Holi Special : समुद्र मंथन के दौरान जब देवी देवताओं को भारी रत्न आभूषण और अमृत का कलश मिला था। वहीं विष का एक विनाशकारी घड़ा भी बाहर निकला, जो वायुमंडल को विषयुक्त कर समस्त जनमानस के विनाश में लगी थी। भगवान शिव, विषपान कर उस समय त्रिलोक का रक्षा किए। अर्थात किसी भी प्रतिक्रियाओं के हमेशा दो पहलू होते हैं। जहां सुख है वहीं दुख भी है..। जहां अमीरी हैं वहीं गरीबी है। जहां प्रेम हैं वहीं विरह है। जितना अधिक प्रेम बढ़ता है उतना ही विरह का सामना भी करना पड़ता है प्रकृति का यही नियम है। भगवान श्री कृष्ण और राधा जी का प्रेम अलौकिक है, जिसकी गाथा श्रृंगार रस के कई जाने माने कवि अलग अलग कालक्रम में किए हैं। चेतना मंच साहित्य श्रृंखला के इस आर्टिकल में भगवान और राधा जी के प्रेम के दूसरे पहलू की काल्पनिकता को समझेंगे।
Holi Special :
राधा अपनी सखियों के साथ पास के ही सुंदर तालाब के पास कदंब के पेड़ की छाव में बैठी हैं। बिल्कुल शांत भाव से अपने प्रियतम को याद कर प्रेम से अभिभूत हो रही हैं। सखियां राधा जी के साथ ठिठोली कर रही थी। सुंदर-सुंदर हंस, मंदक ठंडी हवाएं, कोयल की मधुर आवाजें, पक्षियों की चहचहाट, सुंदर फूल और वातावरण मानो राधा को और भी ज्यादा प्रियतम से मिलने को बेचैन कर रहे हो। राधा प्रतिदिन सखियों के साथ यहां से अपने प्रियतम का इंतजार करती हैं लेकिन भगवान के ना आने से पुनः विरह से अभिभूत राधा घर लौट जाती है। सखियां अपनी सबसे प्रिय सखी को उदास देखकर बहुत दुखी होती है।
विद्यापति अपनी सुंदर रचना से बड़ा ही सटीक राधा रानी का हाल बताते हैं।
चानन भेल विषम सर रे, भूषन भेल भारी।
सपनहुँ नहि हरि आयल रे, गोकुल गिरधारी॥
एकसरि थाड़ि कदम-तर रे, पथ हेरथ मुरारी।
हरि बिनु हृदय दगध भेल रे, झामर भेल सारी॥
जाह जाह तोहें उधब हे, तोहें मधुपुर जाहे।
चन्द्र बदनि नहि जीउति रे, वध लागत काहे॥
कवि विद्यापति गाओल रे, सुनु गुनमति नारी।
आजु आओत हरि गोकुल रे, पथ चलु झटकारी॥
चानन भेल विषम सर रे, भूषन भेल भारी।
सपनहुँ नहि हरि आयल रे, गोकुल गिरधारी।।
चंदन लगाकर, रत्न आभूषण से लदी हुई सजधज कर राधा भगवान का इंतजार करती हैं।
और सखियों से अपनी व्यथा कहती हैं,
प्रतीक्षा में अब तो चंदन भी अपने स्थान से खिसक कर जस-तस हो रहा है। इतनी सजधज कर भगवान का इंतजार कर रही हूं, अब तो हालत ये है कि आभूषण भी भारी लगने लगे हैं। मेरे प्रभु की निष्ठुरता देखिए अब तो वो सपनों में भी नहीं आ रहे हैं। भाव विभोर कर देने वाले इस पद्य के माध्यम से विद्यापति बड़ी ही कुशलता से राधा रानी जी के विरह का वर्णन करते हैं। आगे राधा कहती हैं,
एकसरि थाड़ि कदम-तर रे, पथ हेरथ मुरारी।
हरि बिनु हृदय दगध भेल रे, झामर भेल सारी॥
राधा कहती हैं,
इतनी देर से कदंब के नीचे खड़ी होकर प्रियतम का राह देख रही हूं।
अब तो हृदय भी दग्ध हो रहे हैं। साड़ी भी मैले हो गए हैं।
राधा अब अपने ग्राम की ओर प्रस्थान करती हैं, सखियों से राधा जी का विरह देखा नहीं जा रहा था।
जाह जाह तोहें उधब हे, तोहें मधुपुर जाहे।
चन्द्र बदनि नहि जीउति रे, बध लागत काह॥
राधा रानी का ये हाल देख कर गोपियां श्री कृष्ण से कहती हैं,
हे उधव, जाइए ….अपनी राधा के पास…। मधुपुर जाइए…!
चंद्रवदनी राधा अब आपके बिना नहीं जी सकती… वो तो विरह में इतनी व्याकुल है कि कहीं उसके प्राण ना छूट जाए…!
फिर हत्या का पाप किसे लगेगा … आप ही को लगेगा न..!
सुंदर तर्क देते हुए गोपियां भगवान से अनुरोध करती है।
कवि विद्यापति गाओल रे, सुनु गुनमति नारी।
आजु आओत हरि गोकुल रे, पथ चलु झटकारी॥
आगे अब अपनी रचना से विद्यापति, राधा रानी को समझाते हुए कहते हैं..! हे चंद्रवदनी इतना व्याकुल ना हों….आज हरि गोकुल आ रहे हैं। तेज चलिए भगवान पहुंचते ही होंगे।