Dharam Karma : वेद वाणी

Rig Veda
locationभारत
userचेतना मंच
calendar29 Nov 2025 07:49 PM
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Sanskrit: हिरण्यरूपमुषसो व्युष्टावयस्थूणमुदिता सूर्यस्य। आ रोहथो वरुण मित्र गर्तमतश्चक्षाथे अदितिं दितिं च॥ ऋग्वेद ॥

Hindi: हे शासक और मंत्रियों! आप प्राण और उदान के समान हैं। जिस प्रकार उषा:काल में स्वर्ण रथ पर चढ़कर सूर्य पृथ्वी और उसको रहने वालों को देखता है और उनका उपकार करता है। उसी प्रकार आप भी अपने राज्य को देखो और राज्य में रहने वालों का उपकार करो। (ऋग्वेद ५-६२-८) #vedgsawana

English: O rulers and ministers! You are like prana and udana. Just as the Sun, riding on the golden chariot at dawn, looks at the earth and its inhabitants and does their welfare. In the same way, look at your state and do the welfare of the people living in the state. (Rig Veda 5-62-8) #vedgsawana

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Sanskrit: हिरण्यरूपमुषसो व्युष्टावयस्थूणमुदिता सूर्यस्य। आ रोहथो वरुण मित्र गर्तमतश्चक्षाथे अदितिं दितिं च॥ ऋग्वेद ॥

Hindi: हे शासक और मंत्रियों! आप प्राण और उदान के समान हैं। जिस प्रकार उषा:काल में स्वर्ण रथ पर चढ़कर सूर्य पृथ्वी और उसको रहने वालों को देखता है और उनका उपकार करता है। उसी प्रकार आप भी अपने राज्य को देखो और राज्य में रहने वालों का उपकार करो। (ऋग्वेद ५-६२-८) #vedgsawana

English: O rulers and ministers! You are like prana and udana. Just as the Sun, riding on the golden chariot at dawn, looks at the earth and its inhabitants and does their welfare. In the same way, look at your state and do the welfare of the people living in the state. (Rig Veda 5-62-8) #vedgsawana

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धर्म-अध्यात्म: मृत्यु अटल सत्य है!

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locationभारत
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calendar08 Oct 2021 10:54 AM
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 विनय संकोची

मृत्यु अवश्यंभावी है, वह आकर रहेगी। आज तक ऐसा कोई उपाय मानव नहीं तलाश पाया है, जो मृत्यु को टाल सके। मृत्यु को टलना भी नहीं चाहिए, क्योंकि उसका आना ही तो नए वस्त्र धारण करना है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में मृत्यु को वस्त्र बदलने के समान मानते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 'जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर, दूसरे नए वस्त्र ग्रहण करता है, उसी तरह जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर, दूसरे नए शरीरों को प्राप्त करता है।'

नए वस्त्रों को धारण करने से या यूं कहें कि पुराने वस्त्रों को उतार फेंकने से मनुष्य का मन प्रफुल्लित होता है, आनंदित होता है, रोमांचित होता है यानी खुशी मिलती है और यही बात मृत्यु पर भी लागू होती है। फिर मृत्यु से डरना क्यों? मृत्यु तो कपड़े बदलने जैसा है,फिर भय कैसा?

परंतु मनुष्य जन्म लेने के बाद जब सोचने समझने की स्थिति में आता है, तो उसे सबसे ज्यादा भय मरने से ही लगता है। वह सारा जीवन मृत्यु की चिंता से ग्रस्त रहता है। मृत्यु अडिग है, अटल है, कटु सत्य है, अवश्यंभावी और अनिवार्य है। जो होना है और जिसे रोका नहीं जा सकता तो क्यों न उसके प्रति सकारात्मक सोच विकसित कर लें।

सभी आस्तिक जन किसी न किसी रूप में परमात्मा को मानते हैं। यह भी मान्यता है कि व्यक्ति अच्छे कर्म करता है, तो उसे परमात्मा के श्रीचरणों में स्थान मिलता है। अर्थात् मोक्ष यानी आवागमन के चक्कर से मुक्ति। मोक्ष का साधन अच्छे कर्म तो निश्चित रूप से रहे लेकिन माध्यम तो मृत्यु ही है, जो मृत्यु मोक्ष का, मुक्ति का माध्यम है, उससे भयभीत होकर, चिंतित होकर रहने से कहीं ज्यादा जरूरी है, अच्छे काम करना खुश रहना और दूसरों को खुश रखना। दूसरों के दु:ख दर्द को अपना दु:ख दर्द समझना। परोपकार को धर्म के रूप में मान्यता प्रदान करना। यह नहीं हो सकता कि मृत्यु को भूल ही जाएं। पहली बात तो यह कि मृत्यु को मस्तिष्क से निकाल कर बाहर नहीं किया जा सकता, दूसरे मृत्यु याद रहेगी तभी तो हमारा मन सुकर्मों की और लगेगा और बुरे कर्मों से दूर भागेगा। मृत्यु को याद रखें, लेकिन उस से डरें नहीं। मृत्यु तो हमारी मित्र है, जो हमारी स्मृति में बनी रहकर हमारी इस लोक और परलोक को सुधारने में हमारी सहायता करती है।

जीवन और मृत्यु एक नदी के दो किनारे हैं कभी हम इस किनारे खड़े होते हैं तो कभी स्वयं को दूसरे किनारे पर खड़ा पाते हैं। कब किस किनारे खड़े होना है, कितनी देर खड़े होना है इसे हम निर्धारित नहीं करते। यह काम तो विधाता ने अपने हाथ में ही ले रखा है।

अपनी कालजयी रचना 'कामायनी' में जयशंकर प्रसाद ने मृत्यु को चिरनिद्रा के रूप में अभिव्यक्त किया है- मृत्यु, अरी चिरनिद्रे तेरा अंक हिमानी सा शीतल। तू अनंत में लहर बनाती काल जल्दी सी हलचल।।

हे मृत्यु! तेरी गोद सफेद बर्फ के समान शीतल है। तू अनंत समय रूपी सागर में उठी एक लहर के समान है, जो उसके तल पर हलचल मचा देती है।

भगवान गौतम बुद्ध के निर्माण की बेला में उनका सर्वप्रिय शिष्य आनंद जब जोर-जोर से विलाप करने लगा, तो भगवान बुद्ध ने कहा - 'आनंद! यह वेला विलाप करने की नहीं है, तुझे स्वयं अब दीपक बनना चाहिए और मेरी परंपरा कायम रख दूसरों के सम्मुख आदर्श स्थापित करना चाहिए।' यदि मृत्यु की चिंता करने के बजाय आदर्श स्थापित करने का प्रयास किया जाए तो जीवन धन्य हुआ मानो।