कृषि कानूनों की वापसी से नेताओं का 1 फायदा, किसानों का 7 नुकसान
Anjanabhagi
पचास और साठ के दशक में भारत गंभीर खाद्यान्न संकट से गुजर रहा था। सूखे और बाढ़ की वजह से देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ना सामान्य बात थी। लोगों के पास खाने के लिए दो वक्त की रोटी तक नहीं होती थी। इस संकट से उबरने के लिए सरकार ने भारतीय किसानों को परंपरागत खेती छोड़ने और आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया। इस बदलाव को ही ‘हरित क्रांति’ के नाम से जानते हैं।
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने संंकरित बीज, यूरिया, खाद, ट्रैक्टर, थ्रेसर, पंपिंग सेट जैसे आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल शुरू किया। जल्द ही इस बदलाव का असर दिखने लगा। देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में अकेले पंजाब का योगदान 70% हो गया।
पंजबा, हरियाणा के किसान और उनकी खेती करने का तरीका देश के अन्य किसानों के लिए उदाहरण बन गया। इन राज्यों में किसानों की आय तेजी से बढ़ने लगी। सन् 2000 में पंजाब की प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे ज्यादा थी।
1. पिछले पचास साल में हुआ ये हाल
सत्तर के दशक में शुरु हुई हरित क्रांति को अब पचास से भी ज्यादा साल गुजर चुके हैं। तब से अब तक भारत की कृषि व्यवस्था में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। नतीजा यह है कि भारत की 50% से ज्यादा आबादी के कृषि में लगे होने के बावजूद जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 20% से भी कम है और कृषि क्षेत्र की विकास दर तीस से चार प्रतिशत के बीच बनी हुई है।
यानी, किसानों की आय में सालाना तीन से चार प्रतिशत की बमुश्किल बढ़त होती है। कई राज्यों में हालात इससे भी ज्यादा खराब हैं। खासतौर पर बुंदेलखंड और विदर्भ के किसानों की स्थिति बेहद दयनीय है। यहां, अक्सर किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं।
2. क्यों सरकार पर निर्भर हो गए किसान
सत्तर के दशक में जिस हरित क्रांति ने पंजाब और हरियाणा के किसानों को जमकर फायदा पहुंचाया, वहीं इन्हें सरकार पर निर्भर भी बनाया। बीस साल पहले पंजाब की प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे ज्यादा हुआ करती थी लेकिन, 2020 में यह 14वें नंबर पर पहुंच गई है।
खाद्यान्न की कमी के कारण पंजाब के किसानों ने गेहूं की जगह चावल की जमकर खेती की और खूब मुनाफा कमाया। सरकार ने भी खाद्यान्न संकट से निपटने के लिए इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सरकारी गोदामों का निर्माण किया।
गेहूं, चावल सहित 23 खाद्य पदार्थोें के लिए एमएसपी तय कर दी ताकि, अनाज का बफर स्टॉक बना रहे। सरकार किसानों से तय दाम पर अनाज खरीदती रही, भले ही वह गोदामों में पड़े सड़ते रहे। किसान इस बात से खुश थे कि चाहे बाजार में मांग हो या न हो, सरकार तो उनके अनाज को एमएसपी पर खरीदेगी ही। इस तरह सरकारी पैसे की बर्बादी बदस्तूर जारी रही।
आज भारत सरकार के पास बफर स्टॉक के नाम पर 81 मिलियन टन अनाज सरकारी गोदामों में पड़ा हुआ है। जबकि, बफर स्टॉक की अधिकतम सीमा 31 मिलियन टन है। यानी, 1,50,000 करोड़ रुपये का अनाज सरकारी गोदामों में सड़ रहा है।
3. पर्यावरण को हो रहा गंभीर नुकसान
पंजाब में चावल की अत्यधिक खेती की वजह से इस क्षेत्र में भूगर्भीय जल का स्तर हर साल एक फीट नीचे जा रहा है। कुछ क्षेत्रों में तो यह सालाना एक मीटर नीचे जा रहा है।
धान की खेती में पानी के अत्यधिक इस्तेमाल से मीथेन गैस पैदा होती है जो कार्बन डाइऑक्साइड से 80 गुना ज्यादा खतरनाक होती है। इसके अलावा धान की खेती के बाद बची पराली को जलाने से होने वाले प्रदूषण की मार दिल्ली-एनसीआर को हर साल झेलनी पड़ती है। दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण में पराली से उठने वाले धुएं का योगदान करीब 48% होता है।
4. अब अनाज नहीं, इन चीजों की है मांग
मांग से कई गुना ज्यादा उत्पादन और जरूरत से ज्यादा स्टॉक की वजह से कृषि अब मुनाफे का काम नहीं रह गया है। परंपरागत कृषि के चलते न केवल किसानों का मुनाफा घट रहा है बल्कि, इससे पर्यावरण को भी गंभीर नुकसान हो रहा है।
आधुनिक भारत में लोगों की आय बढ़ी है और खान-पान भी तेजी से बदला है। पचास-साठ के दशक के भारत में गेहूं, चावल, दाल जैसे खाद्य पदार्थों पर निर्भरता ज्यादा थी। आधुनिक भारत में दूध, पनीर, वनस्पति, घी, डेयरी पदार्थ, ब्रोकली, मशरूम जैसे खाद्य पदार्थों का बाजार तेजी से बढ़ा है।
5. क्यों ज़रूरी है कृषि के परंपरागत तरीके में बदलाव
परंपरागत खेती के ज़रिए इन चीजों को उत्पादन संभव नहीं है। इसके लिए आधुनिक तकनीक, बेहतर प्रशिक्षण और मांग के मुताबिक खेती करने की जरूरत है। यानी, खेती में बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है ताकि, इसे आधुनिक और विश्व बाजार से मुकाबले के लिए तैयार किया जा सके।
कृषि में आधुनिक तकनीक के साथ कोल्ड स्टोरेज, रेफ्रिजरेटर युक्त अत्याधुनिक परिवहन के साधन सहित आधुनिक मंडियों और बेहतर सड़कों व हाइवे का जाल होना जरूरी है।
6. क्या यह सब चीजें सरकार नहीं कर सकती
सरकारी गल्ले की दुकान या पीडीएस सहित एफसीआई के गोदाम और एमएसपी जैसी चीजों का खामियाजा देश लंबे समय से भुगत रहा है। कई शोधों में यह बताया जा चुका है कि पीडीएस के नाम पर बांटे जाने वाले अनाज का 46% हिस्से की कालाबजारी होती है। यानी, केवल 52% अनाज ही उन लोगों तक पहुंचता है जिन्हें इसकी जरूरत है।
बेहतर है कि तकनीकी की मदद से ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि जिसमें जरूरतमंद व्यक्ति की बायोमेट्रिक आईडी का इस्तेमाल हो और उसे किसी भी दुकान या मॉल से अपनी जरूरत का अनाज मिल जाए। ऐसे सुधारों से पीडीएस सिस्टम, अनाज के गोदामों और गरीबों के नाम पर अनाज कालाबाजारी करने वालों से एक झटके में मुक्ति पाई जा सकती है।
7. बिना सरकारी मदद के तेजी से बढ़ रहे ये धंधे
मुर्गी पालन, डेयरी उत्पादन या ज्यादातर खाद्य पदार्थ जिनका हम और आप इस्तेमाल करते हैं उन पर किसी तरह का सरकारी नियंत्रण नहीं होता। ये उद्योग तेजी से बढ़ रहे हैं और इन्हें करने वाले मुनाफा भी कमा रहे हैं। भारत, पचास और साठ के दशक के अनाज संकट से बहुत आगे निकल चुका है। अब खेती के तरीके को भी समय के साथ बदलने की जरूरत है।
केंद्र सरकार ने जिन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला किया है उसकी जो भी वजहें रही हों लेकिन, इससे भारत में कृषि सुधारों की प्रक्रिया को गंभीर झटका लगा है। आने वाले कई सालों या दशकों तक अब शायद ही कोई सरकार कृषि सुधारों की बात कर पाएगी। मुफ्त बिजली, कर्ज माफी या एमएसपी जैसी लोकलुभावन घोषणाओं से किसानों को भले ही फौरी राहत मिलती हो लेकिन, इससे उनकी जिंदगी में गुणात्मक बदलाव नहीं लाया जा सकता। ज़रूरी है कि यह बात सरकार या कृषि विशेषज्ञ ही नहीं, किसान भी समझें।
8. क्यों नेता नहीं चाहते कृषि व्यवस्था में बदलाव
नेता अपने बच्चों को अप-टू-डेट बनाए रखने के लिए विदेशों में पढ़ाते हैं, लेकिन सरकारी स्कूलों को अंग्रेजी मीडियम बनाने का विरोध करते हैं। अपने फार्म हाउसों में ऑर्गेनिक खेती करते हैं और एडवांस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं जबकि, कृषि के आधुनिकीकरण और कृषि सुधारों पर राजनीति करते हैं। आज शहरों ही नहीं छोटे कस्बों में भी सब्जी बेचने वाला पेटीएम से पेमेंट ले रहा है। लेकिन, नेता चाहते हैं कि कृषि वैसे ही होती रहे जैसे पिछले सत्तर साल से होती आ रही है। आम आदमी और देश के किसानों को समझना होगा कि आखिर यह सब करने से अंतत: किसे फायदा होगा और किसे नुकसान।