Hindi Kahani - बालक का बलिदान

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calendar03 Apr 2023 03:31 PM
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Hindi Kahani - बालक का बलिदान

बहुत समय पहले चित्रकूट नगरी में चंद्रावलोकन नाम का एक राजा राज्य करता था। समस्त सुख-सुविधाओं एवं सम्पत्तियों के रहने पर भी राजा के मन में एक ही चिंता थी उसे अपने योग्य पत्नी नहीं मिल रही थी। एक दिन वह अपने मन का उद्वेग मिटाने के लिए अपने अनुचरों के साथ जंगल में शिकार खेलने गया। पशुओं का पीछा करते हुए राजा ने अकेले ही वन का भीतरी भाग देखने की इच्छा से एड़ी की कड़ी चोट मार कर घोड़े को आगे बढ़ाया। एड़ी की चोट और चाबुक की फटकार से घोड़ा उत्तेजित हो गया और वह वायुवेग से दौड़ता हुआ, क्षण-भर में दस योजन की दूरी तय करके राजा को दूसरे वन में ले गया। वहां पहुँच कर घोड़ा रुका, तब राजा को दिग्भ्रम हो गया। थका हुआ राजा जब इधर-उधर भटक रहा था, तभी उसकी नजर एक सरोवर पर पड़ी। वहां जाकर वह घोड़े से उतरा और घोड़े को पानी पिलाकर खुद पानी पिया। फिर थकान मिटाने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठकर इधर-उधर देखने लगा।

Hindi Kahani - बालक का बलिदान

तभी उसकी नजर एक अशोक वृक्ष के नीचे अपनी सखी के साथ बैठी एक मुनिकन्या पर पड़ी। उसका सौंदर्य देखकर कामदेव के बाणों से घायल होकर राजा सोचने लगा- 'यह कौन है? क्या यह सावित्री है, जो सरोवर में स्नान करने आई हुई है? या शिव की गोद से छूटी पार्वती है।' यह सोचकर राजा उसके पास गया।

उस कन्या ने भी राजा को देखा, तब उसके रूप से उसकी आँखों में चकाचौंध भर गई। वह सोचने लगी- 'इस वन में आने वाला यह कौन है? कोई सिद्ध है या विद्याधर ? इसका रूप तो संसार की आँखों को कृतार्थ करने वाला है।' मन-ही-मन ऐसा सोचकर और लज्जा के कारण तिरछी नजरों से राजा को देखती हुई वह वहां से जाने लगी।

तब राजा आगे बढ़कर उसके पास गया और बोला आदमी दूर - 'सुन्दरी! जो से आया है, जिसे तुमने पहली बार देखा है और जो केवल तुम्हारा दर्शन मात्र चाहता है, उसके स्वागत-सत्कार का तुम आश्रमवासियों का यह कैसा ढंग है कि तुम उससे दूर भागी जा रही हो?"

राजा की बात सुनकर उसकी सखी ने उसे वहां बिठाया और उसका स्वागत-सत्कार किया। तब उत्सुक राजा ने उससे प्रीतिपूर्वक पूछा- 'भद्रे ! तुम्हारी इस सखी ने किस पुण्यवान वंश को अलंकृत किया है? इसके नाम के वे कौन-से अक्षर हैं, जो कानों में अमृत उड़ेलते हैं? और इस निर्जन वन में, पुष्प के समान कोमल अपने शरीर को तपस्वियों की तरह क्यों कष्ट दे रही है?

यह सुनकर उसकी सखी बोली- 'यह महर्षि कण्व की पुत्री है। इसका नाम इन्दीवर प्रभा है। पिता की आज्ञा से यह इस सरोवर में स्नान करने के लिए आई है। इसके पिता का आश्रम भी यहाँ से बहुत दूर नहीं है।'

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यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और घोड़े पर सवार होकर उस कन्या को माँगने के लिए ऋषि कण्व के आश्रम की ओर चल पड़ा। आश्रम में पहुँच कर उसने मुनि के चरणों की वंदना की। मुनि ने भी उनका आतिथ्य किया फिर उस ज्ञानी मुनि ने कहा- 'वत्स, चन्द्रावलोकन ! तुम्हारे हित की यह जो बात मैं कहता हूँ, उसे ध्यान से सुनो। संसार में प्राणियों को मृत्यु से जैसा भय है, वह तो तुम जानते ही हो, फिर अकारण ही तुम इन बेचारे मृगों की हत्या क्यों करते हो? विधाता ने डरे हुओं की रक्षा के लिए क्षत्रिय के शस्त्र का निर्माण किया है। अत: तुम धर्म से प्रजा की रक्षा करो, शत्रुओं का नाश करो। राज्य-सुख भोगो, धन का दान करो और दिशाओं में अपना यश फैलाओ। काल की क्रीड़ा के समान हिंसक मृगया के इस व्यसन को छोड़ दो, क्योंकि अनेक अनर्थों वाली उस मृगया से क्या लाभ, जो मारने वाले, मरने वाले और दूसरों के लिए भी प्रमाद का कारण है। क्या तुमने राजा पाण्डु का वृत्तांत नहीं सुना?' मृगया कण्व मुनि की ये बातें सुनकर राजा उनका सम्मान करते हुए बोला- 'मुनिवर। आपने मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया कि मुझे यह शिक्षा दी। मैं का व्यसन छोड़ता हूँ। सब प्राणी अब निर्भय हो जाएं।'

यह सुनकर मुनि ने कहा- 'तुमने प्राणियों को जो यह अभयवचन दिया, इससे मैं संतुष्ट हो गया। अतः तुम इच्छित वर माँगो । '

राजा ने कहा- ‘मुनिवर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न है, तो अपनी कन्या इन्दीवरप्रभा को मुझे दे दें।' राजा के इस प्रकार याचना करने पर मुनि ने अपनी कन्या का विवाह उससे कर दिया। फिर राजा मुनिकन्या इन्दीवर प्रभा को अपने घोड़े पर बिठा कर अपने नगर की ओर चल पड़े, चलते-चलते उन्हें रात हो गई। एक तालाब के किनारे राजा ने एक पीपल का वृक्ष देखा। उसकी शाखाओं और पत्तों के समूह से ढकी हुई तथा हरी दूबवाली उस जगह को देखकर राजा ने मन में सोचा कि मैं रात यहीं बिताऊँगा। यह सोचकर वह घोड़े से उतरा और अपनी पत्नी मुनिकन्या के साथ उसी वृक्ष के नीचे दूब की हरी शय्या पर सो गया। इस प्रकार, राजा ने इन्दीवर प्रभा के साथ रतिक्रीड़ा का आनंद लेते हुए वह रात एक क्षण के समान बिता दी।

सवेरा होने पर राजा ने शय्या का त्याग किया। संध्या वंदन से निबटकर और अपनी पत्नी को साथ लेकर वह अपनी सेना से मिलने के लिए आगे बढ़ने लगे। तभी अचानक ही एक ब्रह्मराक्षस वहां आ पहुँचा और क्रोधित होकर राजा से बोला- ‘अरे नीच! मैं ज्वालामुख नाम का राक्षस हूँ। पीपल का यह वृक्ष मेरा निवास-स्थान है। देवता भी इसकी अवमानना नहीं कर सकते। मैं रात को जब घूमने-फिरने गया था, तो तूने इस जगह पर हमला किया और स्त्री सहित यहाँ रात बिताई। अब तू अपने इस अविनय का फल भोग। अरे दुराचारी! वासना से तेरी सुध-बुध जाती रही। मैं तेरा हृदय निकाल कर खा जाऊँगा और तेरा खून पी जाऊँगा ।'

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राजा विनयपूर्वक बोला- 'अनजाने में मुझसे यह अपराध हो गया है। मुझे क्षमा कर दें। मैं आपको मनचाहा मनुष्य या पशु लाकर दूंगा, जिससे आपकी तृप्ति हो जाएगी। अतः क्रोध त्याग कर आप प्रसन्न हों।' राजा की बात सुनकर ब्रह्मराक्षस शांत हो गया। उसने मन में सोचा,

'चलो इसमें हानि ही क्या है।' यह सोचकर उसने कहा- 'ऐसे पुत्र की भेंट मुझे दो, जो सात वर्ष का होने पर भी वीर हो, विवेकी हो और अपनी इच्छा से तुम्हारे लिए अपने को दे सके और जब वह मारा जाए, तो भूमि पर डालकर उसकी माता उसके हाथ और पिता उसके पाँव मजबूती से पकड़े रहें तथा तलवार के प्रहार से तुम्हीं उसे मारो, तो मैं तुम्हारे इस अविनय को क्षमा कर दूँगा। नहीं तो राजन् ! मैं शीघ्र ही तुम्हारे लाव-लश्कर के साथ तुम्हें मार डालूँगा।'

भय के कारण राजा ने उसकी बात मान ली। बोला- 'ठीक है, ऐसा ही होगा।' यह कह कर राजा इन्द्रीवर प्रभा के साथ घोड़े पर सवार होकर, अपनी सेना को ढूँढता हुआ वहां से चल पड़ा, लेकिन उसका मन बड़ा उदास था। वह सोचने लगा- 'हाय, मैं कैसा बावला हूँ। आखेट और काम से मोहित होकर सहसा ही, पाण्डु के समान, विनाश को प्राप्त हुआ हूँ। भला मुझे ब्रह्मराक्षस के लिए वैसा उपहार कहाँ मिलेगा? मैं अपने नगर को ही चलता हूँ और देखें कि ऐसा होनहार है क्या?' वह यह सोचता जा रहा था कि उसकी सेना उसे ढूँढती हुई उससे आ मिली। अब वह अपनी सेना और पत्नी के साथ अपने नगर चित्रकूट आ गया।

राजा को अनुकूल पत्नी मिली है, यह देखकर राजधानी में उत्सव मनाया गया लेकिन मन का दुःख मन में ही दबाए हुए राजा ने बाकी दिन बिता दिया। अगले दिन एकान्त में, उसने अपने मंत्रियों से सारा वृत्तांत कह सुनाया, सुनकर उनमें से सुमित नामक एक मंत्री बोला- 'महाराज! आप चिंता न करें। मैं ढूँढ़ कर वैसा उपहार ला दूँगा, क्योंकि धरती अनेक आश्चर्यो से भरी है। '

इस प्रकार राजा को आश्वासन देकर मंत्री ने शीघ्र ही सात वर्ष की आयु वाले बालक की सोने की मूर्ति बनवाई। उसने मूर्ति को रत्नों सजा कर एक पालकी पर बिठा दिया। वह पालकी इस घोषणा के साथ नगरों, गाँवों और चरागाहों में जहाँ-तहाँ घुमाई गई। मंत्री के द्वारा उसके आगे-आगे ढिंढोरा पीटकर लगातार यह घोषणा की जा रही थी- सात वर्ष का जो ब्राह्मण पुत्र, समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए अपनी इच्छा से अपना शरीर ब्रह्मराक्षस को सौंपेगा और इस कार्य के लिए न केवल अपने माता-पिता की अनुमति ही ले लेगा, बल्कि जब वह मारा जाएगा, तब स्वयं उसके माता-पिता उसके हाथ-पैर पकड़े रहेंगे, अपने माता-पिता की भलाई चाहने वाले ऐसे बालक को राजा सौ गाँवों के साथ, यह सोने और रत्नों वाली मूर्ति दे देंगे।'

यह घोषणा एक सात वर्ष के ब्राह्मण बालक ने सुनी। वह बालक बड़ा वीर और अद्भुत आकृति वाला था। पूर्वजन्म के अभ्यास से वह वचन में भी सदा परोपकार में लगा रहा था। ऐसा जान पड़ता था, मानो प्रजा के पुण्य फल ने ही उसके रूप में शरीर धारण कर रखा हो। वह ढिढोरा पीटने वालों के पास जाकर बोला- 'आप लोगों के लिए मैं अपने को अर्पित करूंगा। मैं अपने माता-पिता को समझा-बुझा कर अभी आता हूँ।'

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'समस्त उसकी बात सुनकर ढिंढोरा पीटने वाले प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे अनुमति दे दी। घर जाकर बालक ने हाथ जोड़कर अपने माता-पिता से कहा प्राणियों के कल्याण के लिए मैं अपना यह नश्वर शरीर दे रहा हूँ, अत: आप लोग मुझे आज्ञा दें और इस प्रकार अपनी दरिद्रता को भी दूर करें। इसके लिए राजा सौ गाँवों सहित सोने की रत्नों वाली मेरी यह प्रतिकृति (मूर्ति) मुझे देंगे, जिसे मैं आप लोगों को सौंप दूंगा। इस प्रकार, मैं आप लोगों से भी उऋण हो जाऊँगा और पराया कार्य भी सिद्ध कर सकूँगा। दरिद्रता से छुटकारा पाकर आप लोग भी अनेक पुत्र प्राप्त कर सकेंगे।'

पुत्र की ऐसी बातें सुनकर माता-पिता ने कहा- 'बेटा! क्या तू पागल हो गया है? अथवा तुम्हें गृह- बाधा उत्पन्न हो गई है? क्योंकि ऐसा न होता, तो फिर तू ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों करता? भला धन के लिए कौन अपने पुत्र की हत्या करना चाहेगा और कौन बालक ही अपना शरीर देना चाहेगा।'

माता-पिता की बात सुनकर बालक बोला- 'मेरी बुद्धि नहीं मारी गई कि मैं बकवास करू। आप मेरी अर्थयुक्त बातें सुनें- 'यह शरीर ऐसी अपवित्र वस्तुओं से भरा है, जिन्हें कहा नहीं जा सकता। जन्म से ही यह जुगुप्सित है, दुःखों का घर है और शीघ्र ही इसे नष्ट हो जाना है। इसलिए बुद्धिमान लोगों का कहना है कि इस अत्यंत असार शरीर से संसार में जितना भी पुण्य अर्जित किया जा सके, वही सार वस्तु है। समस्त प्राणियों का उपकार करने से बढ़कर बड़ा पुण्य और क्या हो सकता है और उसमें भी अगर माता-पिता की भक्ति हो, तो देह-धारण करने का उससे अधिक फल और क्या होगा?' यह कहकर उस दृढ़-निश्चयी बालक ने शोक करते हुए अपने माता-पिता से अपनी मनचाही बात स्वीकार करवा ली।

फिर, वह राजा के सेवकों के पास गया और सुवर्ण-मूर्ति तथा उसके साथ सी गाँवों का दान-पत्र लाकर अपने माता-पिता को दे दिया। इसके बाद उन राजसेवकों को आगे करके, अपने माता-पिता के साथ राजा के पास चित्रकूट की ओर चल पड़ा। चित्रकूट पहुँचकर जब राजा चन्द्रावलोकन ने अखण्डित तेज वाले उस बालक को देखा तो वे बड़े प्रसन्न हुए। वे समझ गए कि उस बालक के रूप में उनकी रक्षा करने वाला रत्न आ पहुँचा है।

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राजा ने फूलों और चंदन के लेप से उस बालक को सजाया और उसे हाथी की पीठ पर बिठाकर उसके माता-पिता के साथ लेकर ब्रह्मराक्षस के पास चल दिया। वहां पहुँचकर राजा ने पीपल के वृक्ष के नीचे वेदी बनवाकर जैसे ही अग्नि में आहुति डाली, त्यों ही अट्टहास करता हुआ राक्षस वहां प्रकट हो गया। उसे देखकर राजा ने नम्रतापूर्वक कहा- 'राक्षसराज! आज मेरी प्रतिज्ञा का सातवाँ दिन है। अपने वायदे के मुताबिक मैं यह मानव-उपहार आपके लिए ले आया हूँ। अतः आप प्रसन्न होकर विधिपूर्वक इसे ग्रहण करें।'

राजा के इस प्रकार निवेदन करने पर ब्रह्मराक्षस ने अपनी जीभ से होंठों के दोनों किनारों को चाटते हुए ब्राह्मण-पुत्र को देखा। उसी समय उस महापराक्रमी बालक ने प्रसन्न होते हुए सोचा कि इस प्रकार अपने शरीर का दान करके मैंने जो पुण्य अर्जित किया है, उससे मुझे ऐसा स्वर्ग अथवा मोक्ष न मिले, जिससे दूसरों का उपकार नहीं होता, बल्कि जन्म-जन्मान्तर में मेरा यह शरीर परोपकार के काम आए। जैसे ही उसने मन में ये बातें सोंची, त्यों ही क्षण-भर में, फूल बरसाते हुए देव-समूह के विमानों से आकाश भर गया।

फिर उस बालक को ब्रह्मराक्षस के सम्मुख लाया गया। माँ ने उसके हाथ पकड़े, पिता ने पैर। इसके बाद राजा ज्यों ही तलवार उठाकर उसे मारने चला, त्यों ही उस बालक ने ऐसा अट्टाहास किया कि ब्रह्मराक्षस सहित सब लोग विस्मय में पड़ गए। वे अपना-अपना काम छोड़कर तथा सिर झुकाकर उस बालक का मुँह देखने लगे। Hindi Kahani

बेताल पच्चीसी से साभार

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Hindi Kavita – मौसम

Hindi Kavita – मौसम
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userचेतना मंच
calendar03 Apr 2023 09:42 AM
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Hindi Kavita – मौसम आंखों में जब आता मौसम, तोड़ किनारे जाता मौसम। मिट्टी जब मिट्टी हो जाए, बदल के चेहरे आता मौसम। रोशनदान खुला क्या रखा, यादों सा भर जाता मौसम। फूलों पे हैं ओस की बूंदे, जैसे हो मुस्काता मौसम। सूरज का बादल में छिपना, घूंघट में शर्माता मौसम। दस्तक देती है खामोशी, शोर मचाता आता मौसम। बारिश में छतरी खोली ना, बचपन सा इतराता मौसम। शाम सिंदूरी ढलता सूरज, साहिल पर अलसाता मौसम। जीवन का तो चक्र यही है, हर पल आता जाता मौसम। कुछ पल की ही धुंध है जस्सी, मंजिल है दिखलाता मौसम।
  • जस्सी
[caption id="attachment_75151" align="alignnone" width="229"]Hindi Kavita जस्सी[/caption] ———————————————— यदि आपको भी कविता, गीत, गजल और शेर ओ शायरी लिखने का शौक है तो उठाइए कलम और अपने नाम व पासपोर्ट साइज फोटो के साथ भेज दीजिए चेतना मंच की इस ईमेल आईडी पर-  chetnamanch.pr@gmail.com हम आपकी रचना को सहर्ष प्रकाशित करेंगे।  
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Hindi Kavita – बातोें ही बातों में

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calendar29 Nov 2025 02:04 AM
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बातोें ही बातों में कभी कभी, उन बातो की याद आ जाती है, जिन बातो को खुद से न कभी, याद करने की बात होती हैं।

शब्दों ही शब्दों में दबी दबी, दिल की आह बन आ जाती है, कविताओं के शब्दों में दबी, फिर एक पहचान बनी होती हैं।

कुछ न कुछ बहुत कमी कमी, मुझसे जब ये भी दूर हो जाती है, खलती है मुझे जिसकी कमी, उसकी उसमें याद बसी होती हैं।

- लोकेश शर्मा

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