नि:संकोच : भस्मासुर का भैया है अतिक्रमण!

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calendar29 Nov 2025 08:24 PM
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 विनय संकोची

अतिक्रमण एक ऐसा रोग है जिसका इलाज ना हो पाने के कारण या निरंतर बढ़ता ही चला जा रहा है। अतिक्रमण भस्मासुर का भैया है, जो छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ओपन स्पेस को भस्म करता चला जाता है। जो लोग अतिक्रमण से परेशान हैं, उनमें से ही बहुतेरों ने खुद अतिक्रमण कर रखा है।

हर शहर के चप्पे-चप्पे पर अतिक्रमण को विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है। इस के रूप अनेक हैं लेकिन नाम एक है - 'अतिक्रमण'। यह एक ऐसा मानसिक रोग है जो सभी वर्गों में समान रूप से पाया जाता है। यह ऐसी मानसिक विकृति है, जो गरीब - अमीर में कोई भेद नहीं करती है। मजे की बात तो यह है कि अतिक्रमण से होने वाली असुविधा का सामना उन्हें भी समान रूप से ही करना पड़ता है, जो अतिक्रमण के लिए दोषी हैं। कष्ट तो सह लेंगे लेकिन अतिक्रमण नहीं छोड़ेंगे।

अतिक्रमण के कारण ही तमाम बाजार संकरे होते चले गए हैं, होते चले जा रहे हैं। जहां से लोग फैलकर निकलते थे, आज सिकुड़ कर भी निकल नहीं पाते हैं। बाजारों में अतिक्रमण के लिए दुकानदारों के अलावा तो और कोई दोषी है नहीं। नालों के ऊपर दुकानें बना ली जाती हैं और कोढ़ में खाज यह कि सामान उससे भी आगे रखा जाता है। दुकानदार इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को कभी कुछ मिलता नहीं है। जो ग्राहक जिस दुकान वाले के भाग्य में लिखा है, उसी के पास जाएगा वह और कहीं जाएगा ही नहीं। रही बात यह है कि जो दिखता है, वह बिकता है तो दिखाने वाला काम बिना अतिक्रमण के भी बखूबी किया जा सकता है। दुकानदार यह क्यों नहीं सोचना चाहते कि जब ग्राहक को चलने के लिए बनाए गए बरामदे कब्जा लोगे, फुटपाथ को अपने सामान रखने का आदर्श स्थान मान लोगे, पंद्रह फुट से गहरी दुकान के बाहर आठ फुट से ज्यादा तक सामान फैला दोगे, तो ग्राहक आएगा कैसे? ग्राहक नहीं आएगा तो कमाओगे कैसे? बाजारों में अतिक्रमण का ही नतीजा है कि लोग मॉल में जाना पसंद करने लगेंगे। लोगों की मानसिकता भी बड़ी विचित्र है, करोड़ों रुपए लगाकर आलीशान कोठी बनाएंगे मगर रैम्प बनाएंगे सरकारी जमीन पर ही। उसके बाद सरकारी जमीन पर ही गेट के दोनों साइड फुलवारी लगाएंगे, कोठी की फुल लेंथ में। फुलवारी की पक्की फेंसिंग कराकर, उस सरकारी जगह को बिना रजिस्ट्री अपनी संपत्ति का हिस्सा मान लेंगे। इस पर तुर्रा ये कि फिर सड़क पतली होने की शिकायत भी करेंगे।

अतिक्रमण के बारे में कहा जा सकता है कि यह डायबिटीज जैसी खतरनाक बीमारी है, जो सौ बीमारियों को जन्म देती है। अतिक्रमण से गंदगी और जाम की समस्या आम है। गंदगी और जाम से पर्यावरण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। सब जानते हैं कि पर्यावरण का शारीरिक तथा मानसिक गतिविधियों पर गहरा प्रभाव होता है। अतिक्रमण अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। अतिक्रमण से नाले, फुटपाथ, ग्रीन बेल्ट, तालाब और न जाने क्या - क्या लुप्तप्राय: हो गया है। इस लाइलाज बीमारी का कोई तो इलाज करे।

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जन्म जयंती : झांसी की रानी की परम सहयोगी थीं वीरांगना झलकारी बाई

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locationभारत
userचेतना मंच
calendar22 Nov 2021 06:08 AM
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 विनय संकोची

आज रानी लक्ष्मीबाई की परम सहयोगी और उनकी सेना में महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति, महान स्वतंत्रता सेनानी, अदम्य साहसी, अद्भुत पराक्रमी, अपने रण कौशल से अंग्रेजों को नाकों चने चबाने के लिए विवश करने वाली, अमर वीरांगना झलकारी बाई की जन्म जयंती है। प्रसिद्ध साहित्यकार वृंदावन लाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास 'झांसी की रानी लक्ष्मीबाई' में झलकारी बाई की झलक कुछ यूं मिलती है- (झलकारी) प्रात:काल के पहले ही हाथ मुँह धोकर तैयार हो गईं। पौ फटते ही घोड़े पर बैठीं और ऐठ के साथ अंग्रेज़ी छावनी की ओर चल दिया। साथ में कोई हथियार न लिया। चोली में केवल एक छुरी रख ली।

थोड़ी ही दूर पर गोरों का पहरा मिला। टोकी गयी….झलकारी ने टोकने के उत्तर में कहा, 'हम तुम्हारे जडैल के पास जाउता है।'

यदि कोई हिन्दुस्तानी इस भाषा को सुनता तो उसकी हँसी बिना आये न रहती। एक गोरा हिन्दी के कुछ शब्द जानता था। बोला, 'कौन?'

रानी - झाँसी की रानी, लक्ष्मीबाई, झलकारी ने बड़ी हेकड़ी के साथ जवाब दिया।

गोरों ने उसको घेर लिया। उन लोगों ने आपस में तुरंत सलाह की, 'जनरल रोज़ के पास अविलम्ब ले चलना चाहिए।' उसको घेरकर गोरे अपनी छावनी की ओर बढ़े।

शहर भर के गोरों में हल्ला फैल गया कि झाँसी की रानी पकड़ ली गयी। गोरे सिपाही ख़ुशी में पागल हो गये. उनसे बढ़कर पागल झलकारी थी।

उसको विश्वास था कि मेरी जाँच - पड़ताल और हत्या में जब तक अंग्रेज़ उलझेंगे तब तक रानी को इतना समय मिल जावेगा कि काफ़ी दूर निकल जावेगी और बच जावेगी…"

अट्ठारह सौ सत्तावन के पहले स्वतंत्रता संग्राम की चाचा हो और उसमें रानी लक्ष्मीबाई का नाम ना लिया जाए यह असंभव है। कहा जाता है कि झांसी की रानी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर झलकारी बाई ने भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, हालांकि झलकारी बाई का नाम इतिहास की पुस्तकों में नहीं मिलता है। लेकिन यह सच है कि झलकारी बाई लक्ष्मी बाई की सेना की महिला शाखा की सेनापति थी।

झांसी के पास एक गांव है 'भोजला' जिसके निवासी दावा करते हैं कि झलकारी बाई उनके गांव में ही जन्मी थीं। उनका परिवार पेशे से बुनकर और बहुत गरीब था। झलकारी बाई के घराने के लोग कहते हैं कि आजादी के लिए झांसी की लड़ाई हम लोगों ने लड़ी है हमारा पूरा इतिहास है।

वैसे उस काल के अब तक मिले ऐतिहासिक दस्तावेजों में झलकारी बाई का नाम कहीं नहीं मिलता है। लेकिन केवल इस बात से यह प्रमाणित नहीं होता कि झलकारी बाई का अस्तित्व ही नहीं था। दरअसल गजट में आम लोगों का नाम नहीं होता है, उस समय तो झलकारी बाई आम महिला ही थी। यह भी कहा जाता है कि ब्रिटिश रिकॉर्ड में उन्हीं का वर्णन होता है, जो उनको महान लगते हैं, महत्वपूर्ण होते हैं या फिर जिनसे ब्रिटिश शासन घबराया रहता होगा। इन कारणों से झलकारी का नाम गजट में से गायब हो सकता है।

उस समय अपने देश में दलित वंचित समाज को सम्मान नहीं देने की परंपरा थी, इस बात का एहसास अंग्रेजों को भी था, इसलिए अंग्रेज भी उसी तरह उनको सम्मान देते थे। झलकारी वंचित समाज से थीं इसलिए अंग्रेजों ने भी उसका नाम गायब कर दिया होगा। लेकिन बुंदेलखंड की लोक स्मृतियों में झलकारी बाई को एक वीरांगना के रूप में स्थापित करने का प्रयास होता रहा है। झलकारी बाई का चरित्र समय के साथ इतना सशक्त हो गया था कि उन्होंने देश के बारे में सोचना शुरु कर दिया और अंततः देश पर अपने प्राण न्योछावर कर अमर हो गईं।

कहा जाता है कि जब 1857 के युद्ध में ब्रितानी सैनिकों का हमला हुआ तो उस समय झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मी बाई को कहा कि अपने बच्चे को लेकर तुम भाग जाओ। मैं तुम्हारी शक्ल लेकर अंग्रेज़ों को रोके रखूँगी। अंग्रेज़ सोचेंगे कि लक्ष्मीबाई से लड़ रहे हैं लेकिन तुम जा चुकी होगी। लक्ष्मीबाई बन कर वे ब्रिटिश सैनिकों को धोखा देती रहीं। बहुत वीरता से लड़ीं। कोई पहचान नहीं पाया कि लक्ष्मीबाई नहीं हैं।

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नि:संकोच : बताओ गरीब कौन?

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userचेतना मंच
calendar22 Nov 2021 05:21 AM
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 विनय संकोची

गरीब कौन है? इस प्रश्न का उत्तर ज्यादातर लोगों की दृष्टि में यह है कि जिसके पास धन न हो वह गरीब होता है। लेकिन जिसके पास धन नहीं होता वह तो निर्धन होता है और निर्धन होने का अर्थ गरीब होना बिल्कुल नहीं है। गरीबी एक सोच है, जो दिमाग में पलती है और यह किसी धनवान के दिमाग में भी पल-बढ़ सकती है। बल्कि यों कहना चाहिए कि गरीबी ज्यादा धन वालों के दिमाग में ही पलती है। एक संपन्न महिला साड़ी के एक शोरूम पर गई, उसके बेटे की शादी थी। उसमें बढ़िया-बढ़िया महंगी साड़ियां पसंद करने के बाद, दुकानदार से कहा 'एक सस्ती सी साड़ी दे दो मेड (घर की नौकरानी) को देने के लिए शादी है, उसे देनी ही पड़ेगी नहीं तो मुंह बनाएगी।' दुकानदार ने संपन्न महिला को उसकी पसंद की साड़ियां पैक कीं और वह लंबी कार में बैठकर अपनी आलीशान कोठी पर आ गई।

दो दिन बाद उसी शोरूम पर उसी महिला की मेड आई और दुकानदार से बोली - 'भैया कोई अच्छी सी साड़ी दिखाओ, मालकिन के बेटे की शादी है, उसमें देना है। मेड ने एक अच्छी और अपनी हैसियत से काफी महंगी साड़ी ली और पैदल चलकर अपनी कोठरी में पहुंच गई।

गरीब कौन हुआ, फैसला आपका है।

एक कपल एक बड़े होटल में ठहरा। महिला की गोद में छोटा सा बच्चा था। वह भूखा था। महिला ने इंटरकॉम पर मैनेजर से बच्चे के लिए दूध की व्यवस्था करने को कहा, तो मैनेजर बोला - 'इसके लिए आपको अतिरिक्त पैसा देना होगा।' महिला ने 'ओके' कहा, तो बच्चे के लिए दूध आ गया। कपल होटल छोड़कर अपनी कार से घर के लिए निकले। हाईवे पर बच्चे को भूख लगी। वह रोने रोने लगा। मिस्टर ने एक ढाबा देखकर गाड़ी रोकी। मैडम ने ढाबे वाले से पूछा बच्चे के लिए दूध मिलेगा। ढाबे वाले ने 'हां' कहा और बोतल भर कर दूध दे दिया। मिस्टर ने पूछा - 'कितने पैसे?' ढाबे वाले ने कहा - 'हम गोद के बच्चों के दूध का पैसा नहीं लेते हैं, भगवान बुरा मानेगा।' ढाबे वाले ने ज़िद करके रास्ते के लिए भी दूध दे दिया - 'रास्ते में बबुआ को भूख लगी तो कहां ढूंढते फिरियेगा।'

गरीब कौन हुआ बड़े होटल वाला या रोड साइड ढाबे वाला। फैसला आप पर छोड़ा इन दोनों घटनाओं की तरह की असंख्य घटनाएं रोजाना हमारे इर्द गिर्द घटित होती हैं। अमीरों की गरीबी और निर्धनों की अमीरी ऐसी घटनाओं से साफ झलकती है।