Thursday, 28 March 2024

Hindi Kahani – सेवक का बलिदान (हिन्दी कहानी)

Hindi Kahani – प्राचीनकाल में वर्धमान नगर में एक राजा राज्य करता था। राजा का नाम रूपसेन था। वह बड़ा…

Hindi Kahani – सेवक का बलिदान (हिन्दी कहानी)

Hindi Kahani – प्राचीनकाल में वर्धमान नगर में एक राजा राज्य करता था। राजा का नाम रूपसेन था। वह बड़ा प्रतापी और यशस्वी था। उसके प्रताप और यश पर लक्ष्मी जी भी विमुग्ध हो रही थीं। वीरों पर प्रीति रखने वाले उस राजा के पास नौकरी करने की इच्छा से एक बार मालवा से वीरवर नाम का एक क्षत्रिय आया। उसके परिवार में तीन व्यक्ति थे उसकी पत्नी धर्मवती, पुत्र सत्त्ववर तथा कन्या वीरवती । परिवार तो उसका केवल इतना ही था, फिर भी उसने राजा से वेतन के रूप में प्रतिदिन पांच सौ स्वर्ण मुद्राएँ माँगी। राजा रूपसेन ने उसे इच्छित वेतन देना स्वीकार कर लिया।
स्वभावत: राजा को कौतूहल हुआ कि इतना छोटा परिवार होते हुए भी यह इतनी स्वर्णमुद्राओं का क्या करेगा? इसे कोई दुर्व्यसन है अथवा यह इस धन को पुण्यकार्यों में खर्च करता है? राजा ने इस बात का पता लगाने के लिए उसके पीछे अपने गुप्तचर छोड़ दिए।

Hindi Kahani – सेवक का बलिदान (हिन्दी कहानी)

वीरवर सवेरे से शाम तक राजा के सिंह द्वार पर पहरा देता था और फिर घर जाकर अपने वेतन में से एक सौ मुद्राएँ अपनी पत्नी के हाथों में दे देता था। एक सौ मुद्राओं से वह वस्त्र, अंगराग और ताम्बूल आदि खरीदता था, एक सौ मुद्राएँ स्नान के बाद विष्णु और शिव की पूजा में लगाता था और शेष दो सौ मुद्राएँ वह ब्राह्मणों और दरिद्रों को दान दे देता था। इस प्रकार वह प्रतिदिन उन पाँच सौ स्वर्णमुद्राओं का उपयोग करता था। फिर वह अग्निहोत्र आदि कार्यों से निबट कर भोजन करता और फिर रात में राजा के सिंहद्वार पर जाकर, हाथ में तलवार लिए पहरा दिया करता था। राजा रूपसेन ने जब अपने गुप्तचरों से उसका यह नियम सुना, तब वह मन-ही-मन बहुत संतुष्ट हुआ। उसने वीरवर को पुरुषों में श्रेष्ठ और विशेष रूप से आदर के योग्य समझा तथा पीछा करने वाले अपने गुप्तचरों को रोक दिया। एक बार कृष्ण चतुर्दशी की काली अँधेरी रात में आधी रात के राजा ने किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनी। राजा उस आवाज को सुनकर उठ बैठा, उसने आवाज लगाई ‘सिंहद्वार पर कौन है?’

वीरवर ने तुरंत उत्तर दिया- ‘मैं हूँ महाराज ! वीरवर।’ राजा ने कहा- ‘वीरवर! बाहर जाकर देखो, यह रोने की आवाज कहाँ से आ रही है?
‘जो आज्ञा महाराज’ कहकर वीरवर उस दिशा की ओर चल पड़ा, जिधर से रोने की आवाज आ रही थी। उसके जाने के बाद राजा ने सोचा कि उसने वीरवर को अकेले उस स्थान पर भेजकर उचित नहीं किया, पता नहीं उसे किस विपत्ति का सामना करना पड़े। ऐसा सोचकर उसने निश्चय किया कि उसे स्वयं भी उसके पीछे-पीछे जाना चाहिए, ताकि उस पर कोई विपत्ति आती देखे, तो उसकी सहायता कर सके। यही सोचकर वह भी उसके पीछे-पीछे तलवार लिए बाहर को चल दिया।
रोने की आवाज का अनुसरण करता हुआ वीरवर नगर के बाहर जा पहुँचा। वहां उसने एक सरोवर देखा। उस सरोवर के किनारे एक स्त्री बैठी रो रही थी। वीरवर ने उससे पूछा- ‘देवी! तुम कौन हो और इस भयानक रात में यहाँ बैठी क्यों रो रही हो?’

Hindi Kahani – सेवक का बलिदान (हिन्दी कहानी)

वह स्त्री बोली- ‘हे वीरवर! तुम मुझे यह पृथ्वी मानो। इस समय मेरे स्वामी राजा रूपसेन हैं, जो धर्मात्मा है। आज से तीसरे दिन उनकी मृत्यु हो जाएगी। फिर मैं उनके समान किसी दूसरे राजा को स्वामी के रूप में पाऊँगी। इसी से दु:खी होकर मैं उनके और अपने लिए शोक कर रही हूँ।
यह सुनकर वीरवर बोला- ‘हे देवी! क्या कोई ऐसा उपाय है, जिससे जगत् के रक्षक उस राजा की मृत्यु न हो?’ पृथ्वी बोली – ‘इसका एक ही उपाय है और उसे केवल तुम्हीं कर सकते हो।’ वीरवर ने कहा- ‘देवी! अगर ऐसी बात है, तो वह उपाय मुझे शीघ्र बताइए, जिससे तत्काल ही मैं उसे कर सकूँ।’

पृथ्वी बोली- ‘वत्स! तुम्हारे समान वीर और स्वामिभक्त दूसरा कौन हो सकता है? अत: मैं तुम्हें राजा के कल्याण का उपाय बताती हूँ। सुनो- राजा के भवन के निकट ही श्रेष्ठ देवी चण्डिका का मंदिर है। यदि तुम देवी चण्डिका को अपने पुत्र सत्त्ववर की बलि दे दो, तो राजा की मृत्यु नहीं होगी। वे सौ साल और जिएँगे। यदि तुम आज ही यह काम कर दो, तो उनका कल्याण हो जाएगा। नहीं तो आज से ठीक तीसरे दिन राजा की मृत्यु हो जाएगी।’ यह सुनकर वीरवर बोला- ‘देवी! अगर ऐसी बात है, तो मैं अपने पुत्र की बलि चण्डिका को अवश्य दूँगा।’ पृथ्वी ने प्रसन्न होकर कहा- ‘वत्स! तुम्हारा कल्याण हो।’ यह कहकर वह अंतर्ध्यान हो गई।
पास ही छिपे राजा रूपसेन ने ये सारी बातें सुन लीं। वीरवर शीघ्रता से अपने घर की ओर चल दिया। राजा भी छिपते-छिपते उसके पीछे चलने लगा। घर पहुँच कर वीरवर ने अपनी पत्नी को जगाया और पृथ्वी ने राजा के लिए पुत्र की बलि देने के लिए जो कुछ कहा था, वह उसे कह सुनाया। यह सुनकर उसकी पत्नी ने कहा- ‘स्वामी! राजा का कल्याण अवश्य करना चाहिए, इसलिए आप पुत्र को जगाकर उसको सारी बातें बता दें।’

पत्नी की बात सुनकर वीरवर ने सोये हुए पुत्र को जगाया और उसे सारा वृत्तान्त सुनाकर कहा- ‘बेटे! चण्डिका देवी को तुम्हारी बलि दे देने से राजा के प्राण बच सकते हैं, नहीं तो आज से तीसरे दिन राजा की मृत्यु हो जाएगी।’
यह सुनते ही सत्त्ववर ने कहा- ‘पिताजी! यदि मेरे प्राणों के बदले राजा का जीवन बच जाएगा, तो मैं कृतार्थ हो जाऊँगा। अब आप बिना विलम्ब किए मुझे भगवती के सामने ले जाकर मेरी बलि दे दें, जिससे मुझे शांति मिल सके।’
पुत्र की ऐसी बात सुनकर वीरवर बोला- ‘बेटे, तुम धन्य हो !’ यह कहकर वीरवर ने पुत्र को कंधे पर बिठाया और पत्नी व पुत्री को लेकर चण्डिका के मंदिर में पहुँच गया। राजा रूपसेन भी छिपकर उनके पीछे-पीछे वहां पहुँच गए। मंदिर में पहुँच वीरवर ने पुत्र को कंधे से उतारा, पुत्र ने देवी को प्रणाम किया और कहा- ‘हे देवी माँ! मेरे मस्तक के उपहार से राजा रूपसेन अगले सौ वर्षो तक जीवित रहें और निष्कण्टक राज्य करें।’

पुत्र की ऐसी बात सुनकर वीरवर ने उसे ‘धन्य-धन्य’ कहकर तलवार निकाली और उसका मस्तक काटकर देवी चण्डिका को दे दिया। उसी समय आकाशवाणी हुई- ‘वीरवर तुम धन्य हो! तुम्हारे समान स्वामीभक्त और कौन है, जिसने अपने एकमात्र गुणी पुत्र की बलि देकर राजा को जीवनदान दिया।’
राजा रूपसेन छिपकर ये सारी बातें देख और सुन रहे थे। अब वीरवर की कन्या वीरवती आगे बढ़ी। उसने अपने भाई के मस्तक का आलिंगन किया और फूट-फूटकर रोने लगी। वह यह शोक बर्दाश्त न कर सकी और उसने प्राण त्याग दिए। यह देखकर वीरवर की पत्नी बोली- ‘स्वामी! राजा का कल्याण तो सिद्ध हो गया। बेटी भी भाई के शोक में मर गई। अब मैं अपने दोनों बच्चों के मरने के बाद जीकर क्या करूंगी? अब आप मुझे आज्ञा दें कि मैं अपने बच्चा के शरीरों के साथ अग्नि में प्रवेश करूँ।’

पत्नी की बात सुनकर वीरवर बोला- ‘ठीक है प्रिये! तुम ऐसा ही करो। तुम्हारा भला हो। एकमात्र बच्चों का शोक ही जिसके पास बचा हो, ऐसे जीवन से अब क्या अनुराग।’ यह कहकर विरवर ने चिता तैयार की। दीपक से उसे जलाया और उस पर दोनों बच्चों के शव रख दिए। तब उसकी पत्नी ने देवी को प्रणाम करके कहा- ‘हे देवी! अगले जन्म में भी यही आर्यपुत्र मेरे पति हों और यही राजा मेरे स्वामी। मेरे इस शरीर त्याग से इनका कल्याण हो।’ यह कह कर वह चिता की अग्नि में कूद गई।

इसके बाद पराक्रमी वीरवर ने सोचा- ‘आकाशवाणी के अनुसार राजा का काम तो मैं पूरा कर चुका। मैंने अपने स्वामी का जो नमक खाया था, उससे मैं उऋण हो गया हूँ, तो फिर मुझे अकेले को जीवन की तृष्णा क्यों रखनी चाहिए? जो भरण करने योग्य थे, उन अपने सभी कुटुम्बियों का नाश करके, अकेले अपने को जिंदा रखने वाला मेरे समान कौन व्यक्ति शोभित हो सकता है? तो फिर मैं अपने शरीर की भी बलि देकर क्यों न माता को प्रसन्न करूँ? यह सोचकर वह देवी को प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने लगा।

देवी की स्तुति करके वीरवर ने अपनी तलवार से अपना मस्तक काट डाला। वहीं पास में छुपा राजा रूपसेन सारा नजारा देख रहा था। यह दृश्य देखकर दु:ख से विकल होकर वह सोचने लगा- ‘अरे इस सज्जन पुरुष ने अपने परिवार सहित मेरे लिए यह कैसा दुष्कर कार्य किया। ऐसा तो मैंने कहीं देखा न सुना। इस विचित्र संसार में इसके समान ऐसा धीर पुरुष कहाँ है, जो बिना कहे सुने परोक्ष में अपने स्वामी के लिए अपने प्राण अर्पित कर दे। यदि इसके उपकार का प्रत्युपकार मैं न कर सकूँ, तो मेरे राजा होने का क्या अर्थ है। यह सोचकर उसने म्यान से अपनी तलवार निकाली और देवी के निकट जाकर प्रार्थना की- ‘देवी भगवती! मैं सदा आपकी शरण में रहा हूँ। अत: आज आप मेरे मस्तक का उपहार लेकर प्रसन्न हो और मुझ पर कृपा करें। अपने नाम के अनुसार आचरण वाले वीरवर ने मेरे लिए अपने प्राणों का त्याग किया है। यह अपने कुटुम्ब के साथ जीवित हो जाए।
यह कहकर राजा ज्यों ही तलवार से अपना मस्तक काटने को उद्यत हुए, तभी आकाशवाणी हुई- राजन। ऐसा साहस मत करो। मैं तुम्हारी वीरता से प्रसन्न हूँ। यह वीरवर अपनी पत्नी और बच्चों सहित फिर से जी उठे।

Hindi Kahani – सेवक का बलिदान (हिन्दी कहानी)

आकाशवाणी के रुकते ही वीरवर अपने पुत्र, पुत्री और पत्नी सहित जी उठा। यह अद्भुत दृश्य देखकर राजा फिर छिप गया और प्रसन्नता से आँसुओं से भीगी आँखों से उन्हें देखता रहा।
शीघ्र ही वीरवर ने अपने बच्चों तथा पत्नी सहित अपने को सोकर उठा हुआ-सा देखा, तो उसका मन भ्रान्त हो गया। उसने अपनी पत्नी व बच्चों को अलग-अलग पुकार कर पूछा- ‘तुम लोग तो आग में जल गए थे, फिर जीवित कैसे उठ खड़े हुए? और मैंने भी तो तलवार से अपना मस्तक काट डाला था। मैं भी क्या जीवित ही हूँ? यह मेरी भ्रांति है या देवी ने सचमुच हम लोगों पर कृपा की है?’

वीरवर की बात सुनकर उसकी पत्नी व बच्चों ने कहा- ‘हम लोग फिर से जीवित हो गए हैं, यह देवी की ही कृपा है, यद्यपि हम लोग उसे जान नहीं पाए।’ वीरवर ने भी समझा कि ऐसी ही बात है। उसका काम पूरा हो चुका था। उसने देवी को प्रणाम किया और अपनी पत्नी व बच्चों को लेकर घर की ओर चल दिया। पत्नी व बच्चों को घर पर छोडक़र, वह उसी रात पहले की ही तरह राजा के सिंहद्वार पर जा पहुँचा। यह देखकर राजा रूपसेन भी सबकी नजरें बचाकर, फिर अपने महल की छत पर जा चढ़ा। वहां से उसने आवाज लगाई ‘सिंहद्वार पर कौन है?’ वीरवर ने कहा- ‘स्वामी! यहाँ मैं हूँ। आपकी आज्ञा से मैं उस स्त्री को देखने गया था। मेरे जाने पर देखते ही देखते वह राक्षसी के समान गायब हो गई।’

वीरवर की बात सुनकर राजा को बड़ा विस्मय हुआ, क्योंकि सारा हाल उसने अपनी आँखों से देखा था। वह सोचने लगा- अरे, मनस्वी पुरुष कैसे धीर चित्तवाले और समुद्र के समान गंभीर होते हैं, जो दूसरों से न हो सकने योग्य असाधारण काम करके भी उसका उल्लेख तक नहीं करते। यह सोचता हुआ राजा चुपचाप महल की छत से उतरा और अपने अंत:पुर में जाकर बाकी रात बिता दी।

सवेरा होते ही वीरवर राजसभा में राजा के दर्शन करने आया। उसके कार्यों से प्रसन्न राजा ने पिछली रात का सारा वृत्तांत अपने मंत्रियों से कह सुनाया। सुनकर वे सभी आश्चर्य से अचेत जैसे हो गए। राजा ने प्रसन्न होकर वीरवर तथा उसके पुत्र को ‘लाट’ और ‘कर्णाट’ का राज्य दे दिया। अब वे दोनों ही समान वैभव वाले तथा एक-दूसरे का भला करने वाले हो गए और इस तरह राजा वीरवर तथा राजा रूपसेन सुखपूर्वक रहने लगे।

(बेताल पच्चीसी से साभार)

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