Thursday, 28 March 2024

Literature : नेता को प्रत्येक व्यक्ति वोट नज़र आता है!

 विनय संकोची जैसे दुकानदार (Shopkeeper ) को सड़क पर चलता हुआ प्रत्येक व्यक्ति ग्राहक नजर आता है, जैसे डॉक्टर को…

Literature : नेता को प्रत्येक व्यक्ति वोट नज़र आता है!

 विनय संकोची

जैसे दुकानदार (Shopkeeper ) को सड़क पर चलता हुआ प्रत्येक व्यक्ति ग्राहक नजर आता है, जैसे डॉक्टर को प्रत्येक व्यक्ति बीमार लगता है, जैसे वकील को कचहरी में कदम रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति में क्लाइंट नजर आता है, जैसे पुलिस को देर रात घूम रहे प्रत्येक व्यक्ति में अपराधी दिखाई देता है, जैसे प्रेमी को प्रेमिका में सारा संसार दिखाई देता है, जैसे मनचले को प्रत्येक लड़कियों में प्यार नजर आता है, जैसे कलाकार को प्रत्येक पदार्थ में सौंदर्य दिखाई देता है, जैसे भूखे को चांद में भी तंदूरी रोटी नजर आती है, जैसे भक्तों को कण-कण में भगवान दिखाई देता है, जैसे ब्याज( Interest) पर पैसा देने वाले को हर आदमी ‘गरजू’ दिखाई देता है, जैसे किसान को प्रत्येक बादल में बरसात नजर आती है, जैसे धर्मगुरु को प्रत्येक व्यक्ति में भावी शिष्य नजर आता है, ठीक उसी प्रकार चुनाव लड़ने की प्रबल इच्छा रखने वाले प्रत्येक नेता को प्रत्येक जाति का, प्रत्येक बालिग व्यक्ति वोट नजर आता है। नहीं मानते हैं तो किसी नेता से पूछ कर मेरे दावे को कंफर्म कर सकते हैं।

कोई भी नेता ब्राह्मण, वैश्य, ठाकुर, यादव, गुर्जर, जाट, मुस्लिम, हरिजन सभी को वोट के रूप में देखता और मानता है। इस बात का प्रमाण यह है कि चुनाव में उतरने वाला प्रत्याशी अधिकांश रूप से जातिगत समीकरण के आधार पर तय होता है। जिस जाति का बाहुल्य उसी जाति का कैंडिडेट, यह अक्सर होता है। इसके उलट भी टिकटों की ‘बंटाई’ होती है। लेकिन जातियों, धर्म-संप्रदायों को वोट मानने के सच में कहीं कोई बदलाव नजर नहीं होता है।

वोट में ताकत है। वोट प्रतिनिधि चुनती है। वोट एक आम आदमी को खास बनाती है। गली-मोहल्ले से किसी को बाहर निकालकर, वोट ही उसकी प्रदेश-देश में पहचान बनाती है। वोट में सचमुच बहुत ताकत होती है। परंतु इस सब के बावजूद ‘वोट’ चुनावों के बाद निर्जीव मान ली जाती है। उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है। नेताओं के पास राजनीति से फुर्सत नहीं होती कि ‘वोट’ की तरफ देख सकें। दरवाजे-दरवाजे हाथ जोड़ने वाले नेता, चुन लिए जाने के बाद अपने दरवाजे पर आई ‘वोट’ से मिलना टाइम वेस्ट समझते हैं। वोट से मिलना हेठी समझते हैं। गद्दी मिलने के बाद ‘वोट’ के पास से गुजरते नेता ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे गंदगी के पास से गुजरता हुआ इंसान नाक पर रूमाल रख लेता है। गिरगिट की श्रेणी में रखे जाने योग्य नेता चुनाव आने पर फिर से वोटों के घुटने छूते नजर आते हैं। आखिर कब तक हम वोट बने रहेंगे, नेताओं को पालते रहेंगे?

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