Chetna Manch Special : इशारों इशारों में झूठे सपने दिखाने वाले नेताओं व संगठनों की पोल खोलने वाला अदभुत आलेख , ज़रूर पढ़ें

Banam
Chetna Manch Special
locationभारत
userचेतना मंच
calendar29 Nov 2025 02:48 PM
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  Chetna Manch Special : नोएडा व ग्रेटर नोएडा क्षेत्र में सक्रिय रहे एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने खास अन्दाज़ में ढेर सारे लोगों की पोल खोल दी है । इस आलेख में आपको आज की एक कड़वी हक़ीक़त से परिचित होने का अवसर मिल रहा है ।

लिहाज़ी स्वभाव से जन्मा घाटा

रवि अरोड़ा महाभारत जैसा धारावाहिक, दर्जनों हिट फिल्मों और अनेक कालजई उपन्यासों के सुप्रसिद्ध लेखक राही मासूम रज़ा ने एक बार कहा था ' नई पीढ़ी हमसे अधिक घाटे में है। हमारे पास ख्वाब नहीं थे और आज की पीढ़ी के पास झूठे ख्वाब हैं '। रज़ा साहब खांटी के कम्युनिस्ट थे और जीवन भर उन्होंने साम्यवाद की लड़ाई लड़ी मगर फिर भी न जाने क्यों उन्होंने यह कह दिया कि हमारे पास ख्वाब ही नहीं थे ? रज़ा साहब से सहमत अथवा असहमत होने की तमाम दलीलें दी जा सकती हैं मगर मेरे खयाल से रज़ा साहब के पास ख्वाब तो जरूर थे मगर यह बात और है कि वे टूटे फूटे थे अथवा वक्त की ठोकरों से टूट गए । मगर यकीनन आज जो ख्वाब देखे अथवा दिखाए जा रहे हैं वे अवश्य ही झूठे हैं।
[caption id="attachment_104361" align="aligncenter" width="700"]Chetna Manch Special Chetna Manch Special[/caption] Chetna Manch Special अपने मुल्क का स्वभाव थोड़ा लिहाज़ी है। शोर शराबे और धूम धड़ाके से कही गई कोई भी बात उसे ठीक ही जान पड़ती है। उसके ख्वाबों के दायरे में भी यही सब कुछ होता है। किसी ने ख्वाब थमाया कि साम्यवाद आयेगा तो उसके साथ हो लिए । किसी ने कहानी सुनाई कि साम्यवाद नहीं समाजवादी व्यवस्था से ही देश का भला होगा तो उसके पीछे चल दिए । आजकल बाज़ार में ख्वाबों के नए सौदागरों की धूम है। खयाली प्रोडक्ट हिंदू राष्ट्र, अखंड भारत और न जाने किस ख्वाब की फॉरवर्ड ट्रेडिंग धड़ल्ले से हो रही है। कोई नहीं पूछ रहा कि खबाव कैसे साकार होगा अथवा हो भी सकेगा या नहीं ? जो बेच रहे हैं, भला वे ऐसी बातों के जवाब अपने आप क्यों देंगे ? भारत का संविधान बनाने वाले हमारे नायकों ने शायद आने वाले खतरों को सूंघ लिया था और पहले दिन से ही प्रावधान कर दिया था कि संविधान में मामूली परिवर्तन तो हो सकते हैं मगर उसके मूल सिद्धांतों में आमूलचूल बदलाव नहीं हो सकता । संविधान का ढांचा ही ऐसा है कि सत्ता में वाम पंथी हों अथवा दक्षिण पंथी या फिर कोई और, भारत की धर्मनिर्पेक्षता अक्षुण्य ही रहेगी । हिंदू राष्ट्र का सपना दिलाने वाले भी यह सच जानते हैं और यही कारण है कि सीधे सीधे नहीं वरन चोर दरवाजे से अपने सपने को सच होता दिखाने का प्रयास कर रहे हैं । स्कूली किताबों के सिलेबस में परिवर्तन, इमारतों और सड़कों के अपने अनुरूप नामकरण, नेताओं ही नहीं भक्तों पर भी फूल वर्षा, भव्य मंदिरों के निर्माण और गुजरात की तर्ज पर मणिपुर के ट्रीटमेंट जैसा हर टोटका अपनाया जा रहा ताकि चुनावी बयार में इसकी तिज़ारत की जा सके । Chetna Manch Special झूठे ख्वाबों के सौदागरों ने आज तक नहीं बताया कि जिस अखंड भारत के नक्शे को दिखा कर करोड़ों लोगों को पिछले सौ सालों से भरमाया जा रहा है, ऐसा अखंड भारत इतिहास के किस काल खंड में इस धरा पर था ? बेशक इन इलाकों तक कोई न कोई भारतीय राजा एक छोटे से अंतराल के लिए अपनी पताका फहराने के कामयाब रहा मगर उसके राज्य की सीमाओं में तब अन्य कौन कौन से क्षेत्र नहीं थे ? यकीनन मौर्य, चोल, मुगल और बाद में अंग्रेजों ने भारत की सीमाओं का विस्तार अफगानिस्तान, भूटान, म्यामार, तिब्बत, श्रीलंका, नेपाल और आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश तक किया मगर आज क्या यह संभव है ? भारत के बीस करोड़ मुस्लिमों से ही तंग आज के हमारे रहनुमा यदि अपने नक्शे के अनुरूप अखंड भारत बना भी लेते हैं तब क्या अस्सी करोड़ मुस्लिमों के साथ वे रह लेंगे ? चीन जो आए दिन हमारी सीमाओं में घुसपैठ करता है और हम उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते, क्या उससे हम तिब्बत छीन सकते हैं ? आखिर आधा दर्जन से अधिक बड़े देशों को अपनी सीमाओं में मिलाने का हमारे पास रोड मैप क्या है ? क्या आज की दुनिया में किसी भी देश के लिए किसी अन्य देश को हड़प लेना संभव है ? रशिया और यूक्रेन का उदाहरण भी किसी को नहीं दिख रहा ? फिर क्यों ऐसे ऐसे झूठे ख्वाब दिखाए जाते हैं, जो साकार होना तो दूर कल्पनाओं में भी डराते हैं ? शुक्र है कि बूढ़ी हो चली हमारी पीढ़ी इन झासों से बच निकली मगर आज की पीढ़ी का क्या होगा ? रज़ा साहब आप ठीक ही कहते थे, झूठे ख्वाबों पर पल रही आज की पीढ़ी हमारे मुकाबले अधिक घाटे में है । { इस आलेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं }

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New Article : धरती के साथ रिश्तों को भी झुलसा रही गर्मी

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userचेतना मंच
calendar20 Jul 2023 08:20 PM
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Sanjeev RaghuvanshiNew Article :  अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी (Yale University) में पर्यावरण स्वास्थ्य की प्रोफेसर मिशेल बेल ने शोध में पाया कि औसत तापमान बढऩे से लोगों में गुस्से की प्रवृत्ति बढ़ी है, जो रिश्ते बिखरने का कारण बन रही है। भारत, पाकिस्तान और नेपाल में किए गए शोध में उन्होंने 15 से 49 साल की 194861 महिलाओं (Ladies) को शामिल किया। एक अक्टूबर 2010 से 30 अप्रैल 2018 के बीच की मानसिक, शारीरिक और यौन हिंसा की शिकायतों के अध्ययन के बाद मिशेल इस नतीजे पर पहुंचीं कि औसत तापमान सालाना एक डिग्री सेल्सियस बढऩे से घरेलू और यौन हिंसा के मामलों में 4.9 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई।

बीती तीन जुलाई को जब वैश्विक औसत तापमान 17.1 डिग्री सेल्सियस पर पहुंचा तो यह मानव इतिहास (History) का सबसे ज्यादा वैश्विक तापमान घोषित किया गया। लेकिन, इसके अगले ही दिन 17.8 डिग्री सेल्सियस के साथ नया रिकॉर्ड बन गया। वैज्ञानिक आने वाले दिनों में यह रिकॉर्ड भी टूटने का अंदेशा जता रहे हैं। पर्यावरण पर निगाह रखने वाली दुनिया भर की संस्थाओं से जुड़े वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन के चलते विनाशकारी आपदाओं का अंदेशा जता रहे हैं। तापमान में वृद्धि, बारिश के पैटर्न में बदलाव और धु्रवों की घटती बर्फ; ये जलवायु परिवर्तन के ऐसे परिणाम हैं जो भविष्य में मानव जाति के लिए बेहद विपरीत परिस्थितियों की तरफ इशारा कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के लिहाज से यह साल काफी महत्वपूर्ण है। जुलाई में जहां औसत वैश्विक तापमान का रिकॉर्ड टूटा, वहीं जून का महीना भी मानव इतिहास का सबसे गर्म जून रहा। पर्यावरण एजेंसी कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस का दावा है कि इस बार जून में साल 1991 से 2020 की अवधि के मुकाबले आधा डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। अमेरिका के नेशनल सेंटर फॉर एनवायरमेंटल प्रिडिक्शन का मानना है कि मौजूदा समय में मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए ‘अल नीनो’ प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। अगस्त 2016 में ‘अल नीनो’ के चलते तापमान 16.92 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था जो उस वक्त तक का सबसे ज्यादा तापमान था। यूनाइटेड किंगडम के वेस्ट यॉर्कशायर स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के एक शोध में सामने आया है कि हर 10 साल में धरती कम से कम 0.2 डिग्री सेल्सियस गर्म हो रही है। पर्यावरण पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक मौसम की चक्रीय प्रणाली प्रभावित होने का सबसे बड़ा कारण कार्बन उत्सर्जन है। वैज्ञानिकों ने शोध में पाया कि पिछले एक दशक में हर साल 54 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ। यानी, हमने प्रति सेकंड 1700 टन उत्सर्जन किया है। शोध से जुड़े प्रोफेसर पीयर्स फोस्टर का कहना है कि औसत तापमान में एक डिग्री बढ़ोतरी से बारिश की आशंका 15 फीसदी तक बढ़ जाती है। यही नहीं, इससे बर्फबारी में कमी आती है, जिससे धु्रवों पर बर्फ की मात्रा लगातार घट रही है। शोध के आंकड़ों से वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि साल 1971 से 2000 की अवधि के मुकाबले साल 2070 से 2100 के दौरान बर्फबारी में बेतहाशा कमी देखने को मिलेगी। यह कमी सिंधु बेसिन में 30 से 50 फीसदी, गंगा बेसिन में 50 से 60 और ब्रह्मपुत्र बेसिन में 50 से 70 फीसदी तक होगी।

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वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (world economic forum) ने भी हाल ही में जारी ‘ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट’ में जलवायु परिवर्तन को मानव सभ्यता के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में करीब 360 करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन के लिहाज से अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्रों में रहते हैं। हालांकि, जलवायु परिवर्तन का असर किसी एक क्षेत्र या देश तक सीमित नहीं होता। इससे दुनिया के कुछ क्षेत्र अत्यधिक प्रभावित होंगे तो कुछ कम। बढ़ते तापमान से दुनिया को जिन समस्याओं का सामना करना होगा, उनमें से खाद्यान्न की कमी प्रमुख है। न्यूयॉर्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी (Columbia University) और जर्मन काउंसिल ऑफ फॉरेन रिलेशन के शोधकर्ता प्रोफेसर काई कोर्नह्यूबर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि साल 2045 से 2099 के बीच खाद्यान्न उत्पादन में सात फीसदी की कमी हो सकती है। इससे दुनिया भर में करीब 90 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार होंगे। उन्होंने यह आशंका साल 1960 से 2014 तक के आंकड़ों के अध्ययन के बाद जाहिर की है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पारिस्थितिकी और सतत् विकास के प्रोफेसर रूथ डेफ्रीज का शोध भारतीयों के लिए चिंताजनक है। उनका दावा है कि धरती के औसत तापमान में ऐसे ही बढ़ोतरी जारी रही तो भारत में गेहूं की पैदावार में साल 2040 तक पांच फीसदी और 2050 तक 10 फीसदी की कमी आएगी। दुनिया के छह प्रमुख चावल उत्पादक देश भारत, चीन, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, थाईलैंड और वियतनाम में उत्पादन कम हुआ है। नतीजतन चावल के दाम 11 साल के उच्च स्तर पर है। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन का दावा है कि अकेले एशिया में ही 300 करोड़ लोग चावल खाते हैं। उत्पादन गिरने और दाम बढऩे का खामियाजा सीधे तौर पर इन लोगों को भुगतना पड़ेगा।

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जलवायु परिवर्तन से न सिर्फ मौसमी चक्र गड़बड़ाना, फसलों का उत्पादन गिरना, भूस्खलन और धु्रवीय बर्फ में कमी हो रही हैं बल्कि, यह मनुष्य और अन्य जीव-जंतुओं के स्वभाव में भी खतरनाक परिवर्तन ला रहा है। अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी में पर्यावरण स्वास्थ्य की प्रोफेसर मिशेल बेल ने शोध में पाया कि औसत तापमान बढऩे से लोगों में गुस्से की प्रवृत्ति बढ़ी है, जो रिश्ते बिखरने का कारण बन रही है। भारत, पाकिस्तान और नेपाल में किए गए शोध में उन्होंने 15 से 49 साल की 194861 महिलाओं को शामिल किया। एक अक्टूबर 2010 से 30 अप्रैल 2018 के बीच की मानसिक, शारीरिक और यौन हिंसा की शिकायतों के अध्ययन के बाद मिशेल इस नतीजे पर पहुंचीं कि औसत तापमान सालाना एक डिग्री सेल्सियस बढऩे से घरेलू और यौन हिंसा के मामलों में 4.9 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई। जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन साइकियाट्री (Journal of American Medical Association Psychiatry) में प्रकाशित शोध में उन्होंने भारत में ऐसे मामले सबसे ज्यादा बढऩे की आशंका जताई है। मिशेल का कहना है कि साल 2090 तक भारत में महिलाओं के साथ हिंसा के मामले 23.5 फीसदी तक बढ़ सकते हैं। उधर, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल का शोध कुत्तों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति के लिए भी बढ़ते तापमान को ही जिम्मेदार ठहराता है। वैज्ञानिक 70000 कुत्तों के अध्ययन के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि गर्म और धूल- धुएं से भरे दिनों में कुत्ते ज्यादा आक्रामक हो जाते हैं। यह बढ़ोतरी अल्ट्रावायलेट विकिरण ज्यादा होने पर 11 फीसदी, उमस भरे दिनों में आठ फीसदी और अत्यधिक प्रदूषित दिनों में पांच फीसदी तक दर्ज की गई।

धरती के औसत तापमान में बढ़ोतरी पर लंदन (London) स्थित ग्रांथम रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑन क्लाइमेट चेंज एंड एनवायरनमेंट के वैज्ञानिक फ्रेडरिक ऑट्टो कहते है- ‘बढ़ता तापमान वैश्विक पर्यावरण के लिए मौत की सजा का फरमान है।’ जलवायु परिवर्तन को लेकर हुए विभिन्न शोध समस्या की जड़ कार्बन उत्सर्जन को ही बताते हैं। तमाम चिंताओं के बावजूद हर वर्ष अकेले जीवाश्म ईंधन से ही 40 अरब टन कार्बन उत्सर्जन हो जाता है। विकसित देश इसका ठीकरा विकासशील देशों पर फोड़ देते हैं और ये देश अपनी जरूरतों के चलते कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने को ज्यादा तवज्जो नहीं देते। अगर पूरी दुनिया में कार्बन उत्सर्जन में कमी को एक मिशन के तौर पर न लिया गया तो अंतत: इसका खामियाजा मानव सभ्यता को ही भुगतना पड़ेगा।

 

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Article : कंपनियों के बुने विज्ञापन जाल में फंस रहे बच्चे

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locationभारत
userचेतना मंच
calendar02 Dec 2025 04:08 AM
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न्यूजीलैंड की ‘यूनिवर्सिटी ऑफ ओटागो’ से सम्बद्ध ‘वेलिंगटन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ की प्रमुख प्रोफेसर लुईस सिग
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नल की टीम का अध्ययन भी इस मकडज़ाल की तरफ इशारा करता है। वैज्ञानिक पत्रिका ‘द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ’ में प्रकाशित उनका शोध बताता है कि कंपनियों ने विज्ञापनों के जरिए 11-13 साल के बच्चों को हर 10 घंटे में 554 ब्रांड से अवगत कराया। मतलब, हर मिनट बच्चों ने कम से कम एक ब्रांड के बारे में जान लिया। बच्चों ने बड़ी संख्या में जंक फूड के विज्ञापन भी देखे। शोध के मुताबिक, रोजाना औसतन 68 जंक फूड के विज्ञापनों से बच्चों का सामना हुआ। प्रोफेसर सिगनल इन विज्ञापनों को मोटापे की महामारी करार देती हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।

सब जानते और मानते हैं कि बच्चे मन के भोले होते हैं। उन्हें आसानी से बरगलाया जा सकता है। इस सच्चाई को खासकर खाद्य और पेय उत्पाद बनाने वाली कंपनियां बखूबी भुना रही हैं। बच्चों को ‘सॉफ्ट टारगेट’ समझकर इन कंपनियों ने विज्ञापन का ऐसा जाल बुना है, जिसमें फंसकर अभिभावक न सिर्फ अपनी जेब हल्की कर रहे हैं बल्कि अनजाने में अपने बच्चों के जीवन के लिए भी खतरा पैदा कर रहे हैं। मेडिकल जर्नल ‘बीएमजे’ के एक व्यापक शोध से तो यही साबित होता है। शोध के नतीजे न सिर्फ कंपनियों की विज्ञापन पॉलिसी पर सवाल खड़े करते हैं बल्कि, बच्चों से जुड़े उत्पादों को उनके जीवन के लिए ही खतरा बताते हैं।

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शायद आपने गौर किया हो कि आजकल टेलीविजन से लेकर सोशल मीडिया पर ऐसे विज्ञापनों की भरमार है, जिनमें बच्चों की लंबाई, इम्यूनिटी, स्टेमिना और मेमोरी तक बढ़ाने के दावे के साथ उत्पाद पेश किए जा रहे हैं। एक से बढक़र एक दावे, हर कोई बच्चों के लिए अपने उत्पाद को दूसरी कंपनी से बेहतर साबित करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। लेकिन हकीकत क्या है, इसका भंडाफोड़ ‘बीएमजे’ में प्रकाशित शोध कर रहा है। वैज्ञानिकों ने भारत समेत 15 देशों में 757 उत्पादों का अध्ययन करने के बाद नतीजे तैयार किए हैं। अप्रैल, 2020 से जुलाई, 2022 तक किए गए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े उत्पादों में से 700 से अधिक उत्पादों को लेकर किए गए दावे वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं हैं। साथ ही, उत्पादों में इस्तेमाल होने वाली 307 तरह की सामग्री और दावों के बीच कोई संबंध ही नहीं है। मतलब साफ है, इन सामग्रियों को लेकर किए गए दावे मनगढ़ंत हैं। वैज्ञानिकों को काफी खोजबीन के बाद भी इन सामग्रियों के क्लिनिकल ट्रायल का कोई डाटा नहीं मिला। ऐसे उत्पाद न सिर्फ अभिभावकों की गाढ़ी कमाई से कंपनियों का खजाना भर रहे हैं बल्कि, बच्चों की सेहत के लिए नुकसानदेह साबित हो रहे हैं।

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निश्चित रूप से ‘बीएमजे’ में प्रकाशित शोध के नतीजे डराने वाले हैं। बच्चों को विज्ञापनों के जरिए टारगेट करने की कंपनियों की होड़ यहीं खत्म नहीं हो जाती। खानपान से जुड़े उत्पादों से लेकर लाइफस्टाइल से जुड़े उत्पादों तक के विज्ञापन बच्चों को लक्ष्य बनाकर परोसे जा रहे हैं। विज्ञापन का व्यापक मनोवैज्ञानिक प्रभाव बच्चों पर सबसे ज्यादा पड़ता है, इस सच्चाई को कंपनियां बखूबी समझती हैं। इसी को ध्यान में रखकर विज्ञापन पॉलिसी तैयार की जा रही है। यूनाइटेड स्टेट्स की आधिकारिक वेबसाइट ‘नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन’ पर दिए गए तथ्य इस पॉलिसी की पोल खोलते हैं। हाल यह है कि अकेले खाद्य और पेय कंपनियां हर साल बच्चों से जुड़े उत्पादों के विज्ञापनों पर 1200 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च करती हैं। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कुल विज्ञापनों में से 18 फीसदी खाद्य पदार्थों से जुड़े होते हैं, जिनका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष निशाना बच्चे हैं। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि 3-13 साल के बच्चों के मोटापे का सीधा संबंध खाद्य पदार्थों के विज्ञापनों से पाया गया है। वेबसाइट का दावा है कि एक साल में बच्चे औसतन 40000 से ज्यादा विज्ञापन देखते हैं। वहीं, 3-12 साल के बच्चों को रोजाना फास्ट फूड के 21 विज्ञापन देखने को मिल जाते हैं।

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अमूमन हर घर में टेलीविजन देखा जाता है, बच्चे-बड़े सभी देखते हैं। लेकिन, हमें शायद ही कभी इस कड़वी सच्चाई का एहसास होता हो कि हमारे बच्चों के इर्द-गिर्द विज्ञापनों का मकडज़ाल बुन दिया गया है। न्यूजीलैंड की ‘यूनिवर्सिटी ऑफ ओटागो’ से सम्बद्ध ‘वेलिंगटन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ की प्रमुख प्रोफेसर लुईस सिगनल की टीम का अध्ययन भी इस मकडज़ाल की तरफ इशारा करता है। वैज्ञानिक पत्रिका ‘द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ’ में प्रकाशित उनका शोध बताता है कि कंपनियों ने विज्ञापनों के जरिए 11-13 साल के बच्चों को हर 10 घंटे में 554 ब्रांड से अवगत कराया। मतलब, हर मिनट बच्चों ने कम से कम एक ब्रांड के बारे में जान लिया। बच्चों ने बड़ी संख्या में जंक फूड के विज्ञापन भी देखे। शोध के मुताबिक, रोजाना औसतन 68 जंक फूड के विज्ञापनों से बच्चों का सामना हुआ। प्रोफेसर सिगनल इन विज्ञापनों को मोटापे की महामारी करार देती हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। जंक फूड में शर्करा, वसा, सोडियम और कैमिकल से तैयार आर्टिफिशियल फ्लेवर की भरमार होती है। कंपनियां विज्ञापनों के जरिए बच्चों को जंक फूड खाने के लिए उकसाती हैं और बच्चे इन्हें खाकर मोटापा समेत स्वास्थ्य संबंधी अन्य गंभीर परेशानियों से दो-चार होते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बच्चों के जीवन पर भारी पड़ रही कंपनियों की विज्ञापन पॉलिसी से चिंतित है। संगठन बच्चों के लिए खाद्य पदार्थों के विज्ञापनों में कमी किए जाने का आह्वान कर चुका है लेकिन, धरातल पर इसका रत्ती भर भी असर देखने को नहीं मिलता। बात अगर भारत की करें तो, कहने को यहां पर उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम-2019 लागू है। इसका मकसद अनुचित व्यापार प्रथाओं और भ्रामक विज्ञापनों पर अंकुश लगाना है। लेकिन, टेलीविजन से लेकर सोशल मीडिया में हर घड़ी प्रसारित होने वाले अधिकतर विज्ञापनों में किए जा रहे हवा-हवाई दावे अधिनियम के प्रभाव को झुठलाते नजर आते हैं। कभी-कभार एकाध मामले में कार्रवाई को छोड़ दिया जाए तो उपभोक्ता संरक्षण की बातें बेमानी ही लगती हैं। कंपनियों से लेकर विज्ञापन में अपनी लोकप्रियता को भुनाकर करोड़ों कमाने वाली मशहूर हस्तियों तक को इस से कोई मतलब नहीं कि इस अंधी दौड़ का सबसे ज्यादा खामियाजा नौनिहालों को भुगतना पड़ रहा है।

उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि भारत में डिजिटल विज्ञापन का कारोबार तेजी से बढ़ा है। पिछले साल विज्ञापन बाजार का आंकड़ा 1275 करोड़ का था, जिसके 2025 तक 2800 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान जताया जा रहा है। विज्ञापन बाजार के आंकड़े साबित करते हैं कि दुनिया भर की कंपनियों की निगाहें भारतीय बाजार पर लगी हैं। कंपनी अपने उत्पाद बेचने के लिए हर तरह की तिकड़मबाजी में जुटी हैं। ऐसे में विज्ञापन से जुड़ी मर्यादाएं टिक पाएंगी, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। बहुत संभव है कि कंपनियों की विज्ञापन पॉलिसी का स्तर और अधिक गिर जाए। इसका सबसे नकारात्मक असर बच्चों पर ही पड़ेगा, जो पहले से ही कंपनियों के लिए ‘सॉफ्ट टारगेट’ हैं। इसी साल फरवरी में मुंबई में हुई ‘एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ इंडिया’ की बैठक में मंत्रालय के जिम्मेदार अधिकारियों ने कंपनियों को विज्ञापनों के प्रति और अधिक जिम्मेदार बनने की नसीहत तो दी है लेकिन, अब देखना यह है कि इसका धरातल पर कोई असर दिखाई पड़ेगा या नहीं। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने बच्चों को लेकर कितने सजग हैं। Article

 

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