Islamabad/Lahore :

Islamabad/Lahore : एक ओर जहां पाकिस्तान गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा है, वहीं दूसरी ओर उसके भीतर राजनीतिक नक्शे में भी बड़ी दरारें उभरती दिखाई दे रही हैं। हाल ही में पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में खुद प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन और उसके सहयोगी पीपीपी के सांसदों ने अलग-अलग नए प्रांतों की मांग उठाकर राजनीतिक हलकों में भूचाल ला दिया है। इन बयानों से स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि पाकिस्तान के अंदरूनी संतुलन में अस्थिरता गहराती जा रही है, और नक्शा बदलने की संभावनाओं पर भी चर्चा जोर पकड़ने लगी है।

राजनीतिक फायदे के लिए विभाजन की तैयारी?

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह महज क्षेत्रीय असंतोष की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि राजनीतिक पकड़ मजबूत करने की सुनियोजित रणनीति है। उदाहरण के तौर पर, पीएमएल-एन खैबर पख्तूनख्वा में कभी मजबूत जनाधार नहीं बना सकी है, वहीं पीपीपी का पंजाब में असर सीमित रहा है। ऐसे में सूबों के पुनर्गठन के जरिए सियासी संतुलन साधने की कोशिशें सामने आ रही हैं।

आंतरिक विघटन की आशंकाएं गहराईं

नेशनल असेंबली में उठी इन मांगों से शहबाज शरीफ सरकार की चुनौतियां और गहरी होती जा रही हैं। सत्ताधारी गठबंधन के भीतर ही उठती आवाजें अब पाकिस्तान की संवैधानिक एकता पर प्रश्नचिह्न खड़े कर रही हैं। कुछ राजनीतिक हलकों में तो यह तक कहा जा रहा है कि अब पाकिस्तान के टुकड़े होना तय है, सवाल सिर्फ वक्त का है। हालांकि सरकार की ओर से इस मुद्दे पर कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं दी गई है, लेकिन जिस तरह से सत्तारूढ़ दलों के सांसद खुद प्रांत विभाजन की मांग कर रहे हैं, उससे यह साफ है कि मामला केवल विपक्षी उकसावे का नहीं है।

क्या फिर बदलेगा पाकिस्तान का नक्शा?

इतिहासकारों और सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि यदि इस तरह की क्षेत्रीय मांगों को राजनीतिक लाभ के लिए हवा दी जाती रही, तो पाकिस्तान का मौजूदा प्रशासनिक ढांचा गंभीर खतरे में आ सकता है। देश पहले ही बलूचिस्तान और सिंध में अलगाववादी आंदोलनों से जूझ रहा है, और अब यदि पंजाब या खैबर पख्तूनख्वा जैसे क्षेत्रों में भी मांगें तेज होती हैं, तो आंतरिक विभाजन की स्थिति और स्पष्ट हो सकती है। राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक बबार्दी और अब प्रांत पुनर्गठन की मांगें यह सब मिलकर पाकिस्तान को एक संवेदनशील मोड़ पर ले आए हैं। आने वाले हफ्तों में अगर सरकार ने स्थिति को नियंत्रित नहीं किया, तो यह मुद्दा केवल सियासी नहीं, अस्तित्व का प्रश्न बन सकता है।

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