सहारनपुर। गंगा को पवित्र और निर्मल बनाए रखने के लिए अनेकों अभियान चलाए जा रहे हैं। गंगा और उसके जल को बचाने के लिए चलाए जा रहे अभियान के तहत अरबों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। उसी गंगा के जल के मुगलकालीन शासक भी मुरीद थे। मुगल काल में गंगाजल को मिनरल वाटर से कम नहीं माना जाता था। सुबह के नाश्ते के समय, दोपहर के भोजन और यहां तक कि शिकार पर निकलने वक्त मुगल शासक गंगाजल को साथ लेकर चलते थे और इसे मिनरल वाटर के तौर पर सेवन करते थे। बादशाह अकबर से लेकर मुगल शासक औरंगजेब तक गंगा का अमृत सरीखा जल पीते रहे। पेशवा तो इतने क्रेजी थे कि खासतौर पर काशी से पूना और श्रीरामेश्वरम तक कावड़ी में गंगाजल मंगवाते थे।
सन 1325 से 1354 तक मोरक्को के यात्री इब्नबतूता ने एशियाई यात्रा के विवरण में लिखा कि सुलतान मुहम्मद तुगलक के लिए गंगाजल नियमित रूप से दौलताबाद पहुंचाया जाता। अबुलफजल ने आइनेअकबरी में बादशाह अकबर के गंगाजल प्रेम पर विस्तारपूर्वक लिखा। इसके मुताबिक विश्वासपात्र कर्मचारी घड़ों में गंगाजल भरकर राजकीय मुहर लगाते और अकबर के दैनिक प्रयोग के लिए रवाना कर देते। अकबर घर और सफर में केवल गंगाजल ही सेवन करते थे। उनके आगरा या फतेहपुर सीकरी रहने पर सोरों से गंगाजल आता था। पंजाब में प्रवास के दौरान अकबर हरिद्वार से गंगा जल मंगाकर सेवन करते थे। भोजन तैयार करते समय भी गंगाजल मिला दिया जाता था।
शादी के बाद गंगा जल पिलाने का था रिवाज
रुड़की निवासी शिक्षाविद् डॉ. सम्राट सुधा द्वारा गंगाजल पर गहन अध्ययन किया गया है। डा. सम्राट सुधा के अनुसार गंगाजल को मुसलमान शासक सर्वश्रेष्ठ जल मानते थे और उनके लिए यह आज के मिनरल वाटर से कम नहीं था। उन्होंने बताया कि फ्रांसीसी चिकित्सक और इतिहासवेत्ता बर्नियर ने यात्रावृत्तांत में लिखा कि औरंगजेब सफर में गंगाजल रखता था। सुबह के नाश्ते में इसका प्रयोग होता। दरबारी भी नियमित सेवन करते थे। मुगल काल में फ्रांसीसी यात्री टैवर्नियर के भारत आए। उनके यात्रा विवरण में उल्लिखित है कि हिंदुओं के विवाह समारोहों में भोजनोपरांत अतिथियों को गंगाजल पिलाने का रिवाज था। दूर से गंगाजल मंगाने में काफी खर्च आता। उस वक्त तो कभी-कभी तीन-चार हजार रुपये खर्च हो जाते, जो बजट का बड़ा हिस्सा होता। 1934 में प्रकाशित मराठी पुस्तक पेशवाइच्या सावलींत में लिखा गया है कि पेशवाओं के लिए काशी से पूना गंगाजल ले जाने पर प्रति बहंगी या कावड़ी दो रुपये तथा पूना से श्रीरामेश्वरम ले जाने में चार रुपये खर्च होते। गढ़मुक्तेश्वर, हरिद्वार से भी गंगाजल भेजा जाता था।
जताई थी चिंता
1896 में संयुक्त प्रांत और मध्य प्रांत के तत्कालीन केमिकल एक्जामिनर हैनबरी हैंकिन ने अपने एक लेख में चिंता जताई थी कि बीते दौर में स्वच्छता के मानकों पर शतप्रतिशत खरे उतरने वाले गंगाजल में प्रदूषण की मात्रा लगातार बढ़ रही है। इसे रोका जाना चाहिए। लेकिन कड़वा सच यही है कि आगे चलकर इस खतरे के प्रति बारीकी से ध्यान नहीं दिया गया, जिसका नतीजा आज पवित्र गंगा के दिनोंदिन प्रदूषित होते स्वरूप की शक्ल में सबसे सामने है।