‘पुरुषार्थी’ का शाब्दिक अर्थ है, जीवन का प्रयोजन, जो चार प्रकार का है – यथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। पराक्रम, उद्यम, पुरुषत्व, सामर्थ्य, शक्ति और बल। पुरुषार्थी को पराक्रमी, परिश्रमी, उद्योगी और सामर्थ्यवान कहा गया है।
पुरुषार्थ को परिभाषित करते हुए शास्त्र कहते हैं कि सदाचार मानो एक वृक्ष है, जिसकी जड़ धर्म है और अर्थ अर्थात धन इसकी शाखाएं हैं, काम इस वृक्ष के फूल हैं और मोक्ष इसका फल है।
इसका अर्थ यह हुआ कि सदाचार और पुरुषार्थ अभिन्न है। पुरुषार्थी और सदाचारी मनुष्य को अमर ज्योति का आधार कहा गया है। इसके विपरीत भाग्यवादी मानव को पुरुषार्थ का शत्रु और अपने ही अदम्य साहस रूपी खजाने का लुटेरा बताया गया है। जो मनुष्य पुरुषार्थी और सदाचारी होता है, वह न तो परिश्रम से मुंह
मोड़ता है और न ही कभी थकता है। बाधाएं उसका मार्ग रोक नहीं पाती हैं, क्योंकि वह बाधाओं से जूझकर आगे निकल जाने का साहस और आत्मबल रखता है। इसके विपरीत भाग्यवादी मनुष्य छोटी से छोटी बात को भी बड़ा संकट मानकर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है, वह आत्मविश्वास की कमी के चलते आगे बढ़ने के तमाम अवसर गवां देता है। आम भाषा में कहें तो भाग्य भरोसे बैठकर, पुरुषार्थ से नजर चुराने वाला मनुष्य प्रमादी और निकम्मा हो जाता है। भाग्यवादी का लक्ष्य रोजाना उससे दूर सरकता चला जाता है।
सच्चा पुरुषार्थी अपने जीवन में न केवल लक्ष्य स्थापित कर पाता है, अपितु लक्ष्य प्राप्ति के लिए शुभ संकल्प के साथ पूरे मन से भगीरथ प्रयास करता है। क्योंकि वह जानता है कि इस लक्ष्य की स्थिरता ही सफलता का सोपान है, सफलता की सीढ़ी है। इस सीढ़ी पर पुरुषार्थी सदाचार का सहारा लेकर ऊपर और ऊपर चढ़ता चला जाता है, जबकि भाग्यवादी नीचे खड़ा उसे ऊपर चढ़ते हुए देखकर कुंठित होता है।
मुंशी प्रेमचंद के अनुसार सदाचार का उद्देश्य संयम है। संयम से शक्ति है और शक्ति ही उत्थान की आधारशिला है। सदाचारी पुरुषार्थी संयम की शक्ति से आप्लावित रहता है और यही शक्ति उसे बिना थके लक्ष्य तक पहुंचाने में सहायता करती है। पुरुषार्थी जानते हैं कि संयम-शक्ति से ही शारीरिक, मानसिक और आत्मबल दृढ़ से दृढ़तर होते हैं, चित्त की स्थिरता बढ़ती है और मन में चलता द्वंद्व धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है।
सदाचारी पुरुषार्थी के जीवन में एकाग्रता के महत्व को भुलाया नहीं जा सकता है। अर्जुन की सफलता का मूल मंत्र है एकाग्रता ही थी। एकलव्य ने एकाग्रता के बल पर ही गुरु की मिट्टी की मूर्ति से धनुर्विद्या में महारथ हासिल की थी। शास्त्रों का कथन है एकाग्रता के अभाव में व्यक्ति की प्रतिभा असमय मुरझाकर नष्ट हो जाती है।
लक्ष्य की स्थिरता और एकाग्रता के साथ-साथ आत्मविश्वास और साहस भी पुरुषार्थ के अभिन्न अंग हैं। आत्मबल का अभाव अर्थात स्वयं की शक्तियों पर भरोसे की कमी पुरुषार्थ के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। आत्मविश्वास के बिना साहस का उदय नहीं होता है, जिसके कारण लक्ष्य प्राप्ति कठिन से कठिनतर और फिर असंभव हो जाती है।…और जब ऐसा समय, ऐसी परिस्थिति आती है, तब मनुष्य को स्वयं पर क्रोध आता है, परमात्मा पर क्रोध आता है, वह अपने भाग्य को कोसता है, परंतु अपनी गलती नहीं सुधारता है। आत्मबल से बड़ा कोई बल संसार में तो नहीं है। आत्मबल तमाम सुखों का जनक है।