Dharam Karma : वेद वाणी

Rigveda
locationभारत
userचेतना मंच
calendar02 Dec 2025 03:52 AM
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Sanskrit : वयं मित्रस्यावसि स्याम सप्रथस्तमे। अनेहसस्त्वोतयः सत्रा वरुणशेषसः॥ ऋग्वेद ५-६५-५॥

Hindi : हम स्नेह के देवता के संरक्षण में रहें। हम अहिंसक और सत्यवादी हों। हम अच्छे मित्र के साथ रहे। हम पाप रहित रहे और स्नेह करें। (ऋग्वेद ५-६५-५) #vedgsawana

English: May we be under the protection of the Devta of affection. Let us be non-violent and truthful. May we stay with good friends. May we be free from sin and have love for everyone. (Rig Veda 5-65-5) #vedgsawana

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Sanskrit : वयं मित्रस्यावसि स्याम सप्रथस्तमे। अनेहसस्त्वोतयः सत्रा वरुणशेषसः॥ ऋग्वेद ५-६५-५॥

Hindi : हम स्नेह के देवता के संरक्षण में रहें। हम अहिंसक और सत्यवादी हों। हम अच्छे मित्र के साथ रहे। हम पाप रहित रहे और स्नेह करें। (ऋग्वेद ५-६५-५) #vedgsawana

English: May we be under the protection of the Devta of affection. Let us be non-violent and truthful. May we stay with good friends. May we be free from sin and have love for everyone. (Rig Veda 5-65-5) #vedgsawana

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धर्म-अध्यात्म : जहां यज्ञ वहां तीर्थ!

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calendar14 Oct 2021 04:55 AM
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विनय संकोची

यज्ञ की उष्मा मनुष्य के अंतःकरण पर देवत्व की छाप डालती है। जहां यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अंदर धारण कर लेते हैं और वहां जाने वालों पर दीर्घकालिक प्रभाव डालता रहता है। प्राचीन काल में तीर्थ नहीं बने हैं, जहां बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे, जिन घरों में, जिन स्थानों पर यज्ञ होते हैं, वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहां जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोवृत्ति उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती है। महिलाएं, छोटे बालक एवं गर्भस्थ शिशु विशेष रूप से यह शक्ति से अनुप्राणित होते हैं। उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञ वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।

प्रकृति का स्वभाव यज्ञ परंपरा के अनुरूप है। समुद्र बादलों को उदारता पूर्वक जल देता है, बादल एक स्थान से दूसरे स्थान तक उसे ढोकर ले जाने और बरसाने का श्रम वहन करते हैं। नदी नाले प्रवाहित होकर भूमि को सींचते और प्राणियों की प्यास बुझाते हैं। वृक्ष एवं वनस्पतियां अपने अस्तित्व का लाभ दूसरों को ही देते हैं। पुष्प और फल दूसरों के लिए ही जीते हैं। सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, वायु आदि की क्रियाशीलता उनके अपने लाभ के लिए नहीं वरन दूसरों के लिए ही है। शरीर का प्रत्येक अवयव अपने निज के लिए नहीं वरन समस्त शरीर के लाभ के लिए ही अनवरत गति से कार्यरत रहता है। इस प्रकार जिधर भी दृष्टिपात किया जाए यही प्रकट होता है कि इस संसार में जो कुछ स्थिर व्यवस्था है, वह यज्ञ वृत्ति पर ही अवलंबित है। यदि इसे हटा दिया जाए, तो सारी सुंदरता कुरूपता में और सारी प्रगति विनाश में परिणत हो जाएगी। ऋषियों ने कहा है - यज्ञ ही संसार चक्र की धुरी है, धुरी के टूट जाने पर गाड़ी का आगे बढ़ सकना असंभव है।

यज्ञ का तात्पर्य है - त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए, यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है। वायु शोधन से सबको आरोग्य वर्धक सांस लेने का अवसर मिलता है। हवन हुए पदार्थ वायु भूत होकर प्राणी मात्र को प्राप्त होते हैं और उनके स्वास्थ्य वर्धन व रोग निवारण में सहायक होते हैं। यज्ञ काल में उच्चरित वेद मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर लोगों के अंतःकरण को सात्विक एवं शुद्ध बनाती है। इस प्रकार थोड़े ही खर्च से यज्ञकर्ताओं द्वारा संसार की बड़ी सेवा बन पड़ती है।

यज्ञ योग की विधि है, जो परमात्मा द्वारा ही हृदय में संपन्न होती है। जीव के अपने सत्य परिचय जो परमात्मा का अभिन्न ज्ञान और अनुभव है, यज्ञ की पूर्णता है। यह शुद्ध होने की क्रिया है। इसका संबंध अग्नि से प्रतीक रूप में किया जाता है। यज्ञ का अर्थ जबकि योग है किंतु इस की शिक्षा व्यवस्था में अग्नि और घी के प्रतीकात्मक प्रयोग में पारंपरिक रूचि का कारण अग्नि के भोजन बनाने में, या आयुर्वेद और औषधीय विज्ञान द्वारा वायु शोधन इस अग्नि से होने वाले दोनों के गुण को यज्ञ समझ इस यज्ञ शब्द के प्रचार प्रसार में बहुत सहायक रहे।

विधिवत किए गए यज्ञ इतने प्रभावशाली होते हैं, जिसके द्वारा मानसिक दोषों, दुर्गुणों का निष्कासन एवं सद्भावना का अभिवर्धन नितांत संभव है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, कायरता, कामुकता, आलस्य, आवेश, संशय आदि मानसिक उद्वेगों की चिकित्सा के लिए यह एक विश्वस्त पद्धति है। शरीर के असाध्य रोगों तक का निवारण इससे हो सकता है।

अनेक प्रयोजनों के लिए, अनेक कामनाओं की पूर्ति के लिए, अनेक विद्वानों के साथ, अनेक विशिष्ट यज्ञ भी किए जा सकते हैं। दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार उत्कृष्ट संतानें प्राप्त की थी अग्नि पुराण में तथा उपनिषदों में वर्णित पंचाग्नि विद्या में ये रहस्य बहुत विस्तार पूर्वक बताएं गए हैं। विश्वामित्र आदि ऋषि प्राचीन काल में असुरता का निवारण करने के लिए बड़े-बड़े यज्ञ करते थे। राम लक्ष्मण को ऐसे ही एक यज्ञ की रक्षा के लिए स्वयं जाना पड़ा था। लंका युद्ध के बाद राम ने दस अश्वमेध यज्ञ किए थे। महाभारत के पश्चात श्रीकृष्ण ने भी पांडवों से एक महायज्ञ कराया था, उनका उद्देश्य युद्ध विक्षोभ से अशुद्ध वातावरण की शुद्धता का समाधान करना ही था। जब कभी आकाश के वातावरण में असुरता की मात्रा बढ़ जाए, तो उसका उपचार यज्ञ प्रयोजनों से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। आज पिछले दो महायुद्धों के कारण जनसाधारण में स्वार्थपरता की मात्रा अधिक बढ़ जाने से वातावरण में वैसा ही विक्षोभ फिर उत्पन्न हो गया है। उसके समाधान के लिए यज्ञ प्रक्रिया को पुनर्जीवित करना आज की स्थिति में और भी अधिक आवश्यक हो गया है।