विनय संकोची
Women’s Day Special:: वेदों में नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण और उच्च स्थान प्रदान किया गया है। वेदों ने स्त्री को यज्ञ के समान पूजनीय, ज्ञान देने वाली, सुख-समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इंद्राणी, सब को जगाने वाली उषा आदि कहकर मान दिया है। शास्त्रों के ज्ञाता मानते हैं कि वैदिक काल के प्रारंभ में पहले समाज मातृसत्तात्मक था, जिसमें नारी की, पुरुष की तुलना में उच्च भूमिका थी। इस युग में स्त्रियों के लिए शिक्षा- दीक्षा की सुंदर व्यवस्था थी। पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन, घर-परिवार तथा सभाओं में और युद्धों आदि सभी जगह स्त्रियों का समान रूप से प्रमुखता से योगदान था।
यजुर्वेद के मंत्रों में स्पष्ट उल्लेख है – “स्त्री और पुरुष दोनों को शासक चुने जाने का समान अधिकार है। स्त्रियों की भी सेना हो। स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए प्रेरित करें। शासकों की स्त्रियां अन्यों को राजनीति की शिक्षा दें, जैसे राजा लोगों का न्याय करते हैं, वैसे ही रानी भी न्याय करने वाली हो।”
अथर्ववेद के मंत्र भी नारी के संबंध में बहुत कुछ कहते हैं, यथा – “कन्याओं की शिक्षा भी लड़कों के समान हो। कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें। माता-पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल का उपहार दें। वे उसे ज्ञान का दहेज दें।”
इससे आगे अथर्व वेद कहता है – “हे पत्नी! हमें ज्ञान का उपदेश कर। पति को संपत्ति बनाने के तरीके बता। हे स्त्री! तुम सभी कर्मों को जानती हो। तुम हमें ऐश्वर्य और समृद्धि दो। तुम सब कुछ जानने वाली हो, हमें धन-धान्य से समर्थ कर दो। हे स्त्री! तुम हमारे धन और समृद्धि को बढ़ाओ। तुम हमें बुद्धि से धन दो। हे स्त्री! तुम हमारे पर घर की प्रत्येक दिशा में ब्रह्म ज्ञान का प्रयोग करो। हे वधू! विद्वानों के घर में पहुंचकर कल्याणकारिणी और सुख-दानी होकर तुम विराजमान हो। हे वधू! तुम ऐश्वर्य की नौका पर चढ़ो और अपने पति को जो कि तुम ने स्वयं पसंद किया है, संसार सागर के पार पहुंचा दो। हे वधू! ऐश्वर्य की अटूट नाव पर चढ़ और अपने पति को सफलता के तट पर ले चल।”
इसी तरह ऋग्वेद में भी नारी की खूब प्रशंसा की गई है। वैदिक काल में अनेक ऋषिकाएं भी वेद मंत्रों की दृष्टा हुई हैं। जिनमें – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति, दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आदि का नाम उल्लेखनीय है।
वैदिक काल और उसके बाद स्त्रियों की जो ऊंची स्थिति थी, वह स्थिर न रही। बाल-विवाह के निर्देश ने स्त्रियों की शिक्षा को बाधित किया, जो गिरकर मामूली स्तर पर आ गई। जब शिक्षा का स्तर ही गिर गया, तो वेदों का ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं था। धार्मिक संस्कारों में भाग लेने पर पाबंदी लग गई और उनका मुख्य कर्तव्य पति की आज्ञा का पालन मात्र रह गया। विवाह की अनिवार्यता हो गई। बहुपत्नी प्रथा का जोर हो गया। स्त्री का सम्मान पत्नी के रूप में नहीं बल्कि केवल माता के रूप में ही रह गया। स्त्रियों के अधिकारों में लगातार कमी आती चली गई। महिलाओं का सम्मान और प्रतिष्ठा पुरुष प्रधान समाज में समाप्तप्रायः हो रह गया था। समाज में पुरुषवादी व्यवस्था का जोर बढ़ता गया। महिलाओं पर बंधन कठोर होते गए। नारी व्यक्ति के स्थान पर वस्तु बनती चली गई और पुरुष की सेविका की भूमिका में आ गई।
महाभारत युद्ध के बाद नारी का पतन होना प्रारंभ हुआ। इस युद्ध के बाद समाज बिखर गया धर्म का पतन हो चला और नारियां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण का शिकार हो गईं। धर्म और समाज के विचित्र कानूनों ने नारी को पुरुष से निम्न घोषित कर दिया। नारी उपभोग की वस्तु बनकर रह गई।
नारी इतनी दीन हीन और उदास हो गई कि यजुर्वेद का यह निर्देश पालन करने का साहस भी उसमें नहीं रहा, जिसमें कहा गया है – “नारी तू स्वयं को पहचान। तू शेरनी है। तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करने वाली है। देव जनों के हितार्थ अपने अंदर सामर्थ्य उत्पन्न कर। हे नारी! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली है। तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर। हे नारी! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान नष्ट करने वाली है। धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर।”
नारी का स्वरूप और सोच समय के साथ बदलता गया। आज नारी पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलते हुए प्रगति पथ की सहयात्री बन गई है। उन्नति के साथ विकृति का आ जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है। नारी की पूर्ण स्वतंत्रता की चाह ने तमाम विसंगतियों को जन्म दे दिया है। आज की नारी स्वतंत्रता चाहती है, ठीक है लेकिन स्त्री को बाल, युवा और वृद्धावस्था में जो स्वतंत्र न रहने के लिए कहा गया, वह भी निराधार नहीं है। स्त्री के शरीर का नैसर्गिक संघठन ही ऐसा है कि उसे सदा एक सावधान पहरेदार की आवश्यकता होती है। उसे समझना चाहिए कि यह उसका पद गौरव है ना कि पराधीनता। नारी पुरुष के समान ही मानवता के अधिकारी है, आदरणीय है।