसे पहले किसी और की हो चुकी हो, क्योंकि कोई दूसरा जिसका रस ले चुका हो, क्या उस कमल पर भौंरा प्रीति रख सकता है?"
मदनसेना बोली- 'यदि ऐसी बात है, तो मैं विवाह होते ही, पहले आपके पास आऊंगी और तब अपने पति के पास जाऊंगी।' उसके यह कहने पर भी वणिकपुत्र ने बिना पूरे विश्वास के उसे नहीं छोड़ा। उसने शपथ के सहित उसे सत्य वचन से बांध दिया। तब उससे छुटकारा पाकर घबराई हुई वह अपने घर आ गयी। विवाह का समय आने पर, जब उसके विवाह का मंगलकार्य समाप्त हो गया, तब वह पति के घर आई। हंसी-खुशी में दिन बिताकर रात के समय, वह पति के साथ शयन कक्ष में गई। वहां पलंग पर बैठकर भी उसने अपने पति समुद्रदत्त की आलिंगन आदि चेष्टाओं को स्वीकार नहीं किया।
समुद्रदत्त जब उसे अपनी मीठी बातों से रिझाने की चेष्टा करने लगा, तब मदनसेना की आंखों में आंसू भर आए। तब समुद्रदत्त ने मन में सोचा कि निश्चय ही यह मुझे पसंद नहीं करती। यह सोचकर उसने कहा- 'सुन्दरी! यदि मैं तुम्हें पसन्द नहीं हूं, तो मुझे भी तुमसे कोई काम नहीं है। जो तुम्हें प्रिय लगे, तुम उसी के पास चली जाओ।'
यह सुनकर उसने सिर झुका लिया। फिर वह धीरे-धीरे बोली- 'आर्यपुत्र! आप मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, किंतु मुझे आपसे कुछ कहना है। आप उसे सुनें। आप प्रसन्न रहें और मुझे शपथपूर्वक अभयदान दें, जिससे मैं अपनी बात कह सकूं।'
समुद्रदत्त ने उसे वचन दे दिया। तब वह लज्जा, विषाद और भय रहित बोली- 'एक बार जब मैं अपने घर के बगीचे में अकेली खड़ी थीं। तो काम-पीड़ा आतुर होकर मेरे भाई के मित्र धर्मदत्त नामक युवक ने मुझे रोक लिया। जब वह जिद्द पर उतर आया, तब मैंने पिता को कन्यादान का फल मिल सके और निन्दा भी न हो, इस विचार से उसे वचन दिया कि विवाह हो जाने पर पहले मैं आपके पास आऊंगी, तब अपने पति के पास जाऊंगी। अतः आप मुझे इस समय वचन का पालन करने की अनुमति दें। मैं उसके पास जाकर तुरंत ही आपके पास लौट आऊंगी। बचपन से मैंने जिस सत्य का पालन किया, उसको मैं छोड़ नहीं सकती।'
उसकी इन बातों ने समुद्रदत्त को वज्रपात के समान आहत किया, लेकिन वह सत्य से बंधा हुआ था, इसलिए वह क्षण-भर सोचता रहा- 'अन्य पुरुष में आसक्त इस स्त्री को धिक्कार है। यह जाएगी तो अवश्य ही, फिर मैं इसे सत्य से क्यों डिगाऊं? इससे मेरा विवाह हुआ है, इसका आग्रह मुझे क्यों होना चाहिए ?'
यह सोचकर समुद्रदत्त ने उसे जहां जी चाहे जाने की अनुमति दे दी। वह उठी और पति के घर से बाहर निकल गई। मदनसेना अंधेरी रात में अकेली मार्ग में चली जा रही थी, तभी किसी चोर ने दौड़ कर उसका आंचल पकड़ा और रास्ता रोक लिया। चोर ने पूछा- "तुम कौन हो और कहां जा रही हो?"
मदनसेना डरती हुई बोली- ‘तुम्हें इससे क्या ? मुझे छोड़ दो।' चोर बोला- ‘मैं तो चोर हूं। तुम मुझसे कैसे छुटकारा पा सकती हो?' यह सुनकर मदनसेना बोली- 'तब तुम मेरे गहने ले लो।'
चोर बोला- ‘अरी भोली ! इन पत्थरों को लेकर मैं क्या करूंगा ? तुम्हारा मुख चंद्रकांत मणि के समान है, कमर हीरे के समान है, शरीर सोने का-सा है। तुम जगत के आभूषण के समान हो। मैं तुम्हें किसी भी हालत में नहीं छोडूंगा।' चोर की बात सुनकर मदनसेना ने विवश होकर अपना वृत्तांत सुनाने के बाद उस चोर से प्रार्थना करते हुए कहा- 'कुछ देर के लिए मुझे क्षमा करो। तुम यहीं ठहरो, तब तक मैं अपना वचन पूरा करके शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। मैं अपनी इस सच्ची बात का उल्लंघन नहीं करूंगी।'
यह सुनकर चोर ने उसे सच्चाई पर अटल रहने वाली समझा और छोड़ दिया। वह चोर वहीं रुककर उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा। मदनसेना वहां से धर्मदत्त के पास चली गई। धर्मदत्त मदनसेना को चाहता था। उसे इस प्रकार निर्जन में अपने पास आई हुई देखकर उसने सारा वृत्तांत पूछा।। थोड़ी देर तक सोचने के बाद बोला- 'तुम्हारी सच्चाई से में संतुष्ट हूं, लेकिन तुम पराई स्त्री हो। तुमसे मुझे क्या प्रयोजन है? अतः तुम्हें कोई देख ले, इससे पहले तुम जहां से आई हो, वहीं चली जाओ।' इस प्रकार धर्मदत्त ने उसे छोड़ दिया, तब वह उस चोर के पास आई, जो मार्ग में उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। चोर ने उसकी सच्चाई देखकर कहा- 'मैं तुम्हारी सच्चाई से संतुष्ट हूं। मैं तुम्हें छोड़ता हूं। तुम अपने गहनों के साथ अपने घर जाओ। '
इस प्रकार चोर ने भी उसे छोड़ दिया और उसकी सुरक्षा के लिए उसके साथ चल दिया। इस प्रकार वह प्रसन्नतापूर्वक अपने पति के पास आई और अपने शील की रक्षा कर सकी। पति के पूछने पर उसने सारा वृत्तांत उसे बता दिया। पति ने देखा कि उसके मुख की कांति कुम्हलाई नहीं है, शरीर पर संभोग का कोई चिह्न भी नहीं है और उसका मन शुद्ध है, तो उसने मदनसेना को अखण्डित चरित्रवाली, सत्य का पालन करने वाली तथा सती स्त्री मान कर उसका कुलोचित सत्कार किया। फिर समुद्रदत्त उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगा।
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रितु दुग्गल[/caption]
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