श्राद्ध प्रारम्भ हो गए हैं। पुराणों में श्राद्ध के महत्व का विस्तार से वर्णन मिलता है। भविष्य पुराण में श्राद्ध के बारह भेद बताये गये हैं, लेकिन मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध का उल्लेख मिलता है। यदि व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो यही कहा जा सकता है कि श्राद्ध विशुद्ध श्रद्धा का विषय हैं। वेदों में कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड-इन तीनों का वर्णन उपलब्ध है, तथापि मुख्य स्थान कर्मकाण्ड को ही प्राप्त है। कर्मकाण्ड के अंतर्गत ही विविध यज्ञों की अनुष्ठान पद्धतियां हैं, जिनमें ‘पितृयज्ञ’ का भी वर्णन है। इस पितृपज्ञ का ही दूसरा नाम श्राद्ध है। पितृयज्ञ का मतलब यह है कि पिता-माता आदि परिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के उपरान्त उनकी तृप्ति के लिये श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले पिण्डोदकादि समस्त कर्म पितृयज्ञ अथवा श्राद्ध कहलाते हैं।
प्राचीनकाल में मनुष्यों में श्राद्ध के प्रति जैसी अटूट श्रद्धा भक्ति थी, वैसी आजकल के मनुष्यों मेें नहीं है। अत: आजकल के तमाम लोग न केवल श्राद्ध को व्यर्थ समझकर उसे नहीं करते हैं अपितु श्राद्धकर्म की आलोचना भी खूब खुलकर करते हैं। कुछ लोग हैं जो अनिष्ट के भय से श्राद्ध की औपचारिकता मात्र करते हैं। जबकि शास्त्रों का आदेश है कि मृत पितृगणों की मरण तिथि के दिन श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
अपनी संस्कृति से विमुख पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण में लिप्त बहुत से भारतीय जिस श्राद्ध का तिरस्कार करने में गर्व का अनुभव करते हैं, उसी पितृयज्ञ (श्राद्ध) की शाहजहां तक ने सराहना की है। औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को कारागार में डाल दिया था। उस समय की एक घटना का जिक्र आकिल खां ने अपनी पुस्तक ‘वाकेआत आलमगीरी’ में विस्तार से किया है। आकिल खां ने शाहजहां द्वारा अपने बेटे औरंगजेब को लिखे एक पत्र का उल्लेख किया है-उसका एक अंश यूं है-
ऐ पिसर तू अजब मुसलमानी,
ब पिदरे जिंदा आब तरसानी।
आफरीन बाद हिंदबान सद बार,
मैं देहंद पिदरे मुर्दारावा दायम आब।।
भावार्थ यह है-‘हे पुत्र! तू भी विचित्र मुसलमान है जो अपने जीवित पिता को जल के लिये तरसा रहा है। शत-शत बार प्रशंसनीय हैं वे हिंदू, जो अपने मृत पिता को भी जल देते हैं।’
इसके अतिरिक्त श्राद्ध के विषय में एक संस्कृत के विद्वान अंग्रेज ने अपनी पुस्तक ‘आर्यों की महानता’ में लिखा है-‘नि:संदेह हिंदू अभी तक पितरों के प्रति श्राद्ध तथा अन्य कर्मों में विशेष श्रद्धा और आदरभाव से करते हैं। मेरा विचार है कि हमारे ईसाई मत में पूर्वजों की स्मृति न मनाना एक त्रुटि है। किसी-किसी देश में श्राद्ध करने की प्रथा रूढि़ में परिणत हो गयी है; परंतु वास्तव में उस कार्यक्रम में उन लोगों के हृदयों में अपने पूर्वजों के प्रति अगाध श्रद्धा और स्मरण भाव निहित रहता है, ऐसे भाव प्रशंसनीय ही नहीं वरन उनको प्रोत्साहित करना भी सर्वथा उचित है। मेरा मत है कि इस प्रकार की प्रथा प्रत्येक धर्मानुयायियों में होना आवश्यक है।’
श्राद्ध को वेद-पुराण ने श्रद्धा से जोड़ा है। पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना ही श्राद्ध है। आज पितरों की कौन कहे, अधिकांश जीवित माता-पिताओं की स्थिति औरंगजेब की जेल में बंद शाहजहां से भी गई बीती है। कम से कम शाहजहां ने अपना दु:खड़ा, पत्र लिखकर अपने जालिम बेटे से कह तो दिया था। आज के बुजुर्ग तो अपनी पीड़ा अपनी संतान के सामने बयां करने का साहस जुटाने की स्थिति तक में नहीं हैं। होठों को सींकर, आंखों में छलकते आंसुओं को पीकर पल-पल घुटने वाले माता-पिता उपेक्षित, प्रताडि़त, लांछित होते हुए भी समाज के सामने नालायक औलाद की प्रशंसा करने को मजबूर हैं। सच बोला तो कलह होगी और उनका उत्पीडऩ बढ़ जाएगा-यह डर उन्हें बोलने नहीं देता है। जीवित बुजुर्गों को अपमानित करने वालों के लिए श्राद्ध की प्रथा नहीं बनी है। जो जीवित बड़े-बूढ़ों का सम्मान नहीं कर सकते और उनके मरने के बाद श्राद्ध करने का ढोंग रचते हैं-ऐसे लोगों का ग्रास तो कौवे भी ग्रहण नहीं करते होंगे।