क्या इंदिरा गांधी से प्रेरित हैं मोदी के ये फैसले!
Anjanabhagi
शुक्रवार को देश में ज्यादातर लोगों के दिन की शुरुआत एक चौंका देने वाली खबर से हुई। प्रधानमंत्री ने गुरुपर्व और कार्तिक पूर्णिमा के मौके पर देश को संबोधित करते हुए सितंबर 2020 में संसद से पास तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की। मोदी ने कहा, ‘शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रही होगी कि हम दिए के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसान भाइयों को समझा नहीं पाए।’
सार्वजनिक तौर पर शायद पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह माना है कि वह अपना संदेश किसानों के एक खास वर्ग तक नहीं पहुंचा पाए। मोदी को वर्तमान भारत का सबसे प्रभावशाली वक्ता माना जाता है। तो क्या मोदी, जनता तक अपनी बात पहुंचाने की क्षमता खो रहे हैं? क्या मोदी का जादू घट रहा है? या यह सब केवल चुनाव जीतने के लिए किया जा रहा है?
पीएम की घोषणा से इन्हें लगा सबसे बड़ा झटका
उत्तर भारत खासकर पंजाब, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान पिछले लगभग एक साल से धरने पर बैठे हैं और तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे थे। अचानक, गुरू पर्व के दिन मोदी टीवी स्क्रीन पर आते हैं और तीनों कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर देते हैं। इस घोषणा की मिली-जुली प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है लेकिन, इसने उन लोगों को सबसे ज्यादा झटका लगा है जो मोदी के कट्टर समर्थक हैं। जो यह मानते हैं कि मोदी कभी गलती नहीं कर सकते और उन्हें अपने किसी फैसले को बदलना नहीं चाहिए।
साफ है कि इस फैसले के बाद विरोधी नहीं, मोदी के समर्थकों के मन में बनी उनकी छवि को जोर का झटका लगा है।
मोदी की यूएसपी
यूएसपी यानी, यूनिक सेलिंग प्वॉइंट। यानी, ऐसी खासियत जो आपको बाकी सबसे अलग बनाती है। मोदी की यूएसपी यही है कि वह क्या फैसला लेंगे इसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता। उनके सबसे करीबी और कट्टर समर्थक भी नहीं।
अपने इस फैसले से मोदी ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि वह कभी भी, किसी को भी चौंका सकते हैं। चौंकाने के मामले में वह किसी के साथ भेदभाव नहीं करते। चाहे उनके समर्थक हों या विरोधी।
क्यों छोटे से वर्ग के सामने टेक दिए घुटने
मोदी ने अपने भाषण में कहा कि तीनों कानून, किसानों और देश के हित में थे लेकिन, इस बात को किसानों के एक छोटे से वर्ग को समझा नहीं पाए। सीएए, तीन तलाक और धारा 370 को हटाने वाले कानूनों के खिलाफ तो एक पूरा संप्रदाय था, फिर भी सरकार टस से मस नहीं हुई। आखिर क्यों?
मोदी या बीजेपी यह कभी नहीं चाहेंगे कि देश की राजनीति को ध्रुवीकरण, राष्ट्रवाद या मोदीवाद से अलग किसी अन्य मुद्दे की ओर मोड़ दिया जाए। सीएए, तीन तलाक या धारा 370 के विरोध से बीजेपी को फायदा था। लेकिन, किसान आंदोलन के चलते देश की राजनीति बीजेपी के एजेंडे से बाहर जा रही थी।
‘मोदीवाद’ बना सबसे बड़ा मुद्दा ध्रुवीकरण और राष्ट्रवाद की कमजोर हो रही राजनीति को एक झटके में ही मोदी ने अपने नाम और इमेज की राजनीति की तरफ मोड़ दिया है। जाहिर है कि आने वाले कई महीनों तक लोग यही चर्चा करेंगे कि क्या मोदी कमजोर हो रहे हैं?
यानी, चित हो या पट, चर्चा के केंद्र में मोदी होने चाहिए। महंगाई, लखीमपुर, प्रदूषण को भूल कर एक बार फिर, मीडिया से लेकर चाय-पान की दुकान तक चर्चा के केंद्र में ‘मोदी’ होंगे।
इंदिरा गांधी और मोदी में कॉमन है ये बात
इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाते हुए क्या ये नहीं सोचा होगा कि इतिहास उन्हें किस रूप में याद करेगा? ऐसा न सोचने की वजह से ही इंदिरा गांधी ने अपनी छवि एक ऐसे नेता के तौर पर स्थापित की जो इस बात की परवाह नहीं करता कि लोग क्या सोचेंगे। यही वजह थी कि इमरजेंसी खत्म होने के दो साल के भीतर जनता ने उन्हें फिर से देश का प्रधानमंत्री बना दिया।
यह बात मोदी में भी देखी जा सकती है। नोटबंदी या लॉकडाउन जैसे कठोर फैसले लेते समय मोदी यह नहीं सोचते कि इतिहास उन्हें किस तरह याद करेगा। वह फैसला ले लेते हैं और अगले चुनाव में तमाम आलोचनाओं के बावजूद जनता उन्हें पहले से भी ज्यादा वोट देकर जिता देती है। शायद, इंदिरा गांधी की ही तरह मोदी को भी पता है कि जनता कैसे सोचती है।
अब होगा जनता के मूड का विश्लेषण
कृषि कानूनों को वापस क्यों लिया गया? इससे पंजाब या यूपी के चुनाव में बीजेपी को फायदा होगा या नहीं? क्या इससे मोदी ब्रांड का नुकसान होगा? विशेषज्ञ इन सवालों का विश्लेषण करते रहेंगे लेकिन, आम जनता के विश्लेषण का तरीका अलग ही होता है। इसका अंदाजा लगाना किसी भी विशेषज्ञ के लिए आसान नहीं है। नेता की नज़र विश्लेषकों पर नहीं, जनता के मूड पर होती है। देखना दिलचस्प होगा कि क्या मोदी ने यह फैसला लेने से पहले जनता के मूड का जो विश्लेषण किया है वह सही साबित होता है या नहीं।