Tuesday, 30 April 2024

New Article : धरती के साथ रिश्तों को भी झुलसा रही गर्मी

New Article :  अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी (Yale University) में पर्यावरण स्वास्थ्य की प्रोफेसर मिशेल बेल ने शोध में पाया…

New Article : धरती के साथ रिश्तों को भी झुलसा रही गर्मी

Sanjeev RaghuvanshiNew Article :  अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी (Yale University) में पर्यावरण स्वास्थ्य की प्रोफेसर मिशेल बेल ने शोध में पाया कि औसत तापमान बढऩे से लोगों में गुस्से की प्रवृत्ति बढ़ी है, जो रिश्ते बिखरने का कारण बन रही है। भारत, पाकिस्तान और नेपाल में किए गए शोध में उन्होंने 15 से 49 साल की 194861 महिलाओं (Ladies) को शामिल किया। एक अक्टूबर 2010 से 30 अप्रैल 2018 के बीच की मानसिक, शारीरिक और यौन हिंसा की शिकायतों के अध्ययन के बाद मिशेल इस नतीजे पर पहुंचीं कि औसत तापमान सालाना एक डिग्री सेल्सियस बढऩे से घरेलू और यौन हिंसा के मामलों में 4.9 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई।

बीती तीन जुलाई को जब वैश्विक औसत तापमान 17.1 डिग्री सेल्सियस पर पहुंचा तो यह मानव इतिहास (History) का सबसे ज्यादा वैश्विक तापमान घोषित किया गया। लेकिन, इसके अगले ही दिन 17.8 डिग्री सेल्सियस के साथ नया रिकॉर्ड बन गया। वैज्ञानिक आने वाले दिनों में यह रिकॉर्ड भी टूटने का अंदेशा जता रहे हैं। पर्यावरण पर निगाह रखने वाली दुनिया भर की संस्थाओं से जुड़े वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन के चलते विनाशकारी आपदाओं का अंदेशा जता रहे हैं। तापमान में वृद्धि, बारिश के पैटर्न में बदलाव और धु्रवों की घटती बर्फ; ये जलवायु परिवर्तन के ऐसे परिणाम हैं जो भविष्य में मानव जाति के लिए बेहद विपरीत परिस्थितियों की तरफ इशारा कर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन के लिहाज से यह साल काफी महत्वपूर्ण है। जुलाई में जहां औसत वैश्विक तापमान का रिकॉर्ड टूटा, वहीं जून का महीना भी मानव इतिहास का सबसे गर्म जून रहा। पर्यावरण एजेंसी कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस का दावा है कि इस बार जून में साल 1991 से 2020 की अवधि के मुकाबले आधा डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। अमेरिका के नेशनल सेंटर फॉर एनवायरमेंटल प्रिडिक्शन का मानना है कि मौजूदा समय में मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए ‘अल नीनो’ प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। अगस्त 2016 में ‘अल नीनो’ के चलते तापमान 16.92 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था जो उस वक्त तक का सबसे ज्यादा तापमान था। यूनाइटेड किंगडम के वेस्ट यॉर्कशायर स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के एक शोध में सामने आया है कि हर 10 साल में धरती कम से कम 0.2 डिग्री सेल्सियस गर्म हो रही है। पर्यावरण पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक मौसम की चक्रीय प्रणाली प्रभावित होने का सबसे बड़ा कारण कार्बन उत्सर्जन है। वैज्ञानिकों ने शोध में पाया कि पिछले एक दशक में हर साल 54 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ। यानी, हमने प्रति सेकंड 1700 टन उत्सर्जन किया है। शोध से जुड़े प्रोफेसर पीयर्स फोस्टर का कहना है कि औसत तापमान में एक डिग्री बढ़ोतरी से बारिश की आशंका 15 फीसदी तक बढ़ जाती है। यही नहीं, इससे बर्फबारी में कमी आती है, जिससे धु्रवों पर बर्फ की मात्रा लगातार घट रही है। शोध के आंकड़ों से वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि साल 1971 से 2000 की अवधि के मुकाबले साल 2070 से 2100 के दौरान बर्फबारी में बेतहाशा कमी देखने को मिलेगी। यह कमी सिंधु बेसिन में 30 से 50 फीसदी, गंगा बेसिन में 50 से 60 और ब्रह्मपुत्र बेसिन में 50 से 70 फीसदी तक होगी।

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वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (world economic forum) ने भी हाल ही में जारी ‘ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट’ में जलवायु परिवर्तन को मानव सभ्यता के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में करीब 360 करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन के लिहाज से अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्रों में रहते हैं। हालांकि, जलवायु परिवर्तन का असर किसी एक क्षेत्र या देश तक सीमित नहीं होता। इससे दुनिया के कुछ क्षेत्र अत्यधिक प्रभावित होंगे तो कुछ कम। बढ़ते तापमान से दुनिया को जिन समस्याओं का सामना करना होगा, उनमें से खाद्यान्न की कमी प्रमुख है। न्यूयॉर्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी (Columbia University) और जर्मन काउंसिल ऑफ फॉरेन रिलेशन के शोधकर्ता प्रोफेसर काई कोर्नह्यूबर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि साल 2045 से 2099 के बीच खाद्यान्न उत्पादन में सात फीसदी की कमी हो सकती है। इससे दुनिया भर में करीब 90 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार होंगे। उन्होंने यह आशंका साल 1960 से 2014 तक के आंकड़ों के अध्ययन के बाद जाहिर की है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पारिस्थितिकी और सतत् विकास के प्रोफेसर रूथ डेफ्रीज का शोध भारतीयों के लिए चिंताजनक है। उनका दावा है कि धरती के औसत तापमान में ऐसे ही बढ़ोतरी जारी रही तो भारत में गेहूं की पैदावार में साल 2040 तक पांच फीसदी और 2050 तक 10 फीसदी की कमी आएगी। दुनिया के छह प्रमुख चावल उत्पादक देश भारत, चीन, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, थाईलैंड और वियतनाम में उत्पादन कम हुआ है। नतीजतन चावल के दाम 11 साल के उच्च स्तर पर है। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन का दावा है कि अकेले एशिया में ही 300 करोड़ लोग चावल खाते हैं। उत्पादन गिरने और दाम बढऩे का खामियाजा सीधे तौर पर इन लोगों को भुगतना पड़ेगा।

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जलवायु परिवर्तन से न सिर्फ मौसमी चक्र गड़बड़ाना, फसलों का उत्पादन गिरना, भूस्खलन और धु्रवीय बर्फ में कमी हो रही हैं बल्कि, यह मनुष्य और अन्य जीव-जंतुओं के स्वभाव में भी खतरनाक परिवर्तन ला रहा है। अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी में पर्यावरण स्वास्थ्य की प्रोफेसर मिशेल बेल ने शोध में पाया कि औसत तापमान बढऩे से लोगों में गुस्से की प्रवृत्ति बढ़ी है, जो रिश्ते बिखरने का कारण बन रही है। भारत, पाकिस्तान और नेपाल में किए गए शोध में उन्होंने 15 से 49 साल की 194861 महिलाओं को शामिल किया। एक अक्टूबर 2010 से 30 अप्रैल 2018 के बीच की मानसिक, शारीरिक और यौन हिंसा की शिकायतों के अध्ययन के बाद मिशेल इस नतीजे पर पहुंचीं कि औसत तापमान सालाना एक डिग्री सेल्सियस बढऩे से घरेलू और यौन हिंसा के मामलों में 4.9 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई। जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन साइकियाट्री (Journal of American Medical Association Psychiatry) में प्रकाशित शोध में उन्होंने भारत में ऐसे मामले सबसे ज्यादा बढऩे की आशंका जताई है। मिशेल का कहना है कि साल 2090 तक भारत में महिलाओं के साथ हिंसा के मामले 23.5 फीसदी तक बढ़ सकते हैं। उधर, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल का शोध कुत्तों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति के लिए भी बढ़ते तापमान को ही जिम्मेदार ठहराता है। वैज्ञानिक 70000 कुत्तों के अध्ययन के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि गर्म और धूल- धुएं से भरे दिनों में कुत्ते ज्यादा आक्रामक हो जाते हैं। यह बढ़ोतरी अल्ट्रावायलेट विकिरण ज्यादा होने पर 11 फीसदी, उमस भरे दिनों में आठ फीसदी और अत्यधिक प्रदूषित दिनों में पांच फीसदी तक दर्ज की गई।

धरती के औसत तापमान में बढ़ोतरी पर लंदन (London) स्थित ग्रांथम रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑन क्लाइमेट चेंज एंड एनवायरनमेंट के वैज्ञानिक फ्रेडरिक ऑट्टो कहते है- ‘बढ़ता तापमान वैश्विक पर्यावरण के लिए मौत की सजा का फरमान है।’ जलवायु परिवर्तन को लेकर हुए विभिन्न शोध समस्या की जड़ कार्बन उत्सर्जन को ही बताते हैं। तमाम चिंताओं के बावजूद हर वर्ष अकेले जीवाश्म ईंधन से ही 40 अरब टन कार्बन उत्सर्जन हो जाता है। विकसित देश इसका ठीकरा विकासशील देशों पर फोड़ देते हैं और ये देश अपनी जरूरतों के चलते कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने को ज्यादा तवज्जो नहीं देते। अगर पूरी दुनिया में कार्बन उत्सर्जन में कमी को एक मिशन के तौर पर न लिया गया तो अंतत: इसका खामियाजा मानव सभ्यता को ही भुगतना पड़ेगा।

 

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