Chaitra Navratri 2023 : नवरात्रि के छठे दिन होगी देवी कात्यायनी की पूजा, माता का नाम हर लेगा सभी संकट


लोक श्रद्धा और सूर्य उपासना के प्रतीक छठ महापर्व का आज तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण दिन है। बीते दिन यानी 26 अक्टूबर को व्रतियों ने पूरे विधि-विधान से खरना का अनुष्ठान किया था। खरना की पूजा के बाद जब व्रतियों ने गुड़-चावल का प्रसाद ग्रहण किया, तभी से शुरू हुआ 36 घंटे का निर्जला व्रत, जो पूरी निष्ठा और आत्मसंयम का प्रतीक माना जाता है। अब आज का दिन संध्या अर्घ्य का दिन है। जैसे-जैसे सूरज पश्चिम की ओर ढलेगा, घाटों और नदियों के किनारे आस्था का सैलाब उमड़ पड़ेगा। हर व्रती हाथ जोड़कर डूबते सूर्य को नमन करेगा और अपने परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करेगा। इसी पावन अवसर पर कोसी भरने की एक खास परंपरा निभाई जाती है। Chhath Puja 2025
कोसी सिर्फ एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि कृतज्ञता, परंपरा और पारिवारिक एकजुटता का प्रतीक मानी जाती है। कहा जाता है कि जब किसी की मनोकामना पूरी होती है, तो वह छठी मैया को धन्यवाद स्वरूप कोसी भरता है। इस दिन दीपों की ज्योति और गीतों की गूंज से पूरा वातावरण आस्था में डूब जाता है। आइए जानते हैं — संध्या अर्घ्य के इस शुभ अवसर पर कोसी भरने की परंपरा क्यों निभाई जाती है, इसके धार्मिक अर्थ, विधि और महत्व क्या हैं। Chhath Puja 2025
छठ पूजा की पावन परंपराओं में से एक है कोसी भरना, जो व्रतियों की अटूट श्रद्धा और समर्पण का प्रतीक है। इसमें गन्नों से एक खूबसूरत छतरीनुमा मंडप तैयार किया जाता है, जिसके बीच में मिट्टी का हाथी और कलश स्थापित किया जाता है। कलश में फल, ठेकुआ और पूजा की सामग्रियां सजाई जाती हैं, जबकि दीपक की लौ उस पवित्र वातावरण को आलोकित करती है। यह परंपरा संध्या अर्घ्य के दिन निभाई जाती है, जब व्रती डूबते सूर्य को नमन करने से पहले छठी मैया के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। माना जाता है कि कोसी की लौ परिवार में सुख, समृद्धि और एकता का प्रतीक होती है और यह दीपक उस आस्था की ज्योति है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी जलती चली आ रही है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कोसी भरना केवल एक पूजा-विधि नहीं, बल्कि आस्था और कृतज्ञता का जीवंत प्रतीक है। जब किसी व्रती की मनोकामना पूरी होती है — चाहे संतान प्राप्ति की हो, सुख-समृद्धि की या किसी गंभीर संकट से मुक्ति की तो वह छठी मैया के प्रति धन्यवाद स्वरूप कोसी भरता है। यह परंपरा उस अटूट विश्वास का प्रतीक है, जो पीढ़ियों से लोक जीवन का हिस्सा रही है। कोसी की रोशनी में जलता हर दीपक मानो यह संदेश देता है कि जब निष्ठा सच्ची हो और भक्ति अडिग, तो छठी मैया हर दुःख को हर लेती हैं। परिवार की खुशहाली, संतान की लंबी आयु और अच्छे स्वास्थ्य की कामना से जुड़ी यह रस्म लोक-आस्था की सबसे उजली अभिव्यक्ति मानी जाती है।
कोसी का हर हिस्सा अपनी गहराई में एक आध्यात्मिक संदेश समेटे होता है। माना जाता है कि कोसी का घेरा परिवार की एकता और सुरक्षा का प्रतीक है — जैसे यह परिक्रमा हर सदस्य को आस्था के अदृश्य कवच से जोड़ देती हो। वहीं, गन्नों से बनी छतरीनुमा संरचना छठी मैया की कृपा, संरक्षण और आशीर्वाद का द्योतक मानी जाती है। यह परंपरा विशेष रूप से महिलाओं की श्रद्धा और दृढ़ संकल्प को दर्शाती है, जो पूरे परिवार की सुख-शांति, संतान की दीर्घायु और समृद्धि के लिए इस कठिन व्रत का पालन करती हैं। दीपों की रौशनी में सजी कोसी न केवल पूजा का हिस्सा है, बल्कि स्त्री शक्ति की निष्ठा और मातृत्व की पवित्र भावना का भी प्रतीक बन जाती है। Chhath Puja 2025
कोसी पूजन बेहद सुसंस्कृत और भावनात्मक परंपरा है, जिसकी प्रक्रिया इस प्रकार होती है—
पूजा के लिए एक सूप या टोकरी को सजाया जाता है।
उसके चारों ओर 5 या 7 गन्ने खड़े करके छतरीनुमा ढांचा बनाया जाता है।
यह संरचना पंचतत्व — जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश — का प्रतीक मानी जाती है।
टोकरी में मिट्टी का हाथी स्थापित कर उस पर सिंदूर लगाया जाता है।
हाथी के ऊपर घड़ा (कलश) रखा जाता है, जिसमें ठेकुआ, फल, मूली, अदरक आदि प्रसाद रखे जाते हैं।
घड़े और हाथी के ऊपर 12 दीपक जलाए जाते हैं, जो 12 महीनों और 24 घड़ियों का प्रतीक हैं।
दीप जलाकर पूरे परिवार के साथ छठी मैया की आराधना की जाती है। Chhath Puja 2025



Navratri 2023 / उज्जैन: बाबा भोलेनाथ की नगरी उज्जैन महाकालेश्वर मंदिर से कुछ ही दूरी पर चौबीस खंबा माता मंदिर स्थित है। जहां (Chaubiskhamba Mata Temple) देवी महामाया और महालया को कलेक्टर द्वारा मदिरा की धारा (wine stream) चढ़ाई जाती है। सदियों पुरानी इस परंपरा का निर्वाह करते हुए प्रात: पूजन पश्चात 27 किलोमीटर लम्बी नगर पूजा प्रारंभ होती, जोकि शाम तक चलती है। इस दौरान विभिन्न देवी, भैरव एवं हनुमान मंदिरों पर पूजन कार्य सम्पन्न किया जाता है। इस नगर पूजा का आयोजन तहसील स्तर पर राजस्व विभाग द्वारा किया जाता है। ऐसा केवल उज्जैन में होता है।
इस मंदिर में 12वीं शताब्दी के एक शिलालेख पर लिखा हुआ है कि उस समय के राजा ने यहां पर नागर और चतुर्वेदी व्यापारियों को लाकर बसाया था। नगर की रक्षा के लिए शहर में 24 खंबे भी लगाए गए थे। राजा विक्रमादित्य ने यहां दोनों देवियों को मदिरा की धार चढ़ाने की परंपरा शुरुआत की थी। पुरने समय में यह पूजा जमींदारों और जागीरदारों द्वारा की जाती थी।इसी परंपरा को निभाते हुए अब नगर कलेक्टर मदिरा की धार दोनों माताओं को चढ़ाते हैं।
इस बार शारदीय नवरात्रि की महाअष्टमी 29 मार्च बुधवार के दिन यहां पर माता का पूजन-अर्चन किया जाएगा। देवी महामाया और महलाया को मदिरा का भोग लगाने के बाद शहर में स्थित लगभग 40 देवी और भैरव मंदिरों में मदिरा का भोग लगाया जाता है। 24 खंबा से आरंभ होने वाली इस यात्रा का समापन अंकपात मार्ग पर स्थित हांडी फोड़ भैरव पर किया जाता है। जो अमला नगर पूजा के लिए निकलता है, उसमें सबसे आगे ढोल, उसके पीछे झण्डा लिए कोटवार रहता है। एक अन्य कोटवार के हाथ में पीतल का लोटा होता है। इस लोटे के पेंदे में एक छेद रहता है। इस छेद का मुंह सूत के धागे से इस प्रकार से बंद किया जाता है कि लोटे में भरी मदिरा बूंद-बूंद धारा के रूप में जमीन पर गिरे। 27 किलोमीटर तक मदिरा की धारा जमीन पर गिरती रहती है। मान्यता है कि मदिरा पीने के लिए राक्षसगण आते हैं।लोगों का मान्यता है कि देवी लोगों की रक्षा करती हैं और महामारी से बचाकर रखती हैं।
पूर्व के समय में यह द्वार श्री महाकालेश्वर मंदिर जाने का मुख्य प्रवेश द्वार रहा होगा। ये द्वार उत्तर दिशा की ओर बना हुआ है। इस द्वार में कुल 24 खंभे लगे हुए हैं, इसीलिए इस क्षेत्र को 24 खंभा माता मंदिर कहा जाता है। पूर्व में यहां पाड़ों की बलि दी जाती थी, वर्तमान में यहां बलि प्रथा वर्जित है।
Navratri 2023 / उज्जैन: बाबा भोलेनाथ की नगरी उज्जैन महाकालेश्वर मंदिर से कुछ ही दूरी पर चौबीस खंबा माता मंदिर स्थित है। जहां (Chaubiskhamba Mata Temple) देवी महामाया और महालया को कलेक्टर द्वारा मदिरा की धारा (wine stream) चढ़ाई जाती है। सदियों पुरानी इस परंपरा का निर्वाह करते हुए प्रात: पूजन पश्चात 27 किलोमीटर लम्बी नगर पूजा प्रारंभ होती, जोकि शाम तक चलती है। इस दौरान विभिन्न देवी, भैरव एवं हनुमान मंदिरों पर पूजन कार्य सम्पन्न किया जाता है। इस नगर पूजा का आयोजन तहसील स्तर पर राजस्व विभाग द्वारा किया जाता है। ऐसा केवल उज्जैन में होता है।
इस मंदिर में 12वीं शताब्दी के एक शिलालेख पर लिखा हुआ है कि उस समय के राजा ने यहां पर नागर और चतुर्वेदी व्यापारियों को लाकर बसाया था। नगर की रक्षा के लिए शहर में 24 खंबे भी लगाए गए थे। राजा विक्रमादित्य ने यहां दोनों देवियों को मदिरा की धार चढ़ाने की परंपरा शुरुआत की थी। पुरने समय में यह पूजा जमींदारों और जागीरदारों द्वारा की जाती थी।इसी परंपरा को निभाते हुए अब नगर कलेक्टर मदिरा की धार दोनों माताओं को चढ़ाते हैं।
इस बार शारदीय नवरात्रि की महाअष्टमी 29 मार्च बुधवार के दिन यहां पर माता का पूजन-अर्चन किया जाएगा। देवी महामाया और महलाया को मदिरा का भोग लगाने के बाद शहर में स्थित लगभग 40 देवी और भैरव मंदिरों में मदिरा का भोग लगाया जाता है। 24 खंबा से आरंभ होने वाली इस यात्रा का समापन अंकपात मार्ग पर स्थित हांडी फोड़ भैरव पर किया जाता है। जो अमला नगर पूजा के लिए निकलता है, उसमें सबसे आगे ढोल, उसके पीछे झण्डा लिए कोटवार रहता है। एक अन्य कोटवार के हाथ में पीतल का लोटा होता है। इस लोटे के पेंदे में एक छेद रहता है। इस छेद का मुंह सूत के धागे से इस प्रकार से बंद किया जाता है कि लोटे में भरी मदिरा बूंद-बूंद धारा के रूप में जमीन पर गिरे। 27 किलोमीटर तक मदिरा की धारा जमीन पर गिरती रहती है। मान्यता है कि मदिरा पीने के लिए राक्षसगण आते हैं।लोगों का मान्यता है कि देवी लोगों की रक्षा करती हैं और महामारी से बचाकर रखती हैं।
पूर्व के समय में यह द्वार श्री महाकालेश्वर मंदिर जाने का मुख्य प्रवेश द्वार रहा होगा। ये द्वार उत्तर दिशा की ओर बना हुआ है। इस द्वार में कुल 24 खंभे लगे हुए हैं, इसीलिए इस क्षेत्र को 24 खंभा माता मंदिर कहा जाता है। पूर्व में यहां पाड़ों की बलि दी जाती थी, वर्तमान में यहां बलि प्रथा वर्जित है।