मैं कुछ नहीं हूं। मैं कुछ हो ही नहीं सकता हूं। मैं कुछ भी कैसे सकता हूं-लेकिन फिर भी मैं अपने अंदर एक ‘मैं’ पालता हूं, पोसता हूं, उसे पुचकारता हूं। यह ‘मैं’ मुझे उकसाता है कि मैं कुछ ऐसा कहूं, कुछ ऐसा करूं, जिससे मैं, मैं ना रहूं और वह हो जाऊं जो मेरे अंदर पल रहा है ‘मैं’ चाहता है। अंदर का ‘मैं’ बाहर वाले मुझे पूरी तरह से बदलना चाहता है, मैं कभी कभी बदला भी हूं।
मेरा मूल स्वरूप जब-जब अंदर बैठे ‘मैं’ से प्रभावित होता है, तब तक मैं, मैं नहीं रहता हूं, कुछ ऐसा हो जाता हूं, जैसा वास्तव में मैं हूं नहीं। अंदर बैठे ‘मैं’ और मूल मुझ में हमेशा ही संघर्ष चला करता है, द्वंद्व हुआ करता है। सच कहूं तो कभी-कभी अंदर का ‘मैं’ जीत जाता है, मैं हार जाता हूं और यह हार मुझे न जाने कितने अपनों से दूर ले जाती है, जाने कितने अपनों को दु:ख पहुंचाती है, ना जाने मुझे कितना अकेला कर जाती है।
अंदर बैठा ‘मैं’ मेरी हार पर कभी मुस्कुराता है, तो कभी खिलखिलाता है। भीतर बैठा ‘मैं’ हमारी हार का कारण बनता है, लेकिन हमारी समझ में यह बात तब आती है, जब हम हार चुके होते हैं। भीतर बैठा ‘मैं’ हमारा अहंकार है और हमारे मूल रूप को विरूपित, करता है हमें छलता है।
यह भीतर वाला ‘मैं’ अहंकार, अभिमान, घमंड और न जाने किन-किन नामों से जाना पहचाना जाता है। यह होता भी कई प्रकार का है। किसी को धन का अहंकार होता है, किसी को विद्या का अभिमान होता है, किसी के सिर बुद्धि का अहम चढ़कर बोलता है, कोई-कोई तो प्रेम भी अहंकारी होता है। सबसे बड़ी बात है कि अहंकार किसी भी प्रकार का हो, छुपता नहीं है, छुप सकता ही नहीं है क्योंकि प्रकट होना इसका स्वाभाविक गुण है और यह अपना गुण त्यागता नहीं है।
भलाई करना, अच्छा होना, सद्गुण के रूप में देखे जाते हैं। लेकिन अच्छाई का अहंकार करना सबसे बड़ी बुराई मानी जाती है। अच्छाई का अभिमान बुराई की जड़ है, ऐसा संत-ग्रंथ कहते हैं। लेकिन कितने लोग हैं जिनके मन में परोपकार करने के बाद- ‘मैंने यह कर दिया’ का भाव पैदा नहीं होता है। सच तो यह है कि यदि कोई व्यक्ति है कहता है मुझ में तनिक भी अहंकार नहीं है, उससे बड़ा तो कोई अहंकारी हो ही नहीं सकता है। क्योंकि यह उसका अहंकार ही कहलवा रहा है कि वह अहंकारी नहीं है।
आज शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो ‘मैं पने’ से मुक्त हो, अहंकार से रहित हो, अभिमान शून्य हो। आम आदमी की तो बात ही क्या जो उपदेशक, जो मार्गदर्शक, जो गुरु-सद्गुरु, जो धर्म गुरु अपने शिष्यों-अनुयायियों को तमाम पौराणिक आख्यान-व्याख्यान और प्रसंगों का हवाला देते हुए अहंकार मुक्त जीवन जीने की सलाह देते हैं, वह स्वयं ‘मैं’ रोग से ग्रसित हैं। इनमें कोई विरला ही होगा जो ज्ञान, विद्या, बुद्धि, योग्यता, क्षमता, प्रतिभा अथवा भक्ति के अहंकार से मुक्त निकलेगा। मैं यह नहीं कह रहा कि इस युग में कोई भी संत-महापुरुष अहंकार शून्य नहीं है। लेकिन यह अवश्य कह रहा हूं कि जैसा मैं कह रहा हूं वैसा संत-महापुरुष खोजना लगभग असंभव ही है।