जिनके लिए बने कानून वें ही बता रहे हैं धोखा

ये चारों श्रम संहिताएं इन सभी पर लागू होंगी। सरकार को नए कानून में अस्थायी कामगार को स्थायी कामगार बनाने की व्यवस्था करनी चाहिए, लेकिन उसने किया यह है कि उन्हें स्थायी तौर पर अस्थायी कामगार ही बने रहने का प्रावधान कर दिया है।

नए श्रम कानूनों के खिलाफ आवाज उठाते श्रमिक, सवाल एक ही– फायदे किसके लिए?
नए श्रम कानूनों के खिलाफ आवाज उठाते श्रमिक, सवाल एक ही– फायदे किसके लिए?
locationभारत
userआरपी रघुवंशी
calendar25 Nov 2025 11:59 AM
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भारत सरकार ने देश के 50 करोड़ श्रमिकों के लिए नए श्रम कानून लागू किए हैं। यह विडम्बना है कि जिन लोगों के लिए नए श्रम कानून बनाए गए हैं वें श्रमिक ही श्रमिक कानूनों को अपने साथ धोखा बता रहे हैं। ऐसे में देश में बने नए श्रम कानूनों का पूरी ईमानदारी के साथ विश्लेषण होना जरूरी है। सरकार को भी चाहिए कि सरकार अपने स्तर से इन कानूनों के विषय में ज्यादातर श्रमिकों की राय को जानकर उसी के हिसाब से श्रम कानूनों में बदलाव करे। यहां हम नए श्रम कानूनों का विश्लेषण अपने पाठकों के लिए कर रहे हैं।

श्रमिक संगठनों ने एक सुर में खारिज कर दिए नए श्रम कानून

हाल ही में केंद्र सरकार ने पुराने श्रम कानूनों की जगह चार नई श्रम संहिताएं लागू करने की घोषणा की है, जिनमें वेतन संहिता, 2019, औद्योगिक संबंध संहिता, 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य व कार्य शर्त संहिता, 2020 शामिल हैं। सरकार इसे आजादी के बाद मजदूरों के लिए सबसे बड़े और प्रगतिशील सुधारों में से एक मान रही है। सरकार का दावा है कि इससे मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी की गारंटी मिलेगी और हर पांच साल में इसकी समीक्षा की जाएगी। यही नहीं, श्रमिकों को समय पर वेतन की गारंटी दी जाएगी तथा महिला व पुरुषों को समान वेतन मिलेगा। लेकिन अधिकतर मजदूर संगठनों का मानना है कि नई श्रम संहिता श्रमिकों के मौलिक अधिकारों का हनन है। वास्तव में सरकार ने सुधार के नाम पर जो किया है, वह सुधार नहीं है, बल्कि कमजोर श्रमिकों को एक तरह से मालिकों (नियोक्ताओं) की दया पर छोड़ दिया है। हमारे देश में संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों को मिलाकर 50 करोड़ से अधिक कामगार काम करते हैं। इनमें से लगभग 90 फीसदी असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं। ये चारों श्रम संहिताएं इन सभी पर लागू होंगी। सरकार को नए कानून में अस्थायी कामगार को स्थायी कामगार बनाने की व्यवस्था करनी चाहिए, लेकिन उसने किया यह है कि उन्हें स्थायी तौर पर अस्थायी कामगार ही बने रहने का प्रावधान कर दिया है।

इस उदाहरण से समझ सकते हैं पूरा माजरा

श्रम कानूनों का पूरा माजरा इस एक उदाहरण से समझिए कि सरकार रेलवे में स्थायी व अस्थायी तौर पर कामगारों को नियुक्त करती है। रेलवे में कुछ वर्षों तक अस्थायी तौर पर काम करने के बाद उन्हें स्थायी करने का प्रावधान था, लेकिन नए कानून में उन कामगारों को स्थायी करने का प्रावधान ही खत्म कर दिया सरकार का यह भी दावा है कि इसमें पहली बार सीमित समय के लिए ठेके पर काम करने वाले गिग वर्कर्स को भी शामिल किया गया है और उनके हित में कई प्रावधान लाए गए हैं। यह अच्छी बात है कि सरकार ने गिग वर्कर्स की सुविधा का प्रावधान किया है, लेकिन उन्हें वे सुविधाएं तो उपभोक्ता देंगे। उसमें सरकार की भूमिका क्या है? यह ठीक है कि महिला कामगारों को भी अब समान काम के लिए समान वेतन देने का प्रावधान किया गया है, लेकिन नए कानून के तहत अब रात में भी महिलाओं से काम कराया जा सकेगा, जो कि पहले संभव नहीं था। हालांकि, इसके लिए नियोक्ताओं को महिलाओं से सहमति लेनी होगी। इसके अलावा, सरकार ने फैक्टरी एक्ट कानून में भी बदलाव किया है। जैसे-पहले किसी फैक्टरी में 15-20 कर्मचारी काम करते थे, तो उस पर फैक्टरी एक्ट लागू होता था, लेकिन अब उसकी संख्या बढ़ाकर सी कर दी गई है। ऐसे में, बहुत-सी छोटी फैक्टरियां उसके दायरे से बाहर हो जाएंगी, ऐसे में 'श्रमिकों का अधिकार कहां रहेगा? मौजूदा कानून के तहत, 'यदि किसी फैक्टरी में 100 से अधिक कर्मचारी काम करते हैं, तो उसे बंद करने के लिए सरकार की मंजूरी लेनी जरूरी होती थी, जबकि नए कोड में यह संख्या 300 कर दी गई है, यानी यदि किसी फैक्टरी में 300 से कम कामगार काम कर रहे हों, तो उसे बंद करने के लिए सरकार की मंजूरी की जरूरत नहीं होगी। इसलिए भले ही इसें सरकार श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर लागू कर रही है, लेकिन नए कानून मजदूरों के दूरगामी हित में नहीं हैं। यदि सरकार का ऐसा दावा है, तो उसे मजदूर संगठनों से बात करनी चाहिए और पूछना चाहिए कि आपकी आपत्ति कहां पर है। इसके अलावा, देश में जितने भी मजदूर संगठन हैं, वे संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के हैं। असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का तो कोई संगठन है ही नहीं। ऐसे में, सरकार को संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों के श्रमिक प्रतिनिधियों के साथ बात करनी चाहिए। सर्वाधिक श्रमिक असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और सबसे ज्यादा कठिनाई भी इन्हें ही होती है।

उद्योग जगत के फायदे के लिए बनाए गए हैं नए श्रम कानून

ज्यादातर श्रमिक नेताओं का स्पष्ट मत है कि नए श्रम कानून असल में उद्योग जगत को फायदा पहुंचाने के लिए है, श्रमिक वर्ग को इससे बहुत फायदा नहीं होने वाला है। आउटसोर्सिंग किए जाने वाले श्रमिकों के लिए कोई ज्यादा सुविधाजनक प्रावधान नहीं किया गया है।. मसलन, विभिन्न दफ्तरों, कोठियों, अपार्टमेंटों में ठेकेदारों के माध्यम से ठेके पर सिक्योरिटी गार्ड रखे जाते हैं। उनसे जितने वेतन पर हस्ताक्षर करवाया जाता है, उतना वेतन वास्तव में उन्हें नहीं मिलता है। ऐसे श्रमिकों के हित के लिए नए कानून में क्या प्रावधान हैं। असल में नए श्रम, कानून से नियोक्ताओं के लिए श्रमिकों को नौकरी से निकालना तो आसान हो ही जाएगा, मालिकों के लिए फैक्टरी को बंद करना भी काफी आंसान हो जाएगा। इससे श्रमिकों के लिए मजदूर संगठन बनाना व हड़ताल करना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए सरकार को पहले देश, के संगठित एवं असंगठित मजदूर प्रतिनिधियों से चर्चा करके राष्ट्रीय विमर्श चलाना चाहिए, ताकि देश की भावनाओं का समावेश हो सके। 


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बिहार की राजनीति है भारत की बड़ी राजनीतिक प्रयोगशाला

फिर सवाल यह भी उठता है कि क्या इस तरह की सीरीज पर कोई सेंसर या समीक्षा होनी चाहिए? क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर राजनीतिक संतुलन की ज़रूरत है? सरकारों ने पहले भी इस पर चर्चा की है, लेकिन ओटीटी की आज़ादी का हवाला देकर यह मुद्दा हर बार ठंडा पड़ जाता है। महारानी 4 इस मायने में एक केस स्टडी है कैसे एक कहा

महारानी सीजन 4
हुमा कुरैशी महारानी वेब सीरीज में (courtesy SonyLIV)
locationभारत
userआरपी रघुवंशी
calendar10 Nov 2025 06:38 PM
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बिहार प्रदेश में विधानसभा का चुनाव चल रहा है। बिहार की विधानसभा के चुनाव के नतीजे अकेले बिहार को ही प्रभावित नहीं करेंगे बल्कि भारत की राजनीति के ऊपर भी बिहार के चुनाव के नतीजों का बड़ा प्रभाव पड़ेगा। इस दौरान बिहार प्रदेश की राजनीति का एक नजारा इन दिनों इंटरनेट मीडिया के OTT प्लेट फार्म पर भी नजर आ रहा है। OTT प्लेटफार्म पर हाल ही में रिलीज हुई चर्चित सीरीज ‘‘महारानी सीजन-4’’ बिहार की राजनीति की तरफ बड़ा इशारा कर रही है। प्रसिद्ध पत्रकार अजय कुमार ने OTT पर रिलीज हुई सीरीज को बिहार की राजनीति के साथ जोडक़र सार्थक विश्लेषण किया है। अजय कुमार का पूरा विश्लेषण नीचे प्रकाशित किया जा रहा है। महारानी सीजन 4’ ने खोला नया मोर्चा, ओटीटी बना बिहार चुनाव की सियासी प्रयोगशाला


बिहार की राजनीति हमेशा देश की सबसे दिलचस्प प्रयोगशाला रही है, जहाँ सत्ता, जाति, संघर्ष और गठबंधन की कहानी हर चुनाव के साथ नया रंग लेती है। लेकिन इस बार खेल सिर्फ चुनाव मैदान में नहीं, बल्कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी दिख रहा है। 7 नवंबर को सोनी लिव पर रिलीज हुई “महारानी सीजन 4” को देखिए कहानी बिहार की है, पर निशाने पर दिल्ली है। यह वही समय है जब बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के पहले चरण का मतदान 6 नवंबर को हुआ था और दूसरा चरण 11 नवंबर को होने वाला है। आंकड़े बताते हैं कि पहले चरण में रिकॉर्ड 64.66% वोटिंग हुई, जो राज्य के इतिहास में अब तक की सबसे ऊँची है। ऐसे में मतदान के बीच इस सीरीज का रिलीज होना महज़ संयोग नहीं लगता। इसमें दिखाया गया कथानक आम दर्शक के मन में एक राजनीतिक सन्देश छोड़ता है कि बिहार की दुर्दशा की जड़ें दिल्ली की सत्ता में हैं, केंद्र की नीतियाँ ही राज्य को पीछे रखती हैं, और जो नेता बिहार की “इज्जत” के लिए लड़े, वही असली नायक हैं। यही परत “महारानी 4” को सिर्फ मनोरंजन भर नहीं रहने देती, बल्कि उसे एक सधी हुई राजनीतिक कथा में बदल देती है, जो जनमानस की धारणा को प्रभावित करने वाला औजार साबित हो सकती है।

क्या है बिहार की यह राजनीति

महारानी 4 में कहानी रानी भारती (हुमा कुरैशी) की है, जो बिहार की मुख्यमंत्री हैं। वह एक बार फिर अपने राज्य को विकास की राह पर लाने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन केंद्र की राजनीति उनके रास्ते में दीवार बन जाती है। प्रधानमंत्री सुधाकर श्रीनिवास जोशी (विपिन शर्मा) दिल्ली में बैठे वह ताकतवर किरदार हैं, जिनके पास सत्ता, संसाधन और एजेंसियों की पूरी मशीनरी है। जोशी का चरित्र एक सशक्त, पर अत्यंत चालाक प्रधानमंत्री का है, जो राज्य की राजनीति को अपनी मुट्ठी में रखने के लिए सीबीआई और ईडी जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल करता है। जब रानी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करती हैं और प्रधानमंत्री के गठबंधन प्रस्ताव को लाइव टेलीविज़न पर ठुकरा देती हैं, तो कहानी में राजनीतिक युद्ध शुरू हो जाता है। सीरीज में दिखाया गया है कि केंद्र सरकार बिहार के विकास फंड रोक देती है और राज्य एक-एक रुपये के लिए तरसता है। यही दृश्य आम दर्शक के मन में यह सवाल पैदा करता है क्या बिहार वाकई केंद्र की नीतियों का शिकार है? यही वह भावनात्मक बिंदु है जिस पर यह शो अपने दर्शक को बाँध लेता है। बिहार की राजनीति को करीब से देखने वाले जानते हैं कि विशेष राज्य का दर्जा लंबे समय से राज्य की मांग रही है, लेकिन अब तक किसी सरकार ने इसे मंजूरी नहीं दी। ऐसे में सीरीज उस भावनात्मक घाव को कुरेदती है जो हर बिहारी के भीतर है “हमारे हिस्से का विकास हमें नहीं मिला।” यही वह हिस्सा है जहाँ यह राजनीतिक समानांतर और भी स्पष्ट हो जाता है। पीएम जोशी के नेतृत्व में उन्हें 232 सीटें मिलती दिखाया गया है। गौरतलब है कि एनडीए को 2024 लोकसभा चुनावों में 234 सीटें प्राप्त हुई थीं। जिस तरह एनडीए का साथ देने के लिए बिहार के सीएम नीतीश कुमार और आंध्र के सीएम चंद्रबाबू सामने आते हैं, उसी तरह महारानी सीरीज में बंगाल और तमिलनाडु के सीएम सपोर्ट में आते हैं। पीएम जोशी को अपने स्किन पर विशेष ध्यान रखने वाला और कपड़ों को लेकर बेहद सजग दिखाया गया है। सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है कि ऐसा सब पीएम मोदी को टारगेट करने के लिए किया गया है।

PM मोदी को बनाया गया निशाना

यहां तक तो कथा यथार्थ के करीब लगती है, लेकिन इसके बाद जो रंग भरे जाते हैं, वे स्पष्ट रूप से केंद्र सरकार को नकारात्मक रूप में पेश करते हैं। प्रधानमंत्री जोशी को ‘जुमलेबाज’, ‘तानाशाह’ और ‘एजेंसियों के दुरुपयोगकर्ता’ के रूप में दिखाया गया है। यहां तक कि उन्हें अपनी “स्किन केयर” और “कपड़ों” के प्रति सजग दिखाना भी एक व्यंग्यात्मक इशारा है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सार्वजनिक छवि पर तंज करता हुआ लगता है। सोशल मीडिया पर भी यही बहस चल रही है कि यह किरदार मोदी की छवि पर सीधा हमला है। ट्विटर (अब X) पर बीजेपी समर्थक यूजर @UpendraMPradhan ने लिखा, “यह सीरीज प्योर प्रोपगैंडा है, बिहार चुनावों के लिए बनी है, जिसमें पीएम को बिहार को नष्ट करने वाला दिखाया गया है।” विपक्ष समर्थक कई हैंडल्स ने उल्टा तर्क दिया कि यह सीरीज “यथार्थ की झलक” दिखाती है, जहाँ एजेंसियों के डर से राजनीतिक विरोधी दबाए जाते हैं। यही दो ध्रुवों के बीच की बहस इस सीरीज की सबसे बड़ी सफलता है उसने चर्चा छेड़ दी है, और उस चर्चा में चुनावी हवा शामिल हो गई है। रोशनी को तेजस्वी यादव जैसी युवा लीडरशिप के रूप में पेश किया गया है। नवीन कुमार का किरदार नीतीश कुमार या किसी ऐसे राइवल नेता से मेल खाता है जो पीएम से एलाइड हो जाता है। यह समानता कहानी को और भी यथार्थ के करीब लाती है, जहाँ सत्ता, गठबंधन और अवसरवाद की राजनीति का आईना दर्शक के सामने रखा गया है।

वंशवाद पर भी चोट की गई है

वंशवाद के पहलू पर भी कहानी दिलचस्प मोड़ लेती है। रानी भारती अपने पद से इस्तीफा देकर अपनी बेटी रोशनी को मुख्यमंत्री बनाती हैं। यह लालू-राबड़ी-तेजस्वी की राजनीति की याद दिलाता है। आम तौर पर जनता वंशवाद पर सवाल उठाती है, लेकिन सीरीज इसे एक “परिवार की जिम्मेदारी” के रूप में प्रस्तुत करती है। यानी दर्शक को यह समझाया जाता है कि जब नेता भ्रष्ट तंत्र से घिरे हों, तब अपने परिवार को आगे लाना गलत नहीं। यही वह सॉफ्ट पिच है जो दर्शक के अवचेतन में यह विचार रोपती है कि लालू-राबड़ी या परिवार आधारित राजनीति भी किसी सामाजिक “कर्तव्य” का रूप है। अब अगर आप चुनावी समय, कथा का भावनात्मक केंद्र और कथानक की दिशा इन तीनों को जोड़ें, तो यह कहानी केवल कल्पना नहीं बल्कि एक राजनीतिक उपकरण की तरह दिखने लगती है। ओटीटी के पास अब गाँव-गाँव तक पहुँच है। बिहार जैसे राज्य में, जहाँ मोबाइल इंटरनेट का इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ा है, युवाओं की बड़ी संख्या ऐसी सीरीज देखती है। डेटा बताता है कि बिहार में इंटरनेट उपयोगकर्ता 2024 तक 6.3 करोड़ से अधिक हो चुके थे, और ग्रामीण हिस्से में 72% युवा स्मार्टफोन से कंटेंट देखते हैं। यानी एक सीरीज, जो बिहार की भावना से जुड़ी है, उसका असर ज़मीनी राजनीति तक जा सकता है।

खास है रिलीज की टाइमिंग

यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत में फिल्मों और वेब सीरीज की रिलीज टाइमिंग अक्सर रणनीतिक रही है। चुनावी सीजन में चाहे राजनीति , तांडव या द केरल स्टोर जैसी फिल्में हों, उनका विमोचन अक्सर किसी जन-भावना को दिशा देने के लिए किया जाता है। महारानी 4 की रिलीज 7 नवंबर को होना, जब दूसरे चरण के मतदान की तैयारी चल रही थी, निश्चित रूप से एक सोचा-समझा कदम लगता है। खुद सीरीज के निर्माताओं ने कहा कि यह “सबसे भावनात्मक और विवादास्पद सीजन” है, जो बिहार की जनता के दिल से जुड़ता है। अगर आप इसे निष्पक्ष नजरिए से देखें, तो कहानी में कला और राजनीति का घालमेल दोनों मौजूद हैं। एक ओर रानी भारती का संघर्ष, जो केंद्र की “तानाशाही” के खिलाफ आवाज़ उठाती है, दर्शकों को प्रेरक लग सकता है। दूसरी ओर, इसका प्रतीकात्मक संदेश यह भी देता है कि केंद्र सरकार एजेंसियों का इस्तेमाल विपक्ष को खत्म करने के लिए करती है। यही संदेश अगर बिहार चुनाव से कुछ दिन पहले फैलता है, तो वह चुनावी हवा को प्रभावित कर सकता है। फिल्म और सीरीज का प्रभाव सीधा वोट में नहीं बदलता, पर यह धारणा बनाता है। राजनीति में धारणा ही सबसे बड़ा हथियार होती है। अगर कोई दर्शक यह मान लेता है कि “केंद्र बिहार को नजरअंदाज कर रहा है,” तो वह वोट डालते समय अपने मन में वही पीड़ा रखता है। इसी कारण ऐसे कंटेंट की रिलीज टाइमिंग पर सवाल उठते हैं। फिर सवाल यह भी उठता है कि क्या इस तरह की सीरीज पर कोई सेंसर या समीक्षा होनी चाहिए? क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर राजनीतिक संतुलन की ज़रूरत है? सरकारों ने पहले भी इस पर चर्चा की है, लेकिन ओटीटी की आज़ादी का हवाला देकर यह मुद्दा हर बार ठंडा पड़ जाता है। महारानी 4 इस मायने में एक केस स्टडी है कैसे एक कहानी, जो सतह पर काल्पनिक है, असल में सियासी माहौल को बदलने की ताकत रखती है। इस सीरीज ने बिहार के विकास, विशेष राज्य दर्जे और केंद्र-राज्य रिश्तों को फिर चर्चा में ला दिया है। यह अच्छी बात है कि जनता इन विषयों पर बात कर रही है, लेकिन चिंता यह भी है कि क्या यह बातचीत तथ्यों पर आधारित है या भावनाओं पर। कला को राजनीति से अलग रखना हमेशा आसान नहीं होता, लेकिन जब कला राजनीति का औजार बन जाए, तब लोकतंत्र को सोचना पड़ता है हम कहानी देख रहे हैं या सियासत की पटकथा पढ़ रहे हैं।


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अरबों की ठगी करने वाले बिल्डरों के लिए चाहिए कठोर कानून

ठगी करके अरबों रुपय कमाने के बाद ठग बिल्डर अपने आपको तथा अपनी कम्पनी को दिवालिया घोषित कर देते हैं। दिवालिया घोषित हो जाने के बाद ठग किस्म के बिल्डर जीवन भर मौज-मस्ती करते रहते हैं। इन ठग बिल्डरों के हाथों ठगे जाने वाले आम नागरिक तथा बैंक परेशान घूमते रहते हैं।

 धोखाधड़ी
फ्रॉड बिल्डर्स की धोखाधड़ी
locationभारत
userअभिजीत यादव
calendar06 Nov 2025 08:55 PM
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उत्तर प्रदेश के नोएडा तथा ग्रेटर नोएडा से लेकर देश भर में ठगी करने वाले हजारों बिल्डर मौज कर रहे हैं। ठगी करके अरबों रुपय कमाने के बाद ठग बिल्डर अपने आपको तथा अपनी कम्पनी को दिवालिया घोषित कर देते हैं। दिवालिया घोषित हो जाने के बाद ठग किस्म के बिल्डर जीवन भर मौज-मस्ती करते रहते हैं। इन ठग बिल्डरों के हाथों ठगे जाने वाले आम नागरिक तथा बैंक परेशान घूमते रहते हैं। केन्द्र सरकार ने ठगी करने वाले बिल्डरों से निपटने के लिए एक नई पहल की है।

केन्द्र सरकार की पहल स्वागत योग्य है

यह स्वागतयोग्य है कि ED अर्थात प्रवर्तन निदेशालय ईसाल्वेंसी और बैंकरप्सी बोर्ड के साथ मिलकर ऐसी व्यवस्था करने जा रहा है, जिससे दीवालिया बिल्डरों और उनके प्रवर्तकों की जब्त की गई संपत्तियों से फ्लैट खरीदारों और बैंकों को राहत दी जा सके। ED की ओर से इस संदर्भ में जो मानक संचालन प्रक्रिया बनाई जा रही है, उससे यह स्पष्ट हो रहा है कि उसके दायरे में बिल्डरों की जब्त संपत्तियां ही आएंगी। अच्छा हो कि इस प्रक्रिया के दायरे में वे दीवालिया कंपनियां और उनके प्रवर्तक भी आएं, जो बैंकों या बाजार से पैसा लेकर किसी भी तरह की धोखाधड़ी के आरोपित हैं। ऐसे आरोपितों की, बड़ी संख्या है। इनमें वे घोटालेबाज भी शामिल हैं, जो अपने कारोबार को विस्तार देने के नाम पर बैंकों से बड़ा लोन लेकर उसे हड़प गए। आम लोगों और बैंकों से पैसा लेकर उसे हजम कर जाने वालों की संपत्तियों को जब्त कर लेना इसलिए पर्याप्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इतने मात्र से पीडि़त पक्षों को कोई लाभ नहीं मिलता। दीवालिया कंपनियों और कारोबारियों की जब्त संपत्ति को लेकर जो वैधानिक कार्रवाई शुरू की जाती है, वह आमतौर पर लंबी खिंचती है। इस दौरान पीडि़त पक्ष परेशान होते रहते हैं, क्योंकि अभी नियम यह है कि मामले का निपटारा होने तक जब्त संपत्ति को बेचा नहीं जा सकता। इसका बुरा असर बैंकों, निवेशकों और आम लोगों पर पड़ता है। इसका कोई मतलब नहीं कि घोटालेबाजों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई तो शुरू हो जाए, लेकिन उनकी हजारों करोड़ रुपये की जब्त संपत्ति अनुप्रयुक्त पड़ी रहे। 

पीड़ि खरीददारों को जल्दी मिले इंसाफ

केन्द्र सरकार के वर्तमान प्रयास से भी ज्यादा जरूरी यह है कि ठगी करने वाले बिल्डरों के कारण ठगी का शिकार बने नागरिकों को जल्दी से जल्दी इंसाफ मिलने की व्यवस्था होनी चाहिए। न्याय का तकाजा यह कहता है कि घपले-घोटाले के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने के साथ ही पीडि़तों को यथाशीघ्र राहत देने की भी कोई व्यवस्था हो। बैंक तो तब भी घोटाले में डूबी रकम वापस पाने की प्रतीक्षा कर सकते हैं, लेकिन आम लोग ऐसा नहीं कर सकते। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बड़ी संख्या में ऐसे बिल्डर हैं, जिन्होंने लाखों लोगों को उनके घर का सपना दिखाकर उनके साथ ठगी की। इनमें से अनेक बिल्डरों ने फ्लैट खरीदारों के साथ बैंकों को भी ठगा। अच्छा होगा कि केंद्र सरकार अपनी विभिन्न एजेंसियों के बीच ऐसा समन्वय कायम करे, जिससे बिल्डरों, के साथ-साथ अन्य दीवालिया कंपनियों के मामलों में फंसे अरबों रुपये की वसूली का रास्ता खुले। इसी के साथ ऐसे भी उपाय करने होंगे, जिससे जानबूझकर दीवालिया होने के तौर-तरीकों पर लगाम लगे। कई मामलों में यह देखने में आया है कि घोटालेबाज दीवालिया होने और इस कारण अपनी संपत्ति की जब्ती के बाद भी पहले की तरह ठाठ से रहते हैं। एक समस्या यह भी है कि ऐसे लोगों के मामलों का निपटारा होने में बहुत अधिक समय लगता है।

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