मनोज रघुवंशी
आज कल इस बात का एहसास (feeling) बहुत प्रबल (Predominant) है कि देश की अदालतों (Courts) में चार करोड़ 70 लाख मुकद्दमे लंबित (Pending) हैं। हर मुकद्दमे में कम से कम एक आदमी ऐसा होता है, जो चाहता है कि न्याय जल्दी मिले, और कम से कम एक आदमी ऐसा होता है, जो चाहता है कि न्याय की प्रक्रिया (Process of justice) जितना टल सके उतना अच्छा है। न्याय जल्दी चाहने वाला वादी (Plaintiff) भी हो सकता है, और प्रतिवादी (Defendant) भी। वैसे ही प्रक्रिया को ज्यादा से ज्यादा टालने की भावना रखने वाला वादी भी हो सकता है, और प्रतिवादी भी। आज जरूरत है कि न्याय जल्दी चाहने वालों की अधिक से अधिक मदद की जाय, क्योंकि न्याय अगर वक्त पर न मिले तो वो अन्याय होता है। सवाल है कि ये मदद कैसे की जाय?
न्याय मांगने वालों की सबसे बड़ी समस्या है ‘तारीख-पे-तारीख’। जो इस समस्या का हल निकाल लेगा, वो सिकंदर कहलाएगा। कोई एक व्यक्ति या कोई एक संस्था, इस समस्या का पूरा हल देने में असमर्थ है। अगर मुवक्किल न चाहे तो वकील ‘तारीख-पे-तारीख’ क्यों मांगेगा? अगर वकील (Advocate) नहीं मांगेगा तो पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer) ‘तारीख-पे-तारीख’ क्यों देगा। अगर पीठासीन अधिकारी बार-बार तारीख देने से इंकार कर दें, तो वकील की चलेगी भी तो कैसे?
एक बार ऐसा हो चुका है कि उच्चतम न्यायालय ने लगातार देर शाम तक सुनवाई करने के बाद लंबित मुकद्दमों की संख्या डेढ़ लाख से घटाकर 70,000 कर दी थी। ये एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि यदि इच्छाशक्ति हो तो ‘दिल्ली दूर नहीं है’। लेकिन, सबसे बड़ा उपाय ये है कि जवाबदेही, पारदर्शिता और न्याय प्रणाली में सुधार के मिले-जुले प्रभाव से मुकाम हासिल किया जा सकता है।
1975 में ‘शोले’ फिल्म में अमिताभ बच्चन के बहुतेरा ‘समझाने के बावजूद मौसी ने बसंती का हाथ बीरू के हाथ में देने से इंकार कर दिया। बीरू टंकी पर चढ़ गया और पूरे गांव को धमकी दी कि वो ‘सुसाइड’ कर लेगा। मौसी नहीं मानीं। बीरू ने चेतावनी दी कि गांव में हैजा, चेचक और सूखा फैल सकता है। मौसी फिर भी नहीं मानीं। लेकिन, जब बगल में खड़े एक सज्जन ने मौसी को समझाया कि कोर्ट-कचहरी का चक्कर हो जाएगा, तो मौसी ने कहा, बसन्ती को ले जाओ। जो डर मौसी के मन में 1975 में था, वही डर 2022 में भी बहुत से लोगों के मन में है। अदालत न्याय का मंदिर है। वहां पहुंचने के बाद तो डर समाप्त हो जाना चाहिए। उस डर को समाप्त करने का केवल एक ही तरीका है कि न्यायपालिका पहुंचने के बाद आदमी निश्चिंत हो जाय कि पूरा न्याय मिलेगा और जल्दी-से-जल्दी मिलेगा।
यह मौजूदा न्याय प्रणाली की एक बानगी है। हकीकत इससे कहीं ज्यादा भयावह है। आंकड़े बताते हैं कि एक जुलाई तक सुप्रीम कोर्ट में 72,062 मामले, जबकि 25 जुलाई को 25 हाईकोर्ट में 59,55,873 मामले लंबित थे। जिला और अधीनस्थ अदालतों में यह संख्या 4.23 करोड़ हैं। इस तरह विभिन्न अदालतों में अभी 4.83 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं।
आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने पिछले आठ माह में हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए 127 नए नामों की अनुशंसा की, जिनमें से 61 को नियुक्ति दी गई है। 13 नाम ऐसे थे, जो कॉलेजियम ने एक से ज्यादा बार भेजे, जिनमें से आठ को न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया है। इस तरह से 140 सिफारिशों में से 69 को जजों की ही नियुक्ति की गई।
एक रिपोर्ट के मुताबिक ने बताया कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) की मुकदमा निस्तारण दर शिकायतों से अधिक है। एनजीटी ने देशभर में पर्यावरण, वन मंजूरी, हवा एवं जल प्रदूषण, तटीय विनियमन क्षेत्र और अपशिष्ट प्रबंधन से संबंधित कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं। रेलवे दावा न्याधिकरण (आरसीटी) के बाबत बताया गया कि उसके समक्ष 30 जून को 24,133 मुकदमे लंबित थे।