Tuesday, 23 April 2024

नि:संकोच : लोकतंत्र में लोकनीति क्यों नहीं?

 विनय संकोची लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ है- लोगों का शासन जनता का शासन। अमेरिका के राष्ट्रपति एवं विचारक अब्राहम लिंकन…

नि:संकोच : लोकतंत्र में लोकनीति क्यों नहीं?

 विनय संकोची

लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ है- लोगों का शासन जनता का शासन। अमेरिका के राष्ट्रपति एवं विचारक अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा दी जिसके अनुसार – ‘लोकतंत्र जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है।’ लेकिन क्या हमारे देश में जनता का शासन है? यह प्रश्न इसलिए बनता है क्योंकि यहां राजनीति है, लोकनीति नहीं, जननीति नहीं, राजनेता हैं, जननेता नहीं हैं।

हमारे यहां तो तमाम चेहरे-मोहरे और सोच वाले राजनीतिक दल हैं, लेकिन एक भी जननीतिक दल नहीं है। भारत में राजनेताओं के जंगल उगा हुआ है, कोई जननेता दिखाई नहीं पड़ता है। यहां ‘राज’ की बात होती है ‘लोक’ को लेकर कोई गंभीर नहीं है। हमारे अपने संविधान में ‘जन’ और ‘प्रजा’ जैसे शब्दों को प्राथमिकता दी गई है, लेकिन राजनीति इन पर हावी है। राजे रजवाड़ों के जमाने में, बादशाहों की सल्तनत में, अंग्रेजों के शासन काल में तो राजनीति शब्द का प्रयोग उचित था, क्योंकि राजा, बादशाह, अंग्रेज राज करना चाहते थे और राजनीति करते थे। देश आजाद हो गया देश में लोकतंत्र स्थापित हो गया लेकिन हो आज भी राजनीति ही रही है। जन नेता होते तो जनता की सेवा को समर्पित रहते लेकिन वह तो राजनेता हैं, इसलिए जनता से अपनी सेवा की अपेक्षा ही नहीं रखते बल्कि सेवा करवाते भी हैं। तथाकथित जनप्रतिनिधि वास्तव में राज्य कहें या सरकार, के प्रतिनिधि की तरह काम करते हैं।

इतिहास गवाह है कि आज तक तमाम सरकारें जो नीतियां बनाती है उनकी नींव में राजनीति का पत्थर अवश्य ही लगा रहता है। नीतियों की घोषणा, योजनाओं की घोषणा, राजनीतिक फायदे का समय देखकर की जाती है। लोक को मात्र वोट समझने वाले अधिकारी नेताओं का व्यवहार राजे रजवाड़ों से अलग नहीं होता है। लोकतंत्र का ‘लोक’ अपने ही द्वारा चुने गए तथाकथित जनप्रतिनिधियों से मिलने जाता है, तो उसकी बात एहसान के रूप में सुनी जाती है। ‘लोक’ को अपने ही द्वारा चुने गए प्रतिनिधि से सवाल करने तक का अधिकार जहां न हो, वहां लोकतंत्र की कल्पना ही बेमानी है। हम छद्म लोकतंत्र में जी रहे हैं। हमारे हाथ में केवल वोट डालना है। समझ बूझ कर या बहकावे में आकर अपनी पसंद या ना पसंद का नेता चुनना है। नेता को राजनेता बनाकर अपने ऊपर शासन करने का अधिकार देना है। क्या इसी को लोकतंत्र कहा जा सकता है, जहां सच बोलने का वाले राजद्रोही घोषित कर दिए जाते हैं। जहां आप भगवान को तो बुरा भला कह सकते हैं, भगवान पर तो सुविधाएं उपलब्ध न कराने का आरोप सरे बाजार लगा सकते हैं लेकिन जिस ‘राजा’ को हमने चुना है, उससे कोई प्रश्न नहीं कर सकते हैं। न उसकी किसी नीति पर उंगली उठा सकते हैं। क्या लोकतंत्र में ‘लोक’ की यही दुर्गति होती है।

सबसे बड़ा संकट यह है कि ‘लोक’ से ही ‘लोक’ को भिड़वा कर लोकतंत्र की दुहाई देने वाले राजनेता, जननेता होना ही नहीं चाहते हैं। विडंबना यह है कि गांधारी की तरह अपनी आंखों पर जानबूझकर पट्टी बांधकर घूमने वाला ‘लोक’ का एक हिस्सा ‘तंत्र’ के शोषण, दुराभाव तथा भेदभाव को महिमामंडित करने का काम कर रहा है। राजनेता, राजनीति, राजनीतिक दल जिन्हें ‘राज’ प्रिय है, कभी भी सच्चे लोकतंत्र को मन से स्वीकार नहीं कर सकते हैं। लोकतंत्र जनता के द्वारा जनता के लिए जनता का शासन है, यह बात किताबी है, व्यवहारिक नहीं। बाकी सोच सबका अपना-अपना।

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