Thursday, 12 June 2025

यहां मिलते हैं भगवान, आचार्य चाणक्य से जाने कब, कैसे और कहां

Chanakya Niti : रोजाना लाखों करोड़ों लोग भगवान के दर्शन करने के लिए मंदिर जाते हैं। भगवान को प्राप्त करने…

यहां मिलते हैं भगवान, आचार्य चाणक्य से जाने कब, कैसे और कहां

Chanakya Niti : रोजाना लाखों करोड़ों लोग भगवान के दर्शन करने के लिए मंदिर जाते हैं। भगवान को प्राप्त करने के लिए अनेकों धार्मिक कर्म करते हैं, लेकिन बहुत कम लोगों को ही भगवान के दर्शन हो पाते हैं। भगवान के दर्शन के लिए श्रद्धालु लोग ना जाने क्या क्या उपाय करते हैं। भगवान को लेकर आचार्य चाणक्य का कथन स्पष्ट है। उनका कहना है कि भगवान इंसान के आसपास ही रहते हैं, लेकिन इंसान भगवान को पहचान ही नहीं पाता है, जिस कारण वह व्य​र्थ ही इधर उधर भटकता है।

Chanakya Niti

कौन हैं आचार्य चाणक्य ?

आचार्य चाणक्य भारतीय इतिहास के सर्वाधिक प्रखर कुटनीतिज्ञ माने जाते हैं। उन्होंने ‘अर्थशास्त्र’ नामक पुस्तक में अपने राजनीति सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। जिनका महत्त्व आज भी स्वीकार किया जाता है। कई विश्वविद्यालयों ने कौटिल्य (चाणक्य) के ‘अर्थशास्त्र’ को अपने पाठ्यक्रम में निर्धारित भी किया है। महान मौर्य वंश की स्थापना का वास्तविक श्रेय अप्रतिम कूटनीतिज्ञ चाणक्य को ही जाता है। चाणक्य एक विव्दान, दूरदर्शी तथा दृढसंकल्पी व्यक्ति थे और अर्थशास्त्र, राजनीति और कूटनीति के आचार्य थे।

कहां बसते हैं भगवान

भगवान को लेकर आचार्य चाणक्य का कहना है कि,

”काष्ठपाषाण धातुनां कृत्वा भावेन सेवनम।

श्रद्धया च तथा सिद्धिस्तस्य विष्णोः प्रसादतः”

आचार्य चाणक्य भावना को भगवान प्राप्ति का महत्वपूर्ण साधन बताते हुए कहते हैं कि काष्ठ, पाषाण या धातु की मूर्तियों की भी भावना और श्रद्धा से उपासना करने पर भगवान की कृपा से सिद्धि मिल जाती है।

न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मुपमये।
भावे ही विद्यते देवस्तस्मात् भावो ही कारणम्।।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ईश्वर न काष्ठ में है, न मिट्टी में, न मूर्ति में। वह केवल भावना में रहता है। अतः भावना ही मुख्य है। अर्थात ईश्वर वास्तव में लकड़ी, मिट्टी आदि की मूर्तियों में नहीं है। वह व्यक्ति की भावना में रहता है। व्यक्ति की जैसी भावना होती है, वह ईश्वर को उसी रूप में देखता है। अतः यह भावना ही सारे संसार का आधार है।

शांति ही तप है

शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्पर सुखम् ।
न तृष्णया परो व्याधिर्न च धर्मो वयापरः ।।

महत्त्वपूर्ण संसाधनों को चर्चा करते हुए आचार्य चाणक्य कहते है कि शांति के समान कोई तपस्या नहीं है, संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं है, तृष्णा से बढ़‌कर कोई व्याधि नहीं है और दया से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। अर्थात अपने मन और इन्द्रियों को शांत रखना ही सबसे बड़ी तपस्या है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है, मनुष्य की इच्छाएं सबसे बड़ा रोग हैं, जिनका कोई इलाज नहीं हो सकता और सब पर दया करना ही सबसे बड़ा धर्म है।

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