यह प्रेरणादायक कहानी अजमेर (Ajmer) के रहने वाले विजेंद्र सिंह राठौड़ (Vijender Singh Rathore) और उनकी धर्मपत्नी लीला की है. साल 2013 में लीला ने विजेंद्र से आग्रह किया कि वह चार धाम की यात्रा करना चाहती हैं. विजेंद्र एक ट्रैवल एजेंसी में कार्यरत थे और उसी दौरान ट्रैवेल एजेंसी का एक टूर केदारनाथ यात्रा (Kedarnath Yatra) पर जाने के लिए निश्चित हुआ. बस फिर क्या था, इन दोनों पति-पत्नी ने भी अपना बोरिया-बिस्तर बांधा और केदारनाथ (Kedarnath) जा पहुंचे.
वहां, विजेंद्र और लीला एक लॉज में रुके थे. लीला को लॉज में छोड़ विजेंद्र कुछ दूर ही गए थे कि चारों ओर हाहाकार मच गया. उत्तराखंड में आई भीषण बाढ़ (Uttarakhand Floods) का उफनता पानी केदारनाथ आ पहुंचा था. विजेंद्र ने बमुश्किल अपनी जान बचाई. मौत का तांडव और उफनते हुए पानी का वेग शांत हुआ, तो विजेंद्र बदहवास होकर उस लॉज की ओर दौड़े, जहां वह लीला को छोड़कर आए थे. लेकिन वहां पहुंचकर उन्हें जो नज़ारा दिखा, वह दिल दहला देने वाला था. सब कुछ बह चुका था. प्रकृति के इस तांडव के आगे वहां मौजूद हर इंसान बेबस दिख रहा था. तो क्या लीला भी… नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. विजेंद्र ने अपने मन को समझाया.
“वह जीवित है” विजेंद्र का मन कह रहा था. इतने वर्षों का साथ पल भर में तो नहीं छूट सकता. लेकिन आस-पास कहीं जीवन दिखाई नहीं दे रहा था. हर ओर मौत तांडव कर रही थी. लाशें बिखरी हुई थीं. किसी का बेटा, किसी का भाई, तो किसी का पति बाढ़ के पानी में बह गया था.
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विजेंद्र के पास लीला की एक तस्वीर थी, जो हर समय उसके पर्स में रहती थी. अगले कुछ दिन वह घटनास्थल पर हाथ में तस्वीर लिए घूमता रहा और हर किसी से पूछता, “भाई इसे कहीं देखा है?” और जवाब मिलता … “ना”
बस एक विश्वास था, जिसने विजेंद्र को यह स्वीकारने से रोक रखा था कि लीला अब इस दुनिया में नहीं है. दो हफ्ते बीत चुके थे. राहत कार्य जोरों पर थे. इसी दौरान उसे फौज के कुछ अफसर भी मिले, जिन्होंने उससे बात की. लगभग सबका यही निष्कर्ष था कि लीला बाढ़ में बह चुकी है. विजेंद्र ने मानने से इनकार कर दिया.
घर में फोन मिलाकर बच्चों को इस हादसे के बारे में सूचित किया. बच्चे अनहोनी के डर से घबराए हुए थे. रोती बिलखती बिटिया ने पूछा कि “क्या अब मां नहीं रही?” तो विजेंद्र ने उसे ज़ोर से फटकार दिया और कहा, “वह ज़िंदा है.” एक महीना बीत चुका था. अपनी पत्नी की तालाश में विजेंद्र दर-दर भटक रहे थे. हाथ मे एक तस्वीर थी और मन में एक आस, “वह जीवित है”.
इसी बीच विजेंद्र के घर सरकारी विभाग से एक फोन आया. एक कर्मचारी ने कहा कि लीला मृत घोषित कर दी गई है और हादसे में जान गवां चुके लोगों को सरकार मुआवजा दे रही है. मृत लीला के परिजन भी सरकारी ऑफिस में आकर मुआवजा ले सकते हैं.
विजेंद्र ने मुआवज़ा लेने से भी इंकार कर दिया. परिजनों ने कहा कि अब तो सरकार भी लीला को मृत मान चुकी है. अब तलाशने से कोई फ़ायदा नहीं है, लेकिन विजेंद्र ने मानने से इनकार कर दिया, जिस सरकारी कर्मचारी ने लीला की मौत की पुष्टि की थी, उसे भी विजेंद्र ने कहा… “वह जीवित है”.
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विजेंद्र फिर से लीला की तलाश में निकल पड़े. उत्तराखंड (Uttarakhand) का एक-एक शहर नापने लगे. हाथ में एक तस्वीर और ज़ुबां पर एक सवाल, “भाई इसे कहीं देखा है?” और हर बार सवाल का एक ही जवाब, “ना”.
लीला से विजेंद्र को बिछड़े अब 19 महीने बीत चुके थे. इस दरमियां वह लगभग 1000 से अधिक गांवों में लीला को तालाश चुके थे.
27 जनवरी 2015, उत्तराखंड (Uttarakhand) के गंगोली गांव (Gangoli Village) में एक राहगीर को विजेंद्र सिंह राठौर ने एक तस्वीर दिखाई और पूछा, “भाई इसे कहीं देखा है”. राहगीर ने तस्वीर ध्यान से देखी और बोला…”हां, देखा है, इसे देखा है. यह औरत तो बौराई सी हमारे गांव में घूमती रहती है.”
विजेंद्र राहगीर के पांव में गिर पड़े और राहगीर के साथ भागते-भागते वह Uttarakhand के उस गांव पहुंचे. वहीं एक चौराहा था और सड़क के दूसरे कोने पर एक महिला बैठी थी. “लीला”… वह नज़र जिससे नज़र मिलाने को “नज़र” तरस गई थी.
वह लीला थी. विजेंद्र, लीला का हाथ पकड़कर अबोध बच्चे की तरह रोते रहे. इस तलाश ने उन्हें तोड़ दिया था. भावनाएं और संवेदनाएं आखों से अविरल बह रही थीं. आंखें पत्थर हो चुकी थीं, फिर भी भावनाओं का वेग उन्हें चीरता हुआ बह निकला था.
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लीला की मानसिक हालत उस समय स्थिर नहीं थी. वह उस शख्स को भी नहीं पहचान पाई, जो उसे इस जगत में सबसे ज्यादा प्यार करता था. विजेंद्र ने लीला को उठाया और घर ले आए. 12 जून 2013 से बिछड़े बच्चे अपनी मां को 19 महीने के अंतराल के बाद देख रहे थे. आखों से आंसुओं का सैलाब बह रहा था.
यह 19 महीने विजेंद्र सिंह राठौर के जीवन का सबसे कठिनतम दौर था. परन्तु इस कठिनाई के बीच भी विजेंद्र के हौसले को एक धागे ने बांधे रखा. वह “प्रेम” का धागा है. एक पति का अपनी पत्नी के प्रति प्रेम और समर्पण, जिसने प्रकृति के आदेश को भी पलट कर रख दिया. लीला के साथ बाढ़ में बह जाने वाले अधिकतर लोग नहीं बचे, लेकिन लीला बच गई. शायद विजेंद्र प्रभु से भी कह रहे थे…
“वह जीवित है” और प्रभु को भी विजेंद्र के प्रेम और समर्पण के आगे अपना फैसला बदलना पड़ा.