रूप का शाब्दिक अर्थ है – स्वभाव, प्रकृति, सुंदरता, दशा, रूपा, चांदी, अवस्था, वेश, शरीर, देह, चिन्ह आदि। परंतु अधिकांश मनुष्य रूप को सुंदरता ही मानते हैं और जानते हैं। जबकि रूप का एक मुख्य अर्थ स्वभाव भी है। स्वभाव जो प्रत्येक मनुष्य का भिन्न होता है। स्वभाव जो किसी का अग्नि के समान तो किसी का जल के समान होता है।
वैसे अग्नि के स्वभाव को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि अग्नि के स्वभाव में भेद को कोई स्थान नहीं है। अग्नि का स्वभाव है जलाना, जो कुछ भी उसके संपर्क में आता है, अग्नि उसे जला देती है। हवन की लकड़ियां हो या चिता की अग्नि जलाने में कोई भेद नहीं करती। वह वस्तु-जंतु देखकर अपने स्वभाव में परिवर्तन नहीं करती, अपना रूप नहीं बदलती। रूप का अर्थ ‘स्वभाव’ से ही है।
इसके विपरीत जल जिस पात्र में रखा जाता है उसी के आकार में स्थापित हो जाता है। लेकिन जल रहे किसी भी आकार-प्रकार में वह भी धरती को सींचने और प्राणियों की प्यास बुझाने के अपने स्वभाव को बदलता नहीं है। जल अपनी शीतलता को त्यागता नहीं है, अपनी उपकारी प्रवृत्ति को बदलता नहीं है। शायद जल के परोपकारी स्वभाव को देखकर ही उसे जीवन की संज्ञा से विभूषित किया गया है, जल ही जीवन है।
स्वभाव वही है जो किसी भी स्थिति परिस्थिति में परिवर्तित न हो, जो बदल जाए उसे स्वभाव कहा ही नहीं जा सकता है, वह तो परभाव कहलाता है। किसी दूसरे के प्रभाव में आकर अपने भाव, अपने विचार, अपना स्वभाव बदल लेने वाला दृढ़ निश्चयी भी नहीं होता है। ऐसे मनुष्य पर लोग भरोसा नहीं करते हैं, क्योंकि पल-पल रूप यानी स्वभाव बदल लेने वाला बहुरूपिया कहलाता है और बहुरूपिया पर लोग विश्वास नहीं करते हैं, उसे छल करने वाले छलिया के रूप में देखते हैं।
स्वभाव सूर्य सा होना चाहिए जो समस्त संसार को ऊष्मा और प्रकाश देने की आदत कभी नहीं बदलता है। पेड़-पौधों जैसा स्वभाव होना भी उत्तम है और सुगंधित पुष्पों जैसा भी। यदि दृष्टि दौड़ाएं तो पाएंगे कि प्रकृति के कण-कण में परमात्मा ने ऐसे असंख्य तत्वों का समावेश किया है, जो अपना स्वभाव नहीं बदलते हैं।
परमात्मा द्वारा बनाए जीवों में मनुष्य ही ऐसा है, जिसका स्वभाव सबसे ज्यादा परिवर्तनशील है। पल में रत्ती पल में माशा और क्षणे तुष्टा क्षणे रूष्टा वाली उक्तियां मनुष्य मात्र पर ही सटीक बैठती है। शेर किसी भी परिस्थिति में कितना भी भूखा होने पर भी घास नहीं खाता है और जो शाकाहारी पशु है उनमें से कोई भी अपने स्वभाव के विपरीत मांस का सेवन नहीं करता है। परंतु मनुष्य लोभ लालच में अपना स्वभाव बदल लेता है और प्राकृतिक गुणों के विपरीत आचरण करने पर उतारू हो जाता है।
समाज में हमारे बीच ऐसे असंख्य लोग देख पड़ते हैं, जिनका स्वभाव स्थिर नहीं होता है। वैसे सच तो यह है कि विरले लोग भी स्थाई स्वभाव के मालिक होते हैं। विचित्र बात यह है कि समय और परिस्थिति के अनुसार अपने स्वभाव बदल लेने वालों की तुलना में वे लोग कहीं अधिक आलोचना का शिकार होते हैं जो अपने स्वभाव के विरुद्ध कार्य करने से इंकार कर देते हैं।
इन तमाम बातों का अर्थ यह नहीं लगा लेना चाहिए कि स्वभाव में परिवर्तन की कोशिश ही न की जाए। यदि आपका स्वभाव कटु है, तो उसे बदलने में कोई बुराई नहीं है, उसे बदलने का प्रयास करना चाहिए। ‘रूप’ (स्वभाव) में इतना परिवर्तन तो स्वीकार्य है, जितने परिवर्तन को देखने वाले दूसरे लोग आनंदित हों। रूप को स्वरूप की ओर ले जाने में कोई बुराई नहीं है, बुराई है रूप को कुरूप बनाने में।