Gujrat Patola Saree : आज हम बात करेंगे गुजरात की पटोला साड़ी, की जो हथकरघे पर बनती है । पटोला साड़ी गुजरात के पाटण में बनायी जाती है। यह प्रायः रेशम की बनती है। इस साड़ी का इतिहास 900 साल पुराना है । 12वीं शताब्दी में सोलंकी वंश के राजा कुमारपाल ने महाराष्ट्र के जालना के बाहर बसे 700 पटोला बुनने वालों को पाटन में बसने के लिए बुलाया और इस तरह पाटन पटोला की परंपरा शुरू हुई थी।पटोला साड़ी की कीमत 2 लाख से शुरू होती है और 4 लाख तक जाती है. ये साड़ी बेहद ही खास और खूबसूरत है।पटोला शब्द संस्कृत के ‘पट्टकुल’ शब्द से लिया गया है.
Gujrat Patola Saree
हस्तकला से निर्मित साड़ी:
पटोला बनाने वाले कारीगरों का कहना है कि पटोला साड़ी का पूरा काम हाथ से होता है। यह एक हैंडीक्राफ्ट है,इस साड़ी को बनाने का प्रोसेस बहुत जटिल है ।यह काफी महीन काम है। पूरी तरह सिल्क से बनी इस साड़ी को वेजिटेबल डाई या फिर कलर डाई किया जाता है। हथकरघे से बनी इस साड़ी को बनाने में करीब एक साल लग जाता है। इन साड़ियों की कीमत भी बुनकरों के परिश्रम व माल की लागत के हिसाब से पांच हजार रुपये से लेकर दो लाख रुपये तक होती है।इस साड़ी को बनने मे यदि एक धागा भी इधर उधर हो जाता है तो पूरी साड़ी खराब हो जाती है ।ये साड़ी पावर लूम पर नही बनती है ।सबसे खास बात यह है कि प्योर सिल्क से बनने वाली ओरिजनल पटोला साड़ी पूरी दुनिया में सिर्फ गुजरात के पाटन में ही बनती है। 900 साल पुरानी इस हस्तकला के कदरदान देश ही नही बल्कि विदेशो मे भी है ।ये काम किसी इंडस्ट्री मे नही होता है ।ये व्यापार केवल ऑर्डर पर ही चलता है ।पूरे देश में केवल एक ही परिवार है जो पटोला बनाने का काम करता है ।
पटोला बनाने कि कला:
पटोला बनाने की कला इतनी अनमोल है कि 1934 मे एक हस्तनिर्मित पटोला साड़ी की कीमत 100 रुपये थी।पाटन में केवल 1 ऐसा परिवार हैं, जो ओरिजनल पाटन पटोला साड़ी बनाने की कला को संजोए हुए है और इस विरासत को आगे बढ़ा रहा है।पटोला साड़ियां बनाने के लिए रेशम के धागों पर डिजाइन के मुताबिक वेजीटेबल और केमिकल कलर से रंगाई की जाती है। फिर हैंडलूम पर बुनाई का काम होता है।
पटोला की लुप्त होती कला:
मात्र 1 ही परिवार ऐसा बचा है जो पटोला की इस कला को बचाये हुए है ।इसी वजह से पटोला महंगा होने के करण नकली पटोला भी बनता है ।भरतभाई पटोला के कारीगर है उन्हे सरकार की तरफ से हर संभव मदद देने और प्रशिक्षण केंद्र खोलने की बात कही गयी है ।ताकि 900 साल पुरानी कला नष्ट न हो।
इस साड़ी की खासियत है कि ये दोनो तरफ से पहनी जाती है ।इस आर्ट को ‘डबल इकत’ आर्ट कहते है ।पटोला साड़ी की दूसरी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसका रंग कभी फेड नहीं होता और साड़ी 100 साल तक चलती है। यह बुनकरी कला अब लुप्त होने के कगार पर है ।लागत के हिसाब से बाजार में कीमत न मिल पाना इस कला के सिमटने का प्रमुख कारण है।