Widow: विधवाओं की नगरी!
विनय संकोची सन् १८५७ की क्रांति के बारे में तमाम लोग जानते हैं और गाहे-बगाहे इस महान क्रांति की चर्चा…
चेतना मंच | December 7, 2021 12:21 PM
विनय संकोची
सन् १८५७ की क्रांति के बारे में तमाम लोग जानते हैं और गाहे-बगाहे इस महान क्रांति की चर्चा भी होती रहती है। लेकिन सन् १८५६ में एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति हुई थी, जिसके बारे में न तो ज्यादा लोग जानते हैं और न ही जानने के इच्छुक हैं। आज ही के दिन यानी ७ दिसम्बर, १८५६ को देश में पहली बार आधिकारिक रूप से ‘हिन्दू विधवा’ का विवाह सम्पन्न कराया गया था।
महान् समाज सुधारक राजा राममोहन राय के सच्चे उत्तराधिकारी श्री ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अथक प्रयासों से १८५६ के जुलाई माह में अंग्रेजी सरकार ने ‘हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम’ पारित किया था। आज की पीढ़ी श्री ईश्वर चंद्र विद्यासागर के बारे में शायद कुछ भी नहीं जानती है। ये ऐसे समाज सुधारक थे जिन्होंने विधवा विवाह के अपने आंदोलन को बल प्रदान करने के लिए अपने नौजवान पुत्र का विवाह एक विधवा के साथ सम्पन्न करवाकर अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया था।
१८५६ के पहले के किसी कानून में विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार नहीं था। यह स्थिति तो तब थी जब वेदों में एक विधवा को सभी अधिकार देने एवं दूसरा विवाह करने का अधिकार दिया गया है। वेद का कथन है-
उदीष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेंद पत्युर्जनित्वमभि सम्बभूथ।।
अर्थात् पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा उसकी याद में अपना सारा जीवन व्यतीत कर दे, ऐसा कोई धर्म नहीं कहता है। उस स्त्री को पूरा अधिकार है कि वह आगे बढ़कर किसी अन्य पुरुष से विवाह करके अपना जीवन सफल बनाये।
वेदों ने तो कहा ही कहा, कानून भी बन गया लेकिन आज भी समाज में विधवाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। हालांकि काफी बदलाव हुए हैं लेकिन विधवाओं को आज भी घर-परिवार से लेकर तथाकथित प्रगतिशील समाज में तिरस्कृत-बहिष्कृत और किसी हद तक उत्पीडि़त-अपमानित होना पड़ रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो देश का पवित्र धाम वृन्दावन ‘विधवाओं की नगरी’ कभी नहीं कहलाता। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाभूमि श्रीवृन्दावन धाम में लगभग २० हजार विधवाएं हैं, जो भीख मांगकर, कीर्तन-भजन करके, भंडारों में पुरियां बेलकर जैसे तैसे पेट भरने को मजबूर हैं। फुटपाथों, मंदिरों, रेलवे स्टेशन पर पड़ी रहने वाली और वहीं पर दम तोड़ जाने वाली बूढ़ी विधवाओं की संख्या कम नहीं है।भजनाश्रमों में आठ-आठ घंटे ढोलक-झांझ-मंजीरे बजाने वाली विधवाओं को शाम को मात्र ६ से ८ रुपये देकर संचालक-मठाधीश ‘परोपकार’ करके प्रसन्न होते नहीं अघाते हैं।
उपेक्षा की शिकार, अपनों के गहरे जख्म और वक्त की मार से टूटी विधवाओं का सबसे बड़ा आश्रय स्थल वृन्दावन धाम है। अपने बच्चों द्वारा प्रताडि़त किये जाने से आहत वृंदावन में प्रभु सहारे आ पडऩे वाली विधवाओं की संख्या कम नहीं है। इन सभी विधवाओं को मानसिक के साथ-साथ शारीरिक उत्पीडऩ का शिकार होने की खबरें इस पवित्र नगरी से छन-छन आती रहती हैं। वैसे भी आजकल विरले ही होते हैं जो नि:स्वार्थ भाव से किसी गरीब गुरबा की मदद करने को आगे आते हों। हां-मंदिरों-आश्रमों में जरूर दिल खोलकर ‘दान’ करने वालों की संख्या तो बहुत बड़ी जरूर है। ये दानदाता क्या नहीं जानते कि उनके दान का लाभ पंडे-पुजारियों-ट्रस्टों को पहुंचता है। हाथ फैलाकर एक-दो रुपये मांगती विधवाओं को हेय दृष्टि से देखते-दुत्कारते लोग भगवान को प्रिय होंगे, कम से कम मैं तो ऐसा नहीं समझता हूं। पुराणों का कथन है-‘जहां नारी का सम्मान होता है, वहां देवता वास करते हैं’-इसका अर्थ यह भी तो है कि जहां नारी का सम्मान नहीं होता वहां देवता नहीं बसते हैं। वृंदावन धाम में अंधेरी कोठरियों में आधा पेट भोजन करने वाली हजारों विधवाओं की उपेक्षा-अपमान देखकर भी क्या इस पवित्र भूमि पर देवता सचमुच रहते होंगे? सवाल कड़वा है लेकिन सवाल तो सवाल है और इसका उत्तर जानते हुए भी कोई उत्तर देना नहीं चाहेगा। देश में विधवाओं की संख्या ५ करोड़ से ज्यादा होने का अनुमान है। ‘हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कानून’ को बने १६४ वर्ष हो गये हैं लेकिन कितनी विधवाओं को इस कानून का उपयोग करने का अधिकार परिवार और समाज ने दिया है, यह शोध का विषय हैं। बदलाव हुए हैं लेकिन अभी भी बहुत कुछ बदले जाने की जरूरत है, खासतौर पर सोच।