Friday, 29 March 2024

Literature : भगवान श्रीराम प्रजा से अनुमति लेकर ही कुछ कहते थे!

 विनय संकोची रामराज्य आए दिन सोशल मीडिया और आम समाज में खूब चर्चा का विषय बना रहता है। यह अच्छी…

Literature : भगवान श्रीराम प्रजा से अनुमति लेकर ही कुछ कहते थे!

 विनय संकोची

रामराज्य आए दिन सोशल मीडिया और आम समाज में खूब चर्चा का विषय बना रहता है। यह अच्छी बात है, कम-से-कम इसी बहाने लोग भगवान राम का नाम तो ले ही रहे हैं। ‘कलियुग केवल नाम अधारा, सुमर सुमर नर उतरसी पारा’- इस हिसाब से प्रभु नाम का स्मरण, परमात्मा के नाम का कीर्तन-संकीर्तन, प्रभु नाम-चर्चा, प्राणी मात्र के लिए लाभदायक है।

रामराज्य में पाप और अपराध की कभी स्थिति ही नहीं थी और आज जब रामराज्य स्थापित करने का वादा किया जा रहा है, हर तरफ पाप और अपराध का काला साया मंडराता दिखाई देता है, जो लोगों को डराता है। भगवान श्री रामचंद्र जी महाराज अपनी प्रजा से कुछ आध्यात्मिक ज्ञान पर कहना चाहते हैं, तो हाथ जोड़कर कहते हैं-‘ यदि आप लोगों का आदेश हो तो मैं कुछ कहूं। आपको अच्छा लगे तो सुनिए अच्छा ना लगे अथवा मैं कोई अनीति पूर्ण बात कहूं तो मुझे रोक दीजिए –

‘जो अनीति कुछ भाषौं भाई।
तो मोहि बरजहु भय बिसराई’।।

राम राज्य में राजा-प्रजा के कैसे क्या संबंध हों, यह स्पष्ट है। लेकिन आज मामला इसके ठीक विपरीत है। आज प्रजा को वह सब कुछ सुनना ही सुनना है, जो ‘राजा’ कहता है। प्रजा को प्रत्युत्तर की अनुमति नहीं है। रामराज्य में मर्यादा पुरुषोत्तम राम को रोका जा सकता था, लेकिन आज उनके तथाकथित भक्त राजा को रोकने का दु:साहस करने वाले को राजद्रोह की धाराओं का सामना करना पड़ सकता है। क्या ऐसी स्थिति परिस्थिति में रामराज्य स्थापित हो सकता है? विचार करके देखें और उत्तर स्वयं अपने आप को दें, इस प्रश्न का।

रामराज्य में अपनी प्रजा के दोषों और पापों के लिए राजा ही उत्तरदाई था। राजा को दूसरों से दान लेने का कोई अधिकार भी नहीं था। लोकापवाद का भय राजा को अनाचार में प्रवृत्त होने से रोकता था। आज जब रामराज्य स्थापित करने का दम भरा जा रहा है, राजा अपनी प्रजा के दोषों को तो छोड़िए स्वयं अपने दोषों के लिए खुद को उत्तरदाई नहीं मानता है। तब राजा को दूसरों से दान लेने का अधिकार नहीं था, लेकिन आज तो राजा राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए धन वालों के आगे झोली फैलाकर खड़े हो जाते हैं, यह निश्चित रूप से उनकी गरिमा के विरुद्ध कृत्य है लेकिन उन्हें इससे कोई परहेज नहीं होता है। दान लेकर राजा उपकृत हो जाता है और दानियों पर खुले मन से कृपा वर्षा कर उऋण होने का प्रयास करता है। ऐसा राजा राम राज्य स्थापित कर सकता है क्या? इस प्रश्न का भी उत्तर खोजें। आप विवेकशील हैं, आप ऐसा कर सकते हैं।

राम का काम मानव मात्र का कल्याण था, लेकिन आज तो अधिसंख्य मानव दु:खी, पीड़ित, व्यथित हैं। इन सब को सुखी, संतुष्ट किए बिना रामराज्य की स्थापना संभव नहीं है। राम जैसा दिखना एक बार को संभव हो सकता है, लेकिन राम जैसा होना असंभव से भी परे है। कल्पना की उड़ान भी वहां तक नहीं है। कहां राम और कहां महत्वाकांक्षाओं के खेत को पानी देते स्वार्थ पूर्ति राजा। भगवान श्री रामचंद्र जी के राज्य में दंड केवल सन्यासियों के हाथों में था और भेद नाचने वालों के नृत्य समाज में है और ‘जीतो’ शब्द केवल मन के जीतने के लिए सुनाई पड़ता है-

‘दंड जतिन्ह कर भेद जहं नर्तक नृत्य समाज। जीतहू मनही सुनिअ अस रामचंद्र के राज।।’

हम रामराज का सपना देख रहे हैं, जबकि अब ‘जीतो’ शब्द मन को जीतने के लिए नहीं बल्कि साम, दाम, दंड, भेद के द्वारा विरोधियों- विपक्षियों के दमन और राज्यों की सत्ता पर काबिज होने के लिए युद्ध घोष के रूप में अपनाया जा रहा है। प्रधानमंत्री महोदय ने गत वर्ष एक बार अपने ‘आध्यात्मिक संबोधन’ में कहा था कि गुरु गोविंद सिंह जी महाराज ने ‘गोविंद रामायण’ की रचना की थी, जबकि सिख धर्म के अनुयाई इसको सही नहीं मानते हैं। अगर यह सही नहीं है तो आदरणीय मोदी जी ने ऐसा कैसे बोल दिया। कहीं-न-कहीं तो उन्होंने पढ़ा-सुना होगा। या फिर यह ऐसा मामला है कि ‘विनय पत्रिका’ मैंने यानी विनय ने लिखी है। बहरहाल यह बहस का विषय नहीं है। चर्चा तो रामराज पर चल रही है, आगे भी चलेगी।

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