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Hindi Kahani – स्वामिभक्त

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Hindi Kahani – बहुत समय पहले कनकपुर नाम के नगर में यशोधन नाम का एक राजा राज्य करता था। राजा यशोधन परनिन्दा करने में मूर्ख था, शास्त्रार्थ में नहीं, उसमें दुर्गुणों की दरिद्रता थीं, राजकोष और सेनाओं की नहीं। उसकी प्रजा उसका गुणगान करती हुई कहती थी कि वह पापों से डरता है, यश का लोभी है, परस्त्री के लिए नपुंसक है और वीरता, उदारता तथा श्रृंगार से युक्त है।

उस नगर में एक महासेठ भी रहता था। उसकी एक कन्या थी, जो उन्मादिनी नाम से प्रसिद्ध थी। कोई भी उसकी रूप-शक्ति से उन्मत हो जाता था। उसका सौंदर्य कामदेव को भी विचलित करने वाला था।

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जब वह विवाह योग्य हुई, तो उसके पिता राजा यशोधन के पास गए और उनसे निवेदन किया- ‘महाराज ! मैं त्रैलोक्य के रत्न के समान अपनी कन्या का विवाह करना चाहता हूँ, लेकिन आपसे निवेदन किए बिना उसका विवाह करने का साहस नहीं होता। समस्त संसार में सभी रत्नों के स्वामी आप ही हैं। अत: या तो उसे स्वीकार करके मुझे अनुगृहीत करें या अस्वीकार कर दें।

वणिक की बात सुनकर राजा ने उसकी कन्या के शुभ लक्षणों को देखने के लिए कुछ ब्राह्मणों को उसके घर भेजा। ब्राह्मणों ने वहां जाकर जैसे ही तीनों लोकों में अपूर्व रूपवाली उस कन्या को देखा, वैसे ही उनका चित्त चंचल हो गया, किंतु शीघ्र ही धैर्य धारण करके उन लोगों ने सोचा कि यदि राजा इस कन्या से विवाह करेगा, तो उसका राज्य नष्ट हो जाएगा, क्योंकि इसके द्वारा मोहित चित्त वाला राजा क्या राज्य की देखभाल कर सकेगा। अत: हम लोग राजा से यह नहीं कहेंगे कि यह सुलक्षण है।’ यह विचार कर वे वापस राजा के पास आ गए।

राजा के पास आकर उन ब्राह्मणों ने कहा- ‘राजन! वह कन्या तो कुलक्षणा है।’
यह सुनकर राजा ने वणिक की कन्या को स्वीकार नहीं किया। तब वणिक ने राजा की आज्ञा से अपनी कन्या उन्मादिनी का विवाह बलधर नामक सेनापति से कर दिया। वह अपने पति के साथ उसके घर में सुखपूर्वक रहने लगी, लेकिन उसके मन में इस बात की फाँस बनी रही कि राजा ने कुलक्षणा कहकर मेरा त्याग किया है।

एक दिन राजा यशोधन हाथी पर चढक़र नगर में हो रहे बसंत महोत्सव को देखने के लिए निकला। तभी उसकी नजर भवन की छत पर खड़ी उन्मादिनी पर पड़ गई। उसे देखकर राजा के मन में कामाग्नि की ज्वाला सुलग उठी। कामदेव के विजयास्त्र के समान उसकी सुन्दरता को देखते ही वह राजा के हृदय की गहराई में घुस गई और पलक झपकते ही राजा संज्ञाहीन हो गया। उसके सेवक उसे राजधानी ले आए। उनसे पूछने पर उसे मालूम हुआ कि यह वही कन्या है, जो उसे निवेदित की गई थी, पर जिसे उसने त्याग दिया था।
जिन ब्राह्मणों ने उसे कुलक्षणा कहा था, राजा ने उन्हें देश निकाला दे दिया। राजा दिन-रात उसी कन्या के लिए उत्कण्ठित रहने लगा। वह दिन-प्रतिदिन कमजोर होने लगा। लज्जा के कारण यद्यपि उसने अपनी भावना को छिपा रखा था, किंतु बाहरी लक्षणों को देखकर विश्वासजनों के पूछने पर उसने अपनी पीड़ा का कारण बता दिया। उन्होंने कहा- राजन्! इतना दु:खी होने की आवश्यकता नहीं है। वह तो आप ही के अधीन है, फिर आप उसे अपना क्यों नहीं लेते ?

लेकिन धर्मात्मा राजा ने उनकी बात नहीं मानी। सेनापति बलधर राजा का भक्त था। उसे यह बात मालूम हुई, तब वह राजा के पास आया और उनके चरणों में झुक कर बोला- राजन! आपके इस दास की वह स्त्री आपकी दासी है। वह परस्त्री नहीं है। मैं स्वयं ही उसे आपकी सेवा में भेंट करता हूँ। आप उसे स्वीकार करें।
अपने प्रिय भक्त सेनापति से ऐसी बात सुनकर राजा क्रोधित होकर बोला- राजा होकर मैं ऐसा अधर्म कैसे करूँगा? यदि मैं ही मर्यादा का उल्लंघन करूँगा, तो कौन अपने कर्तव्य मार्ग पर स्थिर रहेगा? मेरे भक्त होकर भी तुम मुझे उसपाप में क्यों प्रवृत्त करते हो, जिसमें क्षणिक सुख तो है, पर परलोक में महादु:ख का कारण है। यदि तुम अपनी धर्मपत्नी का त्याग करोगे, तो मैं तुम्हें क्षमा नहीं करूँगा, क्योंकि मेरे समान कौन राजा ऐसा अधर्म सहन कर सकता है? अत: मेरे लिए मृत्यु ही श्रेयस्कर है।

यह कहकर राजा ने उसकी बात टाल दी। नगर और गाँव के लोगों ने भी मिलकर राजा से यही प्रार्थना की, तब भी दृढ़निश्चयी राजा ने उनकी बात नहीं मानी। राजा का शरीर धीरे-धीरे उसी कामज्वर के ताप से क्षीण होता गया और अंत में उसका यश प्राप्त शरीर ही बचा रह गया, अथात् मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के शोक में सेनापति ने भी अग्नि में प्रवेश करके अपने प्राण त्याग दिए, क्योंकि अपने स्वामी की एसी मृत्यु को वह सहन नहीं कर सका। सच ही कहा गया है, भक्तों की चेष्टाओं को जाना नहीं जा सकता।

(बेताल पच्चीसी से साभार)

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