Monday, 21 April 2025

जिसने शून्य दिया, उसे हम भूलते जा रहे हैं

 Aryabhata :  भारतीय गणित और खगोलशास्त्र के इतिहास में 14 अप्रैल का दिन विशेष महत्व रखता है। यह वही दिन है…

जिसने शून्य दिया, उसे हम भूलते जा रहे हैं
 Aryabhata :  भारतीय गणित और खगोलशास्त्र के इतिहास में 14 अप्रैल का दिन विशेष महत्व रखता है। यह वही दिन है जब लगभग 1500 वर्ष पूर्व जन्मे एक ऐसे वैज्ञानिक मनीषी ने जन्म लिया, जिसने विश्व को ‘शून्य’ की अवधारणा दी और गणित को एक नई दिशा दी — वह थे आर्यभट्ट। जहाँ एक ओर इस दिन डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती राष्ट्रीय स्तर पर बड़े पैमाने पर मनाई जाती है, वहीं दूसरी ओर भारत के इस वैज्ञानिक पुरोधा को लेकर चुप्पी और उपेक्षा चिंताजनक है।

भारत की वैज्ञानिक परंपरा का स्वर्णिम अध्याय

आर्यभट्ट का जन्म 476 ईस्वी में हुआ था। उनका कार्यक्षेत्र पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) और कुसुमपुर के आस-पास माना जाता है। उन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में अपनी कालजयी रचना ‘आर्यभट्टीय’ की रचना की, जिसमें उन्होंने गणित, त्रिकोणमिति और खगोल विज्ञान के जटिल विषयों को सरल सूत्रों में प्रस्तुत किया।
इस ग्रंथ में उन्होंने ‘π’ (पाई) का अत्यंत सटीक मान प्रदान किया — 3.1416, जो कि दशमलव पद्धति के साथ उनके गहन गणितीय ज्ञान को दर्शाता है। पृथ्वी की घूर्णन गति, दिन-रात की व्याख्या, ग्रहण की वैज्ञानिक व्याख्या, और ग्रहों की चाल की गणना — ये सभी अवधारणाएँ उन्होंने उस समय रखीं, जब पश्चिमी जगत अभी वैज्ञानिक चेतना की दहलीज़ पर भी नहीं पहुँचा था।

शून्य’ की अवधारणा: भारत की अमूल्य देन

आर्यभट्ट ने विश्व को ‘शून्य’ की व्याख्या दी — एक ऐसी अवधारणा जिसने न केवल गणना को आसान बनाया बल्कि आधुनिक गणित, भौतिकी, कंप्यूटर साइंस और तकनीक की नींव रखी। आज जिस डिजिटल युग में हम जी रहे हैं, वह इसी ‘शून्य और एक’ की बाइनरी प्रणाली पर टिका है। यह समझना ज़रूरी है कि ‘शून्य’ कोई मात्र अंक नहीं, बल्कि वह विचार है जिसने गणित की परिभाषा को ही बदल दिया। आर्यभट्ट के बिना न आधुनिक गणना संभव होती, न उपग्रह, न मोबाइल तकनीक, और न ही आज का डिजिटल संसार।

खगोलशास्त्र में क्रांति

आर्यभट्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है और सूर्य की परिक्रमा करती है — एक ऐसा विचार जो उस समय की धार्मिक मान्यताओं और विश्व दृष्टिकोण के विरुद्ध था। उन्होंने यह भी बताया कि चंद्र और सूर्य ग्रहण चंद्रमा और पृथ्वी की छाया के कारण होते हैं, न कि ‘राहु-केतु’ जैसे पौराणिक ग्रहों के कारण। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण भारत की चिंतन परंपरा की गहराई और तार्किकता को दर्शाता है, जो आज भी कई आधुनिक शिक्षण संस्थानों में अनुपस्थित है।

विस्मरण की पीड़ा: क्या हम अपने नायकों को भूल रहे हैं?

इतिहास का यह दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है कि आर्यभट्ट जैसे वैज्ञानिक जिनकी तुलना गैलीलियो, न्यूटन या कॉपरनिकस से की जानी चाहिए थी, उन्हें हमने पाठ्यपुस्तकों की सीमाओं तक ही सीमित कर दिया है।
देश में नेताओं की मूर्तियाँ बनती हैं, सड़कों और योजनाओं के नाम बदलते हैं, लेकिन वैज्ञानिकों को राष्ट्र-निर्माण में उनका स्थान नहीं मिल पाता। यह विडंबना ही है कि आर्यभट्ट की जयंती न तो राष्ट्रीय स्तर पर मनाई जाती है, न ही इसे विज्ञान दिवस की तरह मान्यता प्राप्त है। क्या यह हमारे सांस्कृतिक और शैक्षणिक दृष्टिकोण की संकीर्णता नहीं दर्शाता?

आज के भारत में आर्यभट्ट की प्रासंगिकता

जब भारत ‘विकसित भारत’ की बात कर रहा है, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘चंद्रयान’ और ‘गगनयान’ जैसे अभियानों को आगे बढ़ा रहा है, तब यह अनिवार्य है कि हम अपने वैज्ञानिक इतिहास को पुनः पहचानें और सम्मान दें। आर्यभट्ट केवल इतिहास के पन्नों का विषय नहीं हैं। वह एक दृष्टिकोण हैं — तर्क, ज्ञान और खोज का। उनकी स्मृति में शोध संस्थानों, विज्ञान मेले, स्कूली परियोजनाएं और सार्वजनिक व्याख्यान आयोजित किए जाने चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह 14 अप्रैल को ‘भारतीय गणित दिवस’ या ‘वैज्ञानिक चेतना दिवस’ के रूप में मनाने की दिशा में पहल करे।
आर्यभट्ट की विरासत न केवल भारत, बल्कि समस्त मानवता की साझा धरोहर है। उन्हें याद करना, उनका सम्मान करना और आने वाली पीढ़ियों को उनके कार्यों से परिचित कराना हमारा नैतिक दायित्व है। जिन्होंने हमें ‘शून्य’ दिया, उन्हें शून्य मत बना दीजिए। Aryabhata :
– रविंद्र आर्य

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