Tuesday, 23 April 2024

नि:संकोच : राजनीति का ‘आरक्षण’ हो रहा है?

 विनय संकोची राजनीति और राजनीतिज्ञों का चेहरा इस तेजी से बदला है कि कुछ भी स्पष्ट नहीं है। आज अस्पष्टता…

नि:संकोच : राजनीति का ‘आरक्षण’ हो रहा है?

 विनय संकोची

राजनीति और राजनीतिज्ञों का चेहरा इस तेजी से बदला है कि कुछ भी स्पष्ट नहीं है। आज अस्पष्टता के दौर में भ्रम और असमंजस की धुंध में लिपटा हुआ है देश। कल तक नेता बनने के लिए सबसे पहली शर्त समाजसेवा होती थी। जो जितना ज्यादा जनता के दु:ख दर्द में शामिल होता था, वह उतना ही स्वीकार्य नेता होता था। आज मामला उल्टा है सारे सांसदों, विधायकों पर दृष्टि दौड़ाएंगे, तो मुश्किल से दस बीस परसेंट (नेता) जनप्रतिनिधि ऐसे निकल कर सामने आएंगे, जो जनसेवा के बल पर सांसद या विधायक बने हैं। बाकी या तो किसी लहर में बहकर संसद या विधानसभा पहुंचे या फिर धन बल की कश्ती पर सवार होकर सत्ता सुख भोग रहे हैं।

एक समय था, जब किसी दलबदलू नेता को उसी दृष्टि से देखा जाता था, जैसे किसी अन्य असामाजिक अपराधी को देखा जाता है। लेकिन आज दल बदलना, दलों और नेताओं के लिए एक राजनीतिक व्यवसाय बनकर उभरा है। जो कल तक दल विशेष को गालियां देता था, आज उसी पार्टी के नेताओं के साथ गले में माला डाल कर फोटो खिंचवा लेता है। जनता उससे यह पूछने का भी अधिकार खो बैठी है कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया। दल विशेष के टिकट पर चुनाव लड़कर जीत हासिल करने वाले नेता, जब दूसरे दल में छलांग लगा जाते हैं, तो निश्चित रूप से उन वोटरों के साथ विश्वासघात करते हैं, जिन्होंने उसे दल विशेष के कैंडिडेट के रूप में विजयश्री दिलवाई थी। क्या नेताओं के इस तरह के कृत्य को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? क्या जनता की ओर से ऐसे नेताओं के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? क्योंकि जनता को केवल वोट देने से मतलब रह गया है अब और अपनी फिक्र में देश की फिक्र करने की फुर्सत उसके पास नहीं है इसलिए नेता बेलगाम हैं।

इस बात को तो अब पूरी तरह स्वीकार कर ही लिया जाना चाहिए कि राजनीति केवल पैसे वालों के लिए आरक्षित हो चुकी है। गरीब और मध्यमवर्गीय आज नहीं तो आने वाले कल में, राजनीति में आने का सपना देख पाना भी अफोर्ड नहीं कर पाएगा। राजनीति पूरी तरह पैसों के पहियों पर गतिमान है। यदि आपके पास धन बल है और आपकी इच्छा राजनीति में जाने की है, तो आप कोई ना कोई पद या टिकट खरीदकर अपना यह शौक पूरा कर सकते हैं।

अब तो यह भी नंगा सच है कि पदों और किसी भी चुनाव के टिकटों की खुलेआम बोली लगती है। ज्यादा बोली लगाने वाला, कम बोली लगाने वालों को हिकारत की नजर से देखता हुआ गाड़ी में बैठकर निकल जाता है। इस बात को भी स्वीकार कर लिया जाना चाहिए कि अब राजनीति में विचारधारा, राजनीतिक समझ, समाजसेवा, जनता के बीच उपस्थिति जैसी योग्यताओं के लिए कोई जगह नहीं है। अगर मेरी बात गलत लगे तो अपने दूर पास के जनप्रतिनिधियों पर एक दृष्टि घुमा कर जरूर देख लेना।

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