नि:संकोच : भस्मासुर का भैया है अतिक्रमण!

विनय संकोची
अतिक्रमण एक ऐसा रोग है जिसका इलाज ना हो पाने के कारण या निरंतर बढ़ता ही चला जा रहा है। अतिक्रमण भस्मासुर का भैया है, जो छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ओपन स्पेस को भस्म करता चला जाता है। जो लोग अतिक्रमण से परेशान हैं, उनमें से ही बहुतेरों ने खुद अतिक्रमण कर रखा है।
हर शहर के चप्पे-चप्पे पर अतिक्रमण को विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है। इस के रूप अनेक हैं लेकिन नाम एक है - 'अतिक्रमण'। यह एक ऐसा मानसिक रोग है जो सभी वर्गों में समान रूप से पाया जाता है। यह ऐसी मानसिक विकृति है, जो गरीब - अमीर में कोई भेद नहीं करती है। मजे की बात तो यह है कि अतिक्रमण से होने वाली असुविधा का सामना उन्हें भी समान रूप से ही करना पड़ता है, जो अतिक्रमण के लिए दोषी हैं। कष्ट तो सह लेंगे लेकिन अतिक्रमण नहीं छोड़ेंगे।
अतिक्रमण के कारण ही तमाम बाजार संकरे होते चले गए हैं, होते चले जा रहे हैं। जहां से लोग फैलकर निकलते थे, आज सिकुड़ कर भी निकल नहीं पाते हैं। बाजारों में अतिक्रमण के लिए दुकानदारों के अलावा तो और कोई दोषी है नहीं। नालों के ऊपर दुकानें बना ली जाती हैं और कोढ़ में खाज यह कि सामान उससे भी आगे रखा जाता है। दुकानदार इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को कभी कुछ मिलता नहीं है। जो ग्राहक जिस दुकान वाले के भाग्य में लिखा है, उसी के पास जाएगा वह और कहीं जाएगा ही नहीं। रही बात यह है कि जो दिखता है, वह बिकता है तो दिखाने वाला काम बिना अतिक्रमण के भी बखूबी किया जा सकता है। दुकानदार यह क्यों नहीं सोचना चाहते कि जब ग्राहक को चलने के लिए बनाए गए बरामदे कब्जा लोगे, फुटपाथ को अपने सामान रखने का आदर्श स्थान मान लोगे, पंद्रह फुट से गहरी दुकान के बाहर आठ फुट से ज्यादा तक सामान फैला दोगे, तो ग्राहक आएगा कैसे? ग्राहक नहीं आएगा तो कमाओगे कैसे? बाजारों में अतिक्रमण का ही नतीजा है कि लोग मॉल में जाना पसंद करने लगेंगे। लोगों की मानसिकता भी बड़ी विचित्र है, करोड़ों रुपए लगाकर आलीशान कोठी बनाएंगे मगर रैम्प बनाएंगे सरकारी जमीन पर ही। उसके बाद सरकारी जमीन पर ही गेट के दोनों साइड फुलवारी लगाएंगे, कोठी की फुल लेंथ में। फुलवारी की पक्की फेंसिंग कराकर, उस सरकारी जगह को बिना रजिस्ट्री अपनी संपत्ति का हिस्सा मान लेंगे। इस पर तुर्रा ये कि फिर सड़क पतली होने की शिकायत भी करेंगे।
अतिक्रमण के बारे में कहा जा सकता है कि यह डायबिटीज जैसी खतरनाक बीमारी है, जो सौ बीमारियों को जन्म देती है। अतिक्रमण से गंदगी और जाम की समस्या आम है। गंदगी और जाम से पर्यावरण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। सब जानते हैं कि पर्यावरण का शारीरिक तथा मानसिक गतिविधियों पर गहरा प्रभाव होता है। अतिक्रमण अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। अतिक्रमण से नाले, फुटपाथ, ग्रीन बेल्ट, तालाब और न जाने क्या - क्या लुप्तप्राय: हो गया है। इस लाइलाज बीमारी का कोई तो इलाज करे।
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विनय संकोची
अतिक्रमण एक ऐसा रोग है जिसका इलाज ना हो पाने के कारण या निरंतर बढ़ता ही चला जा रहा है। अतिक्रमण भस्मासुर का भैया है, जो छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ओपन स्पेस को भस्म करता चला जाता है। जो लोग अतिक्रमण से परेशान हैं, उनमें से ही बहुतेरों ने खुद अतिक्रमण कर रखा है।
हर शहर के चप्पे-चप्पे पर अतिक्रमण को विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है। इस के रूप अनेक हैं लेकिन नाम एक है - 'अतिक्रमण'। यह एक ऐसा मानसिक रोग है जो सभी वर्गों में समान रूप से पाया जाता है। यह ऐसी मानसिक विकृति है, जो गरीब - अमीर में कोई भेद नहीं करती है। मजे की बात तो यह है कि अतिक्रमण से होने वाली असुविधा का सामना उन्हें भी समान रूप से ही करना पड़ता है, जो अतिक्रमण के लिए दोषी हैं। कष्ट तो सह लेंगे लेकिन अतिक्रमण नहीं छोड़ेंगे।
अतिक्रमण के कारण ही तमाम बाजार संकरे होते चले गए हैं, होते चले जा रहे हैं। जहां से लोग फैलकर निकलते थे, आज सिकुड़ कर भी निकल नहीं पाते हैं। बाजारों में अतिक्रमण के लिए दुकानदारों के अलावा तो और कोई दोषी है नहीं। नालों के ऊपर दुकानें बना ली जाती हैं और कोढ़ में खाज यह कि सामान उससे भी आगे रखा जाता है। दुकानदार इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को कभी कुछ मिलता नहीं है। जो ग्राहक जिस दुकान वाले के भाग्य में लिखा है, उसी के पास जाएगा वह और कहीं जाएगा ही नहीं। रही बात यह है कि जो दिखता है, वह बिकता है तो दिखाने वाला काम बिना अतिक्रमण के भी बखूबी किया जा सकता है। दुकानदार यह क्यों नहीं सोचना चाहते कि जब ग्राहक को चलने के लिए बनाए गए बरामदे कब्जा लोगे, फुटपाथ को अपने सामान रखने का आदर्श स्थान मान लोगे, पंद्रह फुट से गहरी दुकान के बाहर आठ फुट से ज्यादा तक सामान फैला दोगे, तो ग्राहक आएगा कैसे? ग्राहक नहीं आएगा तो कमाओगे कैसे? बाजारों में अतिक्रमण का ही नतीजा है कि लोग मॉल में जाना पसंद करने लगेंगे। लोगों की मानसिकता भी बड़ी विचित्र है, करोड़ों रुपए लगाकर आलीशान कोठी बनाएंगे मगर रैम्प बनाएंगे सरकारी जमीन पर ही। उसके बाद सरकारी जमीन पर ही गेट के दोनों साइड फुलवारी लगाएंगे, कोठी की फुल लेंथ में। फुलवारी की पक्की फेंसिंग कराकर, उस सरकारी जगह को बिना रजिस्ट्री अपनी संपत्ति का हिस्सा मान लेंगे। इस पर तुर्रा ये कि फिर सड़क पतली होने की शिकायत भी करेंगे।
अतिक्रमण के बारे में कहा जा सकता है कि यह डायबिटीज जैसी खतरनाक बीमारी है, जो सौ बीमारियों को जन्म देती है। अतिक्रमण से गंदगी और जाम की समस्या आम है। गंदगी और जाम से पर्यावरण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। सब जानते हैं कि पर्यावरण का शारीरिक तथा मानसिक गतिविधियों पर गहरा प्रभाव होता है। अतिक्रमण अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। अतिक्रमण से नाले, फुटपाथ, ग्रीन बेल्ट, तालाब और न जाने क्या - क्या लुप्तप्राय: हो गया है। इस लाइलाज बीमारी का कोई तो इलाज करे।
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