Thursday, 28 March 2024

नि:संकोच : ‘राम’ कहाने के लिए ‘रामराज्य’ का शोर!

 विनय संकोची ‘राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट, अंत काल पछतायेगा, जब प्राण जाएंगे छूट।’ यह दोहा…

नि:संकोच : ‘राम’ कहाने के लिए ‘रामराज्य’ का शोर!

 विनय संकोची

‘राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट, अंत काल पछतायेगा, जब प्राण जाएंगे छूट।’ यह दोहा हम सब सुनते आ रहे हैं। तमाम लोग हैं जो राम नाम को लूट-लूट कर आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न हो गए और ऐसे लोगों की संख्या भी निश्चित रूप से कम नहीं है, जो खुली लूट का लाभ न उठा पाने के कारण विपन्न बने हुए हैं। बड़ी संख्या में ऐसे भी लोग हैं जो राम नाम की लूट की छूट की आड़ में राम नाम पर लूट का व्यापार करने में जुटे हैं। ऐसे राम नाम व्यापारियों की दुकानें खूब चल रही हैं, अब जो है सो है लेकिन एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि करोड़ों लोग हर पल किसी न किसी रूप में भगवान राम का नाम लेते हैं और पूरी श्रद्धा से लेते हैं, यही कारण है कि लोग रामराज्य का सपना भी देखते हैं और उसे साकार होते हुए भी देखना चाहते हैं। …और यह सब तब है जबकि अधिकांश लोग समझते हैं कि कलिकाल में रामराज्य की स्थापना लगभग असंभव है। बुरा मानने की बात नहीं है, परंतु यदि आज भगवान राम पुनः अवतरित होकर रामराज्य स्थापित करने का संकल्प लें, तो उनके लिए संकल्प पूर्ति सहज नहीं होगी।

साम्राज्य में राजा के ऊपर भी धर्म का शासन था। आज राजा धर्म पर शासन करता दिखाई देता है। राजा धर्म को अपनी सुविधा के अनुसार उपयोग में लाता है। प्राचीन भारत में एक अद्भुत प्रथा प्रचलित थी, जब राजा का राज्याभिषेक होता था, तो राजा कहता था
‘अदंड्योस्मि’ अर्थात् मुझे दंड नहीं दिया जा सकता। ऐसे में राजा का गुरु एक कुश का प्रतीकात्मक दंड लेकर राजा को मारता हुआ कहता था-‘धर्म दंडोहित’ अर्थात् तुम्हारे ऊपर भी धर्म का दंड है और राजा मार खाते हुए बेदी की परिक्रमा करता था। यह कोई नाटक नहीं था। राजा इस बात को याद रखते हुए ही समस्त निर्णय लेता था ताकि धर्म की हानि ना हो, धर्म विरुद्ध कोई कार्य न हो। ‘लोकतंत्र का राजा’ भी शपथ और संकल्प लेता है, लेकिन उसका अक्षरशः पालन करने वाला राजा आधुनिक भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में शायद ही कोई हुआ होगा।

रामराज की एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी रही कि उन्होंने ऐसी व्यवस्था की थी कि सभी वर्ग के लोग उनसे सरलता पूर्वक मिल सकते थे, बतिया सकते थे, अपने दु:ख-दर्द बांट सकते थे। आधी रात के समय भी किसी का रुदन सुनकर श्रीराम अपना विश्राम त्याग कर पीड़ित की सेवा में उद्यत हो जाते थे। आज जिन्हें जनप्रतिनिधि कहते हैं, उन तक अपनी बात पहुंचाने में लोगों को दांतो तले पसीने आ जाते हैं। जब प्रतिनिधि का यह व्यवहार छत्रप जैसा होता है, जनता उनसे अपनी सुविधा से नहीं मिल सकती, क्योंकि ‘राजा जी’ अपनी सुविधा से जनता को दर्शन देने और उनकी गुहार सुनने की कृपा करते हैं। इसी के साथ ही यह भी कि पीड़ित की पीड़ा, दुखियारे के दु:ख, परेशान की समस्या का समाधान हो ही जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं होती है।…और हमें रामराज्य का सपना दिखाया जा रहा है। यह सपना उनके द्वारा दिखाया जा रहा है, जो रामराज्य इसलिए लाना चाहते हैं, ताकि लोग उन्हें ‘अपना राम’ मान लें।

रामराज्य में, जब एक ब्राह्मण ने जिसका पुत्र असमय ही मर गया, श्रीराम की शासन व्यवस्था पर इसका दोष लगाया, तो श्रीराम ने मंत्रिमंडल के परामर्श कर स्वयं पर जिम्मेदारी ली। रामराज्य में प्रजाहित करने में असफल होने पर राजा द्वारा स्वयं को दंड देने का प्रावधान भी पाया जाता है। आज का ‘राजा’ दोषी होने पर भी दोष स्वीकार करेगा या स्वयं को दंड देने का आदर्श प्रस्तुत करेगा। ऐसा सोचना भी बेमानी है, क्योंकि राम-राम की बीन बजाने से कोई ‘राम’ जैसा आचरण नहीं कर सकता है।

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